नंदलाला के लिए होली और गोपियों के लिए गाली : होली के बहाने स्त्रियों की यौनिकता पर प्रहार

संजीव चंदन 
सोचता हूँ स्त्रियों के यौन अंगों के बारे में पहली बार स्पष्ट रूप से कब सुना था या पढ़ा था . बचपन में डाक्टर –डाक्टर खेलते हुए – नहीं . तो क्या पहली बार पीली किताबें ( मस्तराम सीरीज ) चुराकर पढ़ते हुए, नहीं- ऐसा करते हुए तो हम किशोर हो चुके थे. हालांकि गाँव के स्कूल में एक सीनियर लड़के ने मेरी एक कॉपी पर स्त्री यौन –अंग का नाम लिखा था , जिसे देखकर मेरे पिता से पिटाई लगी थी मुझे और उस लड़के को डांट, लेकिन तब भी यह कहाँ पता था कि यह स्त्री का यौन-अंग है और कुछ अलग भी.

गालियां और मर्दाना आक्रामकता
स्मृतियाँ इस पड़ताल के लिए जहाँ खीचकर ले जाती हैं, वह है होली. हाँ तब 7-8 सालों का रहा होंउंगा , जब घर में होली गाने वालों का झूंड दरवाजे पर आया और घर में आये मेहमान को गालियाँ सुनाई, गालियाँ गाई. अश्लील और आक्रामक गालियाँ . हालांकि उस साल तक तो ये गालियाँ अर्थ नहीं ले सकीं थीं,  सिर्फ उत्सुकता भर ही जगा पाईं, लेकिन बाद के वर्षों में ‘होलिका दहन’ में, होली गाने वाले लोगों के झूंड में , इन गालियों के अर्थ बनने लगे. तब तक आस –पास के लोगों के बीच या सहपाठी मित्रों के बीच कभी –कभी गालियों का वही उच्चार, उन्हीं शब्दों के साथ कानों में पड़ते- गालियाँ गंदी होती हैं का तमीज भी आने लगा था, हम अपने जिला –टाउन में पढने लगे थे. लेकिन होली –होली तो गाँव में ही मनती थी. और होली में गालियों का विशेष सन्दर्भ बन जाता था –अश्लीलता और बेहआई के साथ- मर्दाना आक्रामकता इन गालियों में एक आवश्यक तत्व होता था.

महिलाओं की प्रतिक्रिया
महिलाओं की इन गालियों पर क्या प्रतिक्रया होती थी, यह समझ पाना उतना आसान नहीं था, गालियाँ तो महिलायें भी गाती रही हैं – शादी –विवाह के अवसरों पर. लेकिन स्त्रियों के यौन अंगों और यौनिकता के प्रति आक्रामक शब्दावली और भंगिमा के साथ होली के गीत शादी विवाह की गालियों से अलग होते रहे हैं. स्त्रियों की गालियाँ द्विअर्थी ज्यादा होती थीं, होली के मर्दों के गीत सीधे अर्थों में अश्लील. उस समय महिलाओं की प्रतिक्रया समझने का कोई स्कोप नहीं था, गालियाँ मर्द गाते थे, दरवाजे पर – दालान में मर्दों की टीम झाल –ताशे के साथ बैठती और घर में महिलायें उनके नाश्ते –खाने की व्यवस्था में जुड़ी होतीं – कोशिश करतीं मर्दाने की  ये गालियाँ वे न सुनें तो अच्छा.

अभ्यस्तता
थोड़ा बड़े होने पर भाभियों, मामियों ( हमारे यहाँ मामी से भी मजाक का रिश्ता होता है )  में से कुछ, जो ज्यादा उन्मुख और बिंदास थीं, इन गालियों को सुनने पर मजाक करतीं, हंसतीं, छेड़ती, चुहलबाजी करतीं – इन कुछ भाभियों की प्रतिक्रियाएं एक हकीकत हैं- इस हकीकत को अनुकूलन कह सकते हैं-अपने लिए ही मार्दाना आक्रामकता के प्रति अभ्यस्तता.

होली की इन गालियों के साथ दो चीजें हमने और नोटिस की,  जब जाति-संरचना की समझ बढी. गाँव में होली गाने वाले झुण्ड के साथ जाते हुए जब गैरद्विज घरों के पास पहुँचते, खासकर उन घरों के पास, जिनकी माली हालत ठीक नहीं होती, वहाँ गालियों की अश्लीलता और स्वरों की आक्रामकता एक साथ बढ़ जातीं. हुडदंग और हुल्लड़बाजी का भाव और तेज होता. मर्दों के इस आनंदोत्सव का एक स्थायी भाव था, भांग, गांजा और शराब का नशा. साथ ही होलिका दहन के बाद ‘कबीरा’ गाया जाता था  , जिसमें कबीर के दोहों के तर्ज पर गालियाँ गाई जाती थी .

काफी दिनों से होली में गाँव नहीं गया. गाँव से ज्यादा नानी के गाँव में होली की स्मृतियाँ हैं. आख़िरी दृश्य जो याद आता है वह नानी के गाँव का ही है- किशोर के रूप में . नानी के गाँव में कस्बाई बाजार है. वहां होली के गीत गाते समूहों का जुलूस निकला करता रहा है- जिसे झुमटा कहते हैं. लोकगायिकी के अलग –अलग रंग भी तब देखने को मिलते. आख़िरी दृश्य है- ट्रैक्टर ड्राइव करते शराब के नशे से झूमते ईंट भट्ठे के ठेकेदार के ‘रंग’ का . ट्रैक्टर के डल्ले में और उसके अगल –बगल के बोनट पर बैठी, नशे में झूमतीं मजदूरनों- का, जोर –जोर से होली के द्विअर्थी गीत गाते हुए- यह भी स्त्री की जाति और जेंडर पोजीशन के प्रति अभ्यस्तता का एक नमूना था.

बदल गये संदर्भ
आखिर क्या वजह रही है कि होली के साथ ये अश्लीलतायें, मर्दाना आक्रामकता अनिवार्य रूप से चस्पा हो गईं. होली वसंत ऋतु में आने वाला पर्व है , जब ग्रामीण किसान समाज रबी फसलों के आरंभिक काम से मुक्त होता है, खेतों में चना और गेहूं की फसलें अपने शावाब पर होती हैं. वसंत और कामनाओं का रिश्ता हमसबको पता है . होली में आग में चना और गेहूं की वालियां भूनकर खाये जाते हैं.  कीचड – रंग –गुलाल से ग्रामीण समाज अपना उल्लास व्यक्त करता रहा है. होली के क्राफ्ट से ही पता चलता है कि स्त्री –पुरुष इसे आनंदोत्सव के रूप में मनाते हैं –प्यार और यौन –उल्लास इसके स्वरूप में है. लेकिन धीरे –धीरे इस पर्व के साथ ब्राह्मणवादी मिथक ( होलिका और प्रहलाद की कथा के साथ ) और स्त्रीविरोधी मर्दाना आक्रामकता का आवरण चढ़ता गया. ऐसा लगता है कि  उल्लास –आनंद और यौनिकता के उत्सव का यह पर्व पिछले कुछ सदियों में अश्लील होता चला गया होगा- जाति और पितृसत्ता के सम्मिश्र के साथ.

बाजार ने किया बदरंग 
रही –सही कसर बाजार ने निकाल दिया है. कच्चे –पक्के नगरीकरण के साथ बाजार ने इन परम्पराओं का खूब दोहन किया है . बिहार –उत्तरप्रदेश के पटना ––आरा-बलिया जैसे शहरों में बसों , सार्वजनिक वाहनों में अश्लील भोजपुरी होली गीत आम बात है, होली में लेकिन अश्लीलता का एक सार्वजनिक बहना सा बन जाता है.  शराब और अश्लील शब्दावली, इशारों से भरे ये गीत और मर्दना अहम शहरों को महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं रहने देते-होली के दूसरे-तीसरे दिन बलात्कार की खबरें अखबारों में खूब आती हैं. होली के बाद की ऐसी पहली खबर, जो ज़ेहन में है , वह है गया में महिला कॉलेज के पास घटी बलात्कार की खबर, जो होली के दिन ही अंजाम दी गई थी.   ये घटनायें मर्दाना और प्रायः अनेक मामलों में जातिवादी आक्रामकता  का क्रियात्मक रूप हैं  और होली की गालियाँ भावात्मक रूप.

लेखक स्त्रीकाल के संपादक हैं 

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ISSN 2394-093X
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