पवित्र धार्मिक स्थलों में प्रवेश के अधिकार पाने के लिए महिलाएं आंदोलनरत हैं। सबरीमला, शनि शिन्गनापुर और हाजी अली की दरगाह में महिलाओं को बिना किसी रोकटोक के प्रवेश मिलना चाहिए, इस मांग को कई महिला संगठन जोरशोर से उठा रहे हैं। केरल के प्रसिद्ध सबरीमला मंदिर में प्रजननयोग्य आयुवर्ग (10 से 50 वर्ष) की महिलाओं का प्रवेश निषिद्ध है। इस आयुवर्ग की महिलाओं को मासिक धर्म होता है और इसलिए उन्हें अपवित्र माना जाता है। इस सिलसिले में रजोधर्म से जुड़े निषेधों के विरोध में एक युवा महिला द्वारा शुरू किया गया ‘‘हैप्पी टू ब्लीड’’ अभियान भी चर्चा में है। हाल में, महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में स्थित शनि शिन्गनापुर मंदिर में प्रवेश करने के महिलाओं के एक समूह के प्रयास को बलपूर्वक असफल कर दिया गया। इसे औचित्यपूर्ण ठहराने के लिए कई कारण गिनाए गए-भगवान शनि की कुदृष्टि उन पर पड़ सकती है, गर्भवती महिलाओं का स्वास्थ्य भगवान शनि से निकलने वाले हानिकारक विकिरण से प्रभावित हो सकता है और यह भी कि भगवान शनि, महिलाओं को पसंद नहीं करते! कुछ इसी तरह के ऊलजलूल तर्क मुंबई में हाजी अली की दरगाह में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबन्ध को उचित ठहराने के लिए प्रस्तुत किये जा रहे हैं। यह कहा जा रहा है कि महिलाओं को एक पुरुष संत की कब्र को नहीं छूना चाहिए। इस दरगाह की देखरेख करने वाले बोर्ड का कहना है कि महिलाओं का एक दरवेश की कब्र के पास जाना, इस्लाम की निगाह में गुनाह है।
यह मसला महिला व नागरिक अधिकारों में धर्म की भूमिका व तार्किकता और धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देने के राज्य के कर्तव्य से जुड़ा हुआ है। इन स्थानों पर महिलाओं के प्रवेश पर पाबन्दी तो चिंता का विषय है ही, इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह तर्क है कि ये पाबंदियां महिलाओं की सुरक्षा की खातिर लगाई गई हैं। हाजी अली बोर्ड से जब यह पूछा गया कि सन 2011 तक महिलाओं के प्रवेश पर जब कोई पाबन्दी नहीं थी, तो बाद में यह क्यों लगाई गई, तो उसका जवाब था कि दरगाह में आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या में बहुत वृद्धि हो गयी थी और इसलिए महिलाओं को यौन उत्पीड़न व छेड़छाड़ से बचाने के लिए यह निर्णय लिया गया। शनि शिन्गनापुर मंदिर में प्रवेश के अधिकार के लिए आंदोलनरत महिलाओं की एक नेत्री तृप्ति देसाई ने बताया कि मंदिर के संचालनकर्ताओं का कहना है कि प्रतिबन्ध का उद्देश्य, महिलाओं की सुरक्षा है क्योंकि ‘‘शनि भगवान से ऐसी किरणें निकलती हैं जो गर्भस्थ शिशु को हानि पहुंचा सकती हैं’’। इस मंदिर के कर्ताधर्ताओं का महिलाओं का शुभचिंतक बनने का यह प्रयास, दरअसल, महिलाओं की स्वतंत्रता का हनन है। यह पितृसत्तात्मक धारणा कि महिलाओं की सुरक्षा के संबंध में निर्णय केवल पुरूष ही ले सकते हैं और यह कि महिलाओं को पुरूषों की सुरक्षा की आवश्यकता है, महिलाओं की समानता के अधिकार का विलोम है।
दूसरा मुद्दा ‘‘पवित्रता’’ की अवधारणा के बारे में है। यह सर्वज्ञात है कि हमारे समाज में लगभग सभी धर्मों में रजोधर्म के दौरान महिलाओं के लिए कई कार्य प्रतिबंधित हैं। उन्हें धार्मिक कार्यक्रमों में भाग नहीं लेने दिया जाता और कई मामलों में घरेलू कामकाज से भी दूर रखा जाता है। महिलाओं के साथ यह अपमानजनक व्यवहार, मंदिरों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर भी जारी है। अगर ईश्वर ने सभी मनुष्यों को बनाया है तो महिलाओं का निर्माता भी वही है और उसी ने रजोधर्म को महिलाओं की शारीरिक संरचना का अंग बनाया है। ऐसे में, रजोधर्म के दौरान महिलाएं अपवित्र कैसे हो सकती हैं? यह बहुत अजीब बात है कि आज महिलाएं जहां जीवन के सभी क्षेत्रों में आगे बढ़ रही हैं, वहीं उन्हें उन स्थानों पर जाने से रोका जा रहा है, जहां ईश्वर का वास बताया जाता है। यह भी कितना अजीब है कि कुछ लोग यह कह रहे हैं कि इन आराधना स्थलों में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध इसलिए जायज़ है क्योंकि ऐसी ‘परंपरा’ है। क्या परंपराएं इतनी पवित्र होती हैं कि उन्हें बदला ही नहीं जा सकता? दरअसल, इन परंपराओं के स्वनियुक्त संरक्षक किसी भी परिवर्तन के खिलाफ इसलिए हैं क्योंकि ये परंपराएं ही उनकी सत्ता और विशेषाधिकारों का स्त्रोत हैं। इसी कारण ये लोग महिलाओं, तार्किकतावादियों और धर्मनिरपेक्षतावादियों की इस मांग का विरोध कर रहे हैं कि आराधना स्थलों के दरवाजे सभी लोगों के लिए खोल दिए जाएं।
यह समझना महत्वपूर्ण होगा कि महिलाएं आखिर क्यों मंदिरों और दरगाहों तक पुरूषों के समान पहुंच चाहती हैं? जब मैं इस मुद्दे पर अपने कुछ मित्रों से चर्चा कर रही थी तो उनमें से एक ने कहा कि महिलाओं को उन धर्मों का पालन करना बंद कर देना चाहिए जो उन्हें पवित्र स्थानों पर प्रवेश करने से रोकते हैं। उसका तर्क यह था कि महिलाओं को ऐसे किसी भी ऐसे विचार या संस्था, जो उन्हें समान अधिकार नहीं देती, से जुड़े नहीं रहना चाहिए। दरअसल, समस्या की जड़ यही है। दक्षिण एशियाई समाजों में धर्म एक बहुत बड़ी ताकत है और वह सार्वजनिक विमर्श को तो प्रभावित करता ही है वह अपने अनुयायियों के निजी जीवन पर भी प्रभाव डालता है। धर्म, समाज में विभिन्न वर्गों की हैसियत का निर्धारण करता है, इनमें दलित और महिलाएं शामिल हैं। हिंदू धर्म में कई देवियां हैं और उन्हें बहुत श्रद्धा से पूजा जाता है परंतु महिलाओं को वेदों का अध्ययन करने की इजाज़त नहीं हैं और ना ही वे पुरोहित बन सकती हैं। मनुस्मृति में कहा गया है कि महिलाओं को उसी तरह की क्रूर सजाएं दी जानी चाहिए जैसी कि पशुओं की दी जाती हैं। मनुस्मृति, ऊँची जातियों की महिलाओं द्वारा नीची जातियों के पुरूषों के साथ विवाह को हतोत्साहित करती है।
धर्म से प्रभावित सांस्कृतिक आचार-व्यवहार भी मुख्यतः महिला-विरोधी रहा है। सती, दहेज प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या आदि कुछ ऐसी सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराएं हैं, जिनकी जड़ें धर्म में हैं। एक ऐसे समाज, जिस पर धर्म की गहरी पकड़ हो, में अगर महिलाओं को मंदिरों और दरगाहों में प्रवेश करने से रोका जाता है और उन्हें पुजारी और मौलवी बनने की इजाज़त नहीं दी जाती तो इससे ऊँचनीच और दमन के ढांचे को वैधता मिलती है। यह संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 द्वारा बिना लिंगभेद के सभी नागरिकों को समान दर्जा दिए जाने के प्रावधान का उल्लंघन है। इन संवैधानिक प्रावधानों के प्रकाश में महिलाओं को किसी भी आराधना स्थल में प्रवेश करने और आराधना करने का संपूर्ण, अविवादित और समान अधिकार है। महिलाओं को पवित्र स्थलों पर प्रवेश से वंचित किए जाने का मुद्दा, दरअसल, हमारे संवैधानिक अधिकारों और सामाजिक व्यवस्था के बीच की खाई को दर्शाता है। इस बहस की बारीकियां समझने के लिए हमें हाजी अली दरगाह बोर्ड द्वारा इस सिलसिले में दिए गए तर्कों का अध्ययन करना होगा। बोर्ड का तर्क है कि दरगाह में महिलाओं को प्रवेश न देने का उसका निर्णय, संविधान के अनुच्छेद 26 के अनुरूप है जो कि ‘‘प्रत्येक धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी अनुभाग को, धार्मिक और पूर्त प्रयोजनों के लिए संस्थाओं की स्थापना और पोषण का और अपने धर्म विषयक कार्यों का प्रबंध करने का अधिकार देता है’’।
सबरीमला के मामले में त्रावणकोर देवास्वम बोर्ड का तर्क है कि प्रजननयोग्य आयु की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश न देने की परंपरा सदियों पुरानी है और उसे धार्मिक वैधता प्राप्त है। इस सिलसिले में न्यायपालिका को अनुच्छेद 14, 15 व 25 की व्याख्या कर यह तय करना होगा कि क्या इस तरह के प्रतिबंध ‘‘आवश्यक धार्मिक प्रथा हैं’’? वर्तमान में मंदिरों और अन्य आराधना स्थलों के संचालनकर्ताओं को यह अधिकार है कि वे उक्त संस्था के संचालन के लिए उपयुक्त नियम बना सकते हैं बशर्ते वे नियम संबंधित धर्म की प्रथाओं, आराधना की रीतियों व आचरण के अनुरूप हों। क्या महिलाओं को धार्मिक स्थलों पर प्रवेश का समान अधिकार है? न्यायपालिका को इस संबंध में किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले यह तय करना होगा कि कुछ धार्मिक स्थलों में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी, क्या संबंधित धर्म का अविभाज्य व आवश्यक हिस्सा है?
यद्यपि इस संबंध में अंतिम निर्णय न्यायपालिका को लेना है परंतु नागरिक समाज और महिलाओं के एक बड़े तबके का यह मानना है कि धर्म और उसकी प्रथाएं व परंपराएं इतनी कठोर नहीं होनी चाहिए कि उनमें किसी भी प्रकार का कोई परिवर्तन न हो सके। संगठित धर्म, हमारे समाज के सामाजिक व मनोवैज्ञानिक नियामक बतौर महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है और धर्म जैसी शक्तिशाली संस्था, महिलाओं के प्रति भेदभाव की नीति नहीं अपना सकती। अगर हम इस भेदभाव का विरोध नहीं करेंगे तो अपरोक्ष रूप से हम यह स्वीकार करेंगे कि महिलाएं, पुरूषों से कमतर हैं। इसलिए भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन और भूमाता रणरागिनी ब्रिगेड अपनी-अपनी रणनीतियां बना रही हैं। भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन ने मुंबई में स्थित 19 दरगाहों का सर्वेक्षण किया, जिसमें यह सामने आया कि 12 दरगाहों में महिलाओं को बिना किसी रोकटोक के प्रवेश की इजाज़त है। आंदोलन का यह भी कहना है कि अजमेर की प्रसिद्ध ख्वाजा मुइनउद्दीन चिश्ती की दरगाह में महिलाओं पर कोई प्रतिबंध नहीं है। हाजी अली बोर्ड के तर्कों के जवाब में कई इस्लामिक विद्वानों ने कहा है कि कुरान या हदीस में कहीं ऐसा नहीं कहा गया है कि महिलाएं ऐसे स्थानों पर नहीं जा सकतीं जहां पवित्र संतों आदि को दफनाया गया है, बशर्ते वे ऐसा कोई काम न करें जो शरिया के खिलाफ हो। मदीना में जिस स्थान पर पैगम्बर मोहम्मद को दफनाया गया था वहां महिलाओं और पुरूषों दोनों को जाने की पूरी इजाज़त है। भूमाता रणरागिनी ब्रिगेड ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से यह अपील की है कि वे शिन्गनापुर मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के अधिकार को समर्थन दें।
सदियों पुरानी परंपराओं और धर्म जैसी शक्तिशाली संस्था के विरूद्ध आवाज़ उठाने के लिए यह आवश्यक है कि अधिक से अधिक वर्गों व संस्थाओं का समर्थन इस अभियान के लिए जुटाया जाए। इस संदर्भ में आरएसएस, जो हिंदू महिलाओं से अधिक बच्चे पैदा कर राष्ट्र निर्माण करने और दुर्गा वाहिनी जैसी संस्थाओं की सदस्यता लेने का आह्वान करता आ रहा है, एक महत्वपूर्ण संस्था है। आरएसएस का हमेशा से यह दावा रहा है कि वह हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करता है और हिंदू धर्म और उसकी पवित्रता की रक्षा के प्रति प्रतिबद्ध है। ऐसे में कोई कारण नहीं कि आरएसएस, महिलाओं को धार्मिक मामलों में समान दर्जा देने का पक्षधर न हो। परंतु भूमाता रणरागिनी ब्रिगेड के शनि मंदिर में प्रवेश के अधिकार के आंदोलन पर आरएसएस की प्रतिक्रिया धक्का पहुंचाने वाली है। आरएसएस का मुखपत्र ‘‘द आर्गनाईजर’’ लिखता है, ‘‘शनि शिन्गनापुर मंदिर के गर्भगृह में महिलाओं का प्रवेश, 400 वर्षों से प्रतिबंधित है। भूमाता ब्रिगेड की महिला कार्यकर्ताओं ने तृप्ति देसाई के नेतृत्व में जबरदस्ती मंदिर में घुसकर इस परंपरा को तोड़ने की कोशिश की। तार्किकतावादियों को यह स्पष्ट करना चाहिए कि क्या वे जबरदस्ती भगवान की आराधना करना चाहते हैं या उन्हें लोगों की भावनाओं का भी कुछ ख्याल है। मंदिर के ट्रस्टी, गांव के निवासियों और मंदिर में पूजा करने वाले श्रद्धालुओं – सभी की यह मान्यता है कि इस परंपरा के पीछे कोई न कोई कारण रहा होगा और इस परंपरा को निभाया जाना चाहिए। आस्था और परंपरा के मामलों में तार्किकता के लिए कोई जगह नहीं होती।’’ आरएसएस का इस मामले में रूख इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वह अपने हिंदुत्व एजेंडे को लागू करने के लिए महिलाओं का समर्थन और सहयोग हासिल करने का प्रयास करता आ रहा है। वह चाहता है कि महिलाएं सार्वजनिक रूप से घृणा फैलाने वाले भाषण दें और हिंदू धर्म के शत्रु ‘दूसरे धर्मों’ के खिलाफ लड़ें। महिलाओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे ‘हिंदू संस्कृति’ की रक्षा करें परंतु उस संस्कृति में उन्हें समान अधिकार नहीं दिया जाता। आरएसएस, महिलाओं का इस्तेमाल अपनी पितृसत्तात्मक विचारधारा और सांप्रदायिक सोच को बढ़ावा देने के लिए करना चाहता है परंतु वह महिलाओं को उस पितृसत्तात्मकता और दमन को चुनौती देने का अवसर नहीं देना चाहता, जिस पितृसत्तात्मकता और दमन की जड़ें धर्म में हैं और जिसके कारण महिलाओं को पुरूषों के समकक्ष दर्जा नहीं मिल पा रहा है। अगर इसे चुनौती नहीं दी गई तो महिलाएं सदैव पुरूषों के अधीन बनी रहेंगी और उनका दर्जा पुरूषों से नीचा रहेगा।
धर्म जैसी शक्तिशाली संस्थाएं और राष्ट्रवाद जैसी अवधारणाएं, हमेशा से महिलाओं का इस्तेमाल अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए करती आई हैं। नाज़ी जर्मनी का उदाहरण हमारे सामने है जहां सुजननिकी (यूजनिक्स) के क्रूर प्रयोग किए गए और महिलाओं को नाज़ी विचारधारा वाले जर्मन नागरिकों की एक नई पीढ़ी को जन्म देने के लिए मजबूर किया गया। यह मानव इतिहास का एक काला अध्याय था। ऐसा ही कुछ मुसोलिनी की इटली में भी हुआ। भारत में भी राष्ट्रीयता के कई आख्यान हैं, जिनमें से कुछ संस्कृति और धर्म पर बहुत ज़ोर देते हैं और महिलाओं को उच्च दर्जा देने का दावा करते हैं। परंतु उनका यह पाखंड तब उजागर हो जाता है जब महिलाएं अपने मूल अधिकारों की मांग करती हैं और सदियों पुरानी अनुचित व अन्यायपूर्ण प्रथाओं और परंपराओं का विरोध करती हैं। आधुनिक भारत की महिलाएं, देश की समान अधिकार प्राप्त नागरिक हैं और वे किसी भी अन्यायपूर्ण परंपरा के आगे झुकने के लिए तैयार नहीं हैं। पवित्र धार्मिक स्थलों में प्रवेश के लिए चल रहा संघर्ष इसी तथ्य को रेखांकित करता है। (मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)