33 प्रतिशत आरक्षण की राजनीति

विजया  रहटकर 
अध्यक्ष बी जे पी महिला मोर्चा, अध्यक्ष, महाराष्ट्र महिला आयोग
औरंगाबाद म्युन्सिपल कारपोरेशन में चुनी जाने के बाद और ओपन सीट से वहीं मेयर चुने जाने के बाद मेरा अनुभव है कि महिलायें धीरे -धीरे अपनी निर्णय दक्षता सिद्ध करने में सफल हुई हैं. भारतीय जनता पार्टी पहली पार्टी है, जिसने पार्टी संगठन में महिलाओं को आरक्षण दिया है और उम्मीद है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी महिला आरक्षण बिल संसद में जरूर पारित करवायेंगे.

एनी राजा 
महासचिव भारतीय महिला फेडरेशन
राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति ने महिलाओं के लिए आरक्षण की बात तो की लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस पर चुप्पी बना ली, जबकि सभी दलों की महिलाओं में आम सहमति है कि महिलाओं को 33% आरक्षण मिलना चाहिए. इसके लिए सरकार को बिल पावर दिखाना होगा.

राजनीतिलक 
लेखिका ‘राष्ट्रीय दलित आन्दोलन’ की संयोजक
हमारा  एक प्रतिनिधिमंडल लालू प्रसाद आदि नेताओं से ‘महिला आरक्षण बिल में पिछड़े वर्ग की महिलाओं के आरक्षण  के लिए मिलने गया और इस तरह इन नेताओं की आवाज दलित -बहुजन स्त्रियों की आवाज है .’ उबहुजन नेताओं द्वारा  कोटा के भीतर कोटा की मांग वास्तव में दलित -बहुजन स्त्रियों द्वारा उठाई गई मांग का ही विस्तार है. आरक्षण के भीतर दलित -पिछड़े वर्ग की महिलाओं के आरक्षण के साथ ‘ महिला आरक्षण बिल’  में पारित होना चाहिए .

विजया रहटकर महिला आरक्षण पर बोलते हुए 

पूनम सिंह
 लेखिका 

भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था पुरूषों के आग्रह और विचारों से ही संचालित है. इस नाकारात्मक विचार व्यवस्था में आज भी स्त्री दोयम दर्जे की नागरिक के रूप में ही परिभाषित है।पितृसत्तात्मक वर्चस्व के कारण राजनीतिक-सत्ता संस्थानों और व्यवस्था में जब भी आधी आबादी के हक और भागीदारी का प्रश्न उठता है , तो उसे दबाने की हरसंभव कोशिश की जाती है ।

33 प्रतिशत का विधेयक पहली बार संयुक्त मोर्चे की सरकार चला रहे प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा के समय में लोकसभा में पेश किया गया था। उस समय उसी सरकार के मंत्री शरद यादव ने सबसे पहले इस विधेयक को ‘बालकटी-परकटी’ महिलाओं का प्रभुत्व बढ़ाने वाला बताया था। तब देवगौड़ा ने इसे चयन समिति को सौंप दियाथा। संयुक्त चयन समिति द्वारा इसे संशोधितऔर परिमार्जित करके वाजपेयीजी ने फिर इसे हाउस में रखा, लेकिन नतीजाक्या ? वही ढाक के तीन पात।

संसद में जब भी इस विधेयक पर मोहर लगाने की बात हुई परस्पर दुरभिसंधि से सबने इस विधेयक में कई व्यवधान खड़े किय। मुलायम सिंह यादवऔर लालू प्रसाद जैसे शीर्ष नेताओं ने भी इसविधेयक के विरोध में अपनीआवाज बुलंद की। मुलायम सिंह यादव ने उस समय कहा था- ‘महिलाएं राजनीति के क्षेत्र में अनुभव हीन होती हैं। उन्हें आरक्षण देकर विधायिका में जगह दी गई तो देश की सुरक्षा खतरे में पड़ जायेगी। वे अधिक से अधिक 10 प्रतिशत आरक्षण के पक्ष में हैं।

अनेक सांसदों की आपत्ति है कि राजनीति की जमीन बहुत उबड़खाबड़ है। यहाँ बाहुबलियों का बोलबाला है। जैविक संरचनागत सीमाओं के कारण स्त्री की सुरक्षा का प्रश्न यहाँ एक विकट स्थिति पैदा करेगा- ये कैसे कुतर्क हैं ?  दरअसल पुरूष वर्चस्व वाली संसद यह नहीं चाहती कि देश की सर्वोच्च संस्थाओं में महिलायें उनकी बराबरी में आकर बैठें। उनके यहाँ काबिज होने से पुरूष सांसदों को अपनी सीटें छोड़नी पड़ेगी इसलिए वे हमेशा महिलाओं को उतना ही देना चाहते हैं जिससे राजनीति में पुरूष सत्ता का वर्चस्व कभी न टूटे ।

आज एक बार फिर लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन की ओर से आयोजित महिला जनप्रतिनिधियों के प्रथम राष्ट्रीय सम्मेलन में 33 प्रतिशत आरक्षण की बात उठाई गई है। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने एक साकारात्मक सोच के साथ विभिन्न राजनीतिक दलों से अपील की है कि वे संसद और विधान मंडलों में महिला के एक तिहाई आरक्षण के विधेयक को पारित कराने का प्रयास करें । उपराष्ट्रपति अंसारी ने भी इसका समर्थन किया है पर इस समर्थन से सियासी दलों की राजनीति किस करवट बैठेगी-कहना कठिन है ।

यह निर्विवाद सत्य है कि जो महिलायें देश के सर्वोच्च संस्था तक गई हैं उन्होंने संसदीय क्रियाकलापों को गति देने, नियम कानून बनाने तथा समय लेने की अपनी क्षमता और कार्यकुशलता से अपने को सिद्ध किया है ।
कई राज्यों में पंचायत व्यवस्था के अन्तर्गत 50 प्रतिशत आरक्षण पाकर महिलाओं ने सामाजिक बदलाव की दिशा में क्रांतिकारी पटाक्षेप किया है। यद्यपि वहाँ भी उन्हें पितृसत्ता का वर्चस्व झेलना पड़ता है फिर भी वे स्त्री सशक्तिकरण की दिशा में कई इबारतें गढ़ रही हैं ।

संभव है इन्हीं इबारतों को देखकर लोकसभा में 33 प्रतिशत आरक्षण की बात प्रभु वर्ग को भयभीत कर रही है । इस विधेयक में राजनीतिक दलों द्वारा एक तिहाई टिकट देने की बाध्यता से सियासी महकमे में हमेशा हलचल मच जाती है और भरी सभा में महिला आरक्षण विधेयक द्रोपदी की चीर की तरह बेआबरू होकर कूचे से बाहर आ जाता है। लेकिन भारत में अब भ्रष्टतंत्र और विषैली हो रही राजनीति के शुद्धिकरण के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण की अनिवार्यता स्वयंसिद्ध हो रही है। यह अघोषित समय की आश्वस्ति है जो भविष्य में कहीं आकार ले रही है ।

सुशीला पुरी 
लेखिका 

संसद में महिला आरक्षण पर चर्चा करते ही स्मृतियों में स्त्री जीवन के वे तमाम अनदेखे, अनसुने दर्द  बोलने लगते हैं जिन्हें सदियों से मर्दवादी समाज ने हाशिये पर डाला और आज भी डाल रहे हैं। स्त्री सर्वहारा कल भी थी और आज भी है।

8 मार्च 1910 को जब अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की घोषणा हुई थी तो उसका पहला उद्देश्य था स्त्रियों को वोट देने का अधिकार दिलाना क्योंकि उस समय अधिकतर देशों में स्त्रियों को वोट देने का भी अधिकार नहीं था। पूर्ण नागरिक न मानने, भेदभाव करने के कारण कई देशों में वोट देने का अधिकार भी नहीं था। स्त्री अधिकारों की बात करें तो उसे मनुष्य ही कहाँ माना था प्रतिक्रियावादी समाज ने ? आज भी मर्दवादी समाज स्त्री को दोयम  मानता है, उसे हुक्म का गुलाम ही जानता है।

भारतीय लोकतांत्रिक संविधान  ने  स्त्री को  मानवीय धरातल पर समान  माना किन्तु संसद में उसके  संख्या बल को बड़ी चालाकी से आरक्षण की राह में उलझाकर छोड़ दिया ।  यह आज भी मेरी समझ से परे कि  पारिवारिक-सामाजिक ताने-बाने में  स्त्री पुरुष के बिना यदि संतुलन या सृष्टि संभव नहीं तो फिर अधिकार पाने की जगह स्त्री से भेदभाव क्यों किया गया ?  भेदभाव के पीछे सदियों पुरानी मर्दवादी व्यवस्था ही दोषी है जिसने खुद को मालिक बनाए रखने की महत्वाकांक्षा में औरत को तमाम अधिकारों से वंचित रखा।  उसे सात पर्दों में कैद किया, उसे तथाकथित आचार संहिताओं के जंगल में उलझाया, तमाम अनपेक्षित नैतिकताओं की बेड़ियाँ डाली, अनगिन भावुकताओं में  उलझाया। जैविक भिन्नताओं के बावजूद स्त्री चेतना, स्त्री क्षमता पुरुष से कहीं ज्यादा जागरूक और सक्षम है।

 अभी तो तैंतीस प्रतिशत की लड़ाई है, पचास प्रतिशत तो अभी दूर की कौड़ी है।  इस तैंतीस प्रतिशत के लिए भी अभी राह आसान नहीं, क्योंकि  सत्ताएं किसी भी तरह अपनी कुर्सी छोड़ने को राजी नहीं होतीं, सत्ताएं निरंकुश और क्रूर होती हैं।  मर्दवादी सत्ता आसानी से यह मानने को तैयार ही नहीं हो सकती कि जिस सीट पर इतने वर्षों से मैं चुनकर आ रहा था उस पर कोई स्त्री प्रतिनिधि चुनी जाए।

 पंचायती व्यवस्था में चूँकि पचास प्रतिशत आरक्षण लागू हो चुका है किन्तु वहां भी अभी स्थितियां दारुण ही हैं।  अपवादों को छोड़ दें तो आज भी अधिकांश पदों पर उनके पति, जेठ, ससुर या पिता, भाई ही ‘बागडोर’ संभालते हैं। क्या आज तक कोई ऐसा सर्वे किसी प्रमाणिक संस्था या प्रशासन द्वारा हुआ कि पंचायती व्यवस्था में जो महिलायें चुनकर आती हैं उनका काम वास्तव में करता कौन है ? यह बेहद जरुरी है कि इसकी प्रमाणिकता जांची जाय।  महिला आरक्षण बिल को लेकर संसद के दोनों सदनों में अब तक जितने भी ड्रामे हुए हैं उससे मन क्षुब्ध है, तमाम राजनीतिक पार्टियों ने इसे एक वोट कमाऊ मुद्दा बना लिया है, चुनाव के पहले सब्जबाग दिखायेगे फिर चुनकर आने के बाद उसे दोनों सदनों में जलेबी की तरह छानते और मुंह मीठा करते रहते हैं, सिर्फ मीठे से पेट तो नहीं भरता  न ! संसद में चर्चा कुचर्चा के बीच महिला आरक्षण  इस तरह अपनी बेचारगी को प्राप्त होता रहा कि कई बार तो लगता है कि जैसे झुनझुना बजाकर नन्हें बच्चे को फुसलाया जा रहा हो।

 मेरा मानना है कि कोटा विद इन कोटा के साथ महिला आरक्षण बिल पास होना चाहिए। वैसे मौजूदा भाजपा पार्टी से यह उम्मीद करना फिजूल है क्योंकि माहिला जनप्रतिनिधियों के अभी हाल के सम्मलेन में प्रधानमंत्री मोदी जी ने यह कहकर अपनी वास्तविक मंशा बता ही दी कि — ‘नारी शक्ति दुर्गा, काली है, उसे किस चीज की जरुरत, वह तो सर्व शक्तिमान है’ …. ऐसे चालाकी भरे जुमलों से महिला आरक्षण की राह सरल नहीं, स्त्री को दुर्गा, काली की ‘पदवी’ नहीं, समान नागरिक अधिकार, समान संसदीय अधिकार और आरक्षण चाहिए।
महिला आरक्षण बिल को पास कराने में सहभागी समाज का स्वप्न देखने वाले लोग, मानवाधिकार के लिए लड़ने वाले लोग, गैरसांप्रदायिक लोग ही सार्थक पहल कर सकते हैं।  उन्हें भी सभी जनवादी प्रगतिशील संगठनों में स्त्री संख्या पर गौर करना होगा। क्या तमाम बड़े जनवादी संगठनों ने अपने भीतर कभी झाँकने की कोशिश की ? क्या सभी बड़े संगठनों, संस्थाओं में आज भी दस बटा एक का आंकड़ा नहीं है ? जलेस, प्रलेस, जसम  को ही जांचें तो स्त्रियों का दयनीय संख्या बल आपको चकित करेगा। संसद में तैंतीस प्रतिशत महिला आरक्षण भी बिना बृहद सामाजिक जागरूकता के मिल पाना संभव नहीं लगता क्योंकि केंद्र शासित सरकार का बुनियादी ढांचा ही पूरी तरह स्त्री विरोधी है।

1996 से जारी है लंबा संघर्ष

सितंबर 1996 महिला आरक्षण विधेयक प्रस्तुत और संसद की संयुक्त संसदीय समिति के सुपुर्द
नवंबर 1996 महिला संगठनों द्वारा संयुक्त संसदीय समिति को संयुक्त ज्ञापन
मई 1997 महिला संगठनों द्वारा राष्ट्रीय राजनैतिक दलों को संयुक्त ज्ञापन
जुलाई 1998 विधेयक को पारित कराने की मांग को लेकर संसद के समक्ष महिलाओं का संयुक्त विरोध प्रदर्शन
जुलाई 1998 राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा महिला प्रदर्शनकारियों के साथ दुव्र्यवहार की निंदा व यह मांग कि विधेयक के प्रावधानों में कोई परिवर्तन न किया जाए
अगस्त 1998 महिला संगठनों का संयुक्त प्रतिनिधिमंडल प्रधानमंत्री वाजपेयी से मिला
अगस्त 1998 विधेयक को चर्चा व पारित करने हेतु सूचिबद्ध किए जाने की मांग को लेकर संसद तक संयुक्त मार्च और धरना
नवंबर 1998 बारहवीं लोकसभा चुनाव में महिलाओं का संयुक्त घोषणापत्र जिसमें राजनैतिक दलों से इस विधेयक को पारित कराने की मांग की गई
दिसंबर 1998 ‘‘वाईसेस आॅफ आॅल कम्युनिटीज़ फाॅर 33 पर्सेन्ट रिजर्वेशन फाॅर विमेन’’ का दिल्ली में संयुक्त अधिवेशन
मार्च 1999 अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के संयुक्त आयोजन में महिला आरक्षण विधेयक को पारित करने की मांग प्रमुखता से उठाई गई
अप्रैल 2000 मुख्य निर्वाचन आयुक्त को संयुक्त ज्ञापन जिसमें यह मांग की गई कि विधेयक के विकल्प के रूप में महिलाओं को पार्टियांे द्वारा टिकिट वितरण में आरक्षण दिए जाने के प्रस्ताव को वापस लिए जाने की मांग की गई थी
दिसंबर 2000 लोकसभा अध्यक्ष मनोहर जोशी से महिलाओं के संयुक्त प्रतिनिधिमंडल की मुलाकात जिसमें जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन कर राजनैतिक पार्टियों की उम्मीदवारों की सूची में महिलाओं को एक तिहाई प्रतिनिधित्व दिए जाने के प्रस्ताव पर चर्चा करने के लिए उनके द्वारा राजनैतिक दलों की बैठक बुलाए जाने पर विरोध व्यक्त किया गया
मार्च 2003 केन्द्रीय संसदीय कार्यमंत्री सुषमा स्वराज को संयुक्त ज्ञापन सौंपकर यह मांग की गई कि सर्वदलीय बैठक में वैकल्पिक प्रस्तावों पर विचार करने की बजाए विधेयक पर मतदान कराया जाए
अप्रैल 2003 स्थानीय स्व-शासी संस्थाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने वाले 73वें व 74वें संविधान संशोधन की दसवीं वर्षगांठ के अवसर पर सभी राजनैतिक दलों के नेताओं से बिल का समर्थन करने की अपील
अप्रैल 2004 एनडीए सरकार को संसद में पराजित करने की अपील करते हुए संयुक्त वक्तव्य जारी। इसमें सरकार द्वारा आरक्षण विधेयक के मुद्दे पर महिलाओं के साथ विश्वासघात को एक कारण बताया गया था।
मई २००४   कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी से संयुक्त अपील कि वे न्यूनतम साँझा कार्यक्रम में महिला आरक्षण विधेयक को पारित करवाना शामिल करें।
मई २००५    संयुक्त प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मिल कर विधेयक को चर्चा के लिए प्रस्तुत किये जाने की मांग की।
मई २००६   संयुक्त प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से एक बार फिल मिल कर विधेयक को प्रस्तुत किये जाने की मांग की।
मई २००६   संयुक्त प्रतिनिधिमंडल में रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव से मिल कर उनसे यह अनुरोध किया कि विधेयक के सम्बन्ध में सकारात्मक पहल करें।

मई , २००८ में सरकार ने विधेयक को राज्य सभा में प्रस्तुत किया ताकि वह निरस्त न हो जाये.
प्रस्तुति संजीव चंदन

Related Articles

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles