तुम मेरा
मात्र भोगा हुआ
यथार्थ हो
और
मैं तुम्हारी मात्र
संजोयी कल्पना।
तुम मेरे लिए
मात्र अभिशाप हो
और
मैं, तुम्हारे लिए
मात्र खूबसूरत
वरदान।
2 21 वीं सदी
हाँ उतार दी मैंने वे चूड़ियाँ जो मुझे कमज़ोर बनाती थीं
हाँ उतार दी मैंने वो पायल जो मेरे कदमों को रोकती थी
हाँ उतार दिए मैंने गले के वे हार जो मेरी आवाज़ दबाते थे
कर दिया अलग उन रिश्तों को जो मेरे शोषण के लिए जीते थे
फेंक दिए वे विशेषण जिनसे लाद दिया गया मुझे
छोड़ दिया उस साथ को जिसने कुचला मुझे कमज़ोर मानकर
तोड़ दिए वो बंधन जिनको धोखा खाकर भी मैं पूजती थी
आज मैं आजाद हूँ
क्योंकि नहीं है अब मेरी पहचान
दूसरों की गढ़ी हुई
आज मैं अबला नारी नहीं
मुझे पहचानों मैं गहनों से नहीं आत्मबल से शृंगार रचती हूँ
मैं 21वींसदी की नई उभरती हुई स्त्री हूँ
एक सशक्त स्त्री
3. ये कैसा जमाना?
तपती गर्मी के दिनों में,
ए. सी. में बैठे लोग,
ग्रीष्मकालीन छुट्टियों में
सैर सपाटा करते लोग
कहते दिखते, बड़ा बुरा हाल है
बड़ी गर्मी है…….।
उसी तपती गर्मी में
चूड़ियों के कारखानों में
काम करते छोटे बच्चे
हमारी कलाईयाँ सजाने को
दो रोटी वक्त पर पाने को
दिन रात करते हैं
जलती भट्टियों पर काम
गर्म काँच पर उकेरते डिजाईन
और मालिक कहते दिखते
बुरा हाल है
बड़ा सीजन है……।
सर्दी की ठंडी रातों में
जयपुरी रजाईयों में दुबके लोग
ठंडी रातों में टहलने निकले
आइसक्रीम खाते लोग
कहते दिखते, बुरा हाल है
बड़ी सर्दी है……।
उसी कड़कड़ाती ठंड में
बड़ी-बड़ी लॉन्ड्रियों में
स्वेटर, कम्बल, चादर, कपड़े
ठंडे पानी में धोते बच्चे
जिंदगी गुजारते
और मालिक कहते दिखते
बुरा हाल है
बड़ा सीजन है……।
कैसा..
ये कैसा जमाना?
एक के लिए तकलीफ
एक के लिए सीजन का आना
कैसा….
ये कैसा जमाना?
4.तो क्या हुआ?
अगर
बासी माँस खाने से ही दलित होते हैं?
तो हाँ तुम भी दलित हो,
क्योंकि
तुम्हारे घर में इसे अक्सर
बड़े शौक से पकाया जाता है।
तो क्या हुआ जो तुम्हारी जाति में यह निषिद्ध है?
अगर
झाड़-फूँक करना और कराना
ही दलित बनाता है?
तो हाँ तुम भी दलित हो,
क्योंकि
तुम रोज़ लोगों को
इन्हीं झाड़-फूँकों का
उपाय बताते आये हो।
तो क्या हुआ जो तुम्हारा रुतबा बड़ा है?
अगर
दूसरों का मल-मूत्र उठाना और साफ करना
दलितों को घृणित बनाता है?
तो हाँ तुम भी दलित हो,
क्योंकि तुम्हारी पत्नी और तुम भी
अपने बच्चों का मल-मूत्र उठाते, साफ करते हो।
तो क्या हुआ जो तुम जनेऊ धारी हो?
अगर
जूठन माँग या छीन कर खाना ही
दलितों को तिरस्कृत करता है?
तो हाँ तुम भी दलित हो,
क्योंकि
घर-घर जाकर भगवान की जूठन
समझ अन्न पाने को कई गलियाँ तुमने भी नापी हैं।
तो क्या हुआ जो तुम जूठन सम्मान से पाते हो?
5. सफ़ेदी
कमरे की दीवारों पर
सफ़ेद चमचमाती
सफ़ेदी-सी एक स्त्री।
अपने नर्म, खुरदरे
हाथों की छुअन का
अहसास कराते लोग।
चमक
धुंधली पड़ जाने पर
फिर से
करवा देते है सफ़ेदी।
उसी अस्तित्व की
धूल को
रेगमाली व्यवहार से
उड़ा देते हैं
उसी कमरे में।
जहाँ वह अपने
अस्तित्व को
दर्ज कराते हुए
चमकाती थी
उसकी दीवारें।
युवा कवयित्री पूजा प्रजापतिजामिया मीलिया इस्लामिया में हिन्दी साहित्य की शोध -छात्रा हैं . सम्पर्क : pooja.prajapati85@gmail.com