होली मनाया जा रहा है . जनसाधारण में माना जाता है कि इस दिन बुराई पर जीत हुई थी और इसी जीत को
जश्न में मनाने के लिये रंगों के साथ होली खेली जाती है। होली को मस्ती का त्यौहार भी कहा जाता है। होली को खेती के साथ भी जोड़ कर देखा जाता है। पहली फसल पक कर तैयार होने पर किसान खुश हो उठता है।
हमारा समाज अस्तितवादी व धार्मिक विचारों का समाज है। प्रगतिशील समाज, जो समाज में व्याप्त परम्पराओं से थोड़ा हटकर चलता है वो भी इन संस्कारों से जाने-अनजाने बच नहीं पाता इन बातों को सिद्ध करने के लिये उदाहरणों की कमी नहीं है। यहां हम हिन्दू-स्त्राी यानी बहुसंख्यक समाज की स्त्री को केंद्र में रख कर उस पर विमर्श करना चाहेंगे। भारत में कई बड़े समाज सुधार आंदोलन हुए हैं। यानि हम कहेंगे हमारे देश में बहुत सी ऐसी परम्परायें, रीति-रिवाज, छवि सोच मान्यताएं रही हैं। हर दिन दैनिक जीवन में जिनको असली जामा पहनाया जाता है,. उन मान्यताओं और रीति-रिवाज को ही व्यक्त्वि विकास के चश्मे से देखते हुए तर्क से
खारिज करने , उसे मिटाने हेतु प्रगतिशीलता की भूमिका हो जाती है. महत्वपूर्ण पारम्परिक सोच को जिन्दा रखने के लिये ‘त्यौहार’ एक मीठे जहर हैं जिसे हम सहर्ष अपनी मर्जी और खुशी-खुशी पीते रहते हैं। ‘होली’ को ही लें…
होली दो दिन मनायी जाती है। पहले दिन दोपहर बाद में महिलायें सजधज कर ग्रूप में होलिका की पूजा करने
जाती हैं। साथ में अपने छोटे-बड़े बच्चों को साथ लेकर जाती हैं। उन्हें भी होलिका के सामने झुककर प्रणाम करने को कहती हैं। बच्चों के गले में खिलौने, या मेवों, बिस्कुटों, टाफियों को पिरोकर बनायी गयी मालाओं को पहनाती हैं। लौटते समय भी होलिका को फिर से प्रणाम करके गीत गाती हुई आती हैं। दूसरा चरण शाम या
रात्रि का होता है जहां पुरोहित द्वारा निकाले गये समय पर , यानि शुभ मुहूर्त पर, होलिका को जलाने की तैयारी होती है। ढेरों उपलों, लकड़ी के ढेर से बनायी गयी, बैठायी गयी होलिका को फिर से पुरोहित द्वारा पूजा करके उसे जलाया जाता है और जलती हुई होलिका या लपटों में घिरी होलिका दहन के वक्त जोर-जोर से ढोल बजाये
जाते हैं। मस्ती में शोर मचाया जाता है। क्यों जलाया जाता है होलिका को? क्या कहानी है !
इस त्यौहार की परते उघड़ते-उघड़ते मन विचलित हो उठता है। माना जाता है होलिका हिरणाकश्यप की बहन थी, हिरणाकश्यप और होलिका दोनों ही असुर व नास्तिक थे। हिरणाकश्यप का बेटा ‘प्रहलाद’ भगवान को मानता था, अतः उसकी बुआ ने अपने भाई से कहा कि मैं दुशाला ओढ कर आग पर बैठूंगी, जो आग से बचाता है, जिससे मैं बच जाउंगी और प्रहलाद जल जायेगा। हिरणाकश्यप ने उसे इसकी इजाजत दे दी। होलिका ने जब आग पर बैठी खुद को शाल में छुपा कर तब जोर से आंधी आयी और आंधी में होलिका का दुशाला उड़ कर प्रहलाद पर गिर गया , जिससे होलिका जल गई। अतः नास्तिक की हार हुई और आस्तिक की जीत हुई।
तब से ही ये त्योहार को इसी रूप में मनाया जाता है। तब ये सवाल उठता है किहिरणाकश्यप, होलिका नास्तिक थे, तो प्रहलाद कैस आस्तिक हुआ? क्या कोई राजा अपने पुत्र को ऐसे जलने देगा? क्या कोई ऐसा दुशाला होगा, जो किसी को धधकती आग से बचा सके? आदि….आदि।
यह भी रहस्य है कि होलिका अपनी मर्जी से धधकती आग में बैठी? या उसे जबरन बैठाया गया? प्रहलाद को, होलिका जला रही थी या बचा रही थी? ये इतिहास आर्यों और अनार्यों के संघर्ष के इतिहास अध्ययनों में स्पष्ट हो सकेगा। लेकिन यह तो सत्य है कि बीती बातों को, घटनाओं को हम हर वर्ष दुहराते हैं। जिससे हमें तात्कालीन समाज परख तो मिलती है, उससे स्त्री की स्थिति का भी मान होता है। परन्तु आज जब हमारे पास एक संविधान है, लोकतांत्रिक व्यवस्था है? प्रगतिशील सोच है और अनेक समाज सुधारक आंदोलनों
का अनुभव के साथ यूरोपीय विचाराधारा में दक्ष महिला आंदोलन मानवाधिकार के पैरोकार नेता कार्यकत्र्ता भी, तो क्या हम ‘होलिका’ दहन जैसे कृत्य पर कोई टिप्पणी या अन्य पहलकदमी कर पाये? ‘होलिका दहन’ सांकेतिक रूप से महिला हिंसा को धड़ल्ले से मान्यता नहीं देती? क्या कोमल मन से देखने वाले छोटी उम्र के बच्चों को वो हिंसा को सहजता से देखने की आदि नहीं मनाती? क्या यह पर्व महिलाओं को दबाने का कृत्य नहीं है? अगर हम ये भी मान लें कि होलिका नास्तिक थी तो हमारे आज जितने लोग नास्तिक हैं , उनका हश्र होलिका के रूप में होगा? ये ऐसे सवाल हैं जिनको इस बहुसंख्यक समाज में उठाये जाने और बहस चलाये जाने की जरूरत को महसूस होती है। ज्ञातव्य है कि हमारे समाज में महिलाओं को दोयम दर्जे की माना जाता है.
चाहे जो भी समाज हो, जैसी भी उनकी आर्थिक स्थिति हो...उनके निर्णय लेने की समता को बाधित किया जाता है उन्हें तर्क और ज्ञान से दूर रखकर स्वावलम्बी बनने से रोका जाता है। यह सर्व विदित है कि उनके शरीर का पोर-पोर इस्तेमाल होता है, उनके मन और भावनाओं पर काबू रखना सिखाया जाता है। तब उसके धड़ पर रखा मस्तिष्क भी वही काम करेगा, वही बात सोचेगा, वैसा ही व्यवहार करेगा जैसी उनमें कन्डीशनिंग की गयी है,मसलन सामजस्यता, त्यागमयी, अनुगामी होना आदि। इसलिये जब वो होलिका पूजने जाती हैं, तो वह नहीं सोच पाती कि होलिका को क्यों जलाया जा रहा है? वह क्यों पूज रही हैं होलिका को? क्या होलिका विद्रोही औरत थी तो क्या वह हम अपनी पुरखन को विनम्र श्रद्धांजली देने तो नहीं जा रही? होलिका की कहानी जो दोहरायी जाती है वह हमारी नाक में नकेल का काम करती है क्या? स्त्री की पराधीनता के इतिहास में यौद्धा से दासी बनने के सभी सूत्र आज चमकदार बनके स्टेटस में तब्दील हो चुके हैं और उनकी पहनी चीजें पुरूषों
के लिेऐ गाली पर्याय हैं । मसलन चूड़ियां पहनन, पेटिकोट पहनना व्यंग्य रूप से पुरूषों को हीन हो जाना दिखाता है। जबकि किसी स्त्री के शौर्यपूर्ण कार्य को मर्दानगी से व्यक्त किया जाता है। मर्द गुण और जन्म ही सर्वोपरि हुए न?
होली पूजने, जलाने की प्रक्रिया के बाद अगले दिन रंगों से खेलने का दिन आता है जहां पकवान, शरबत, भांग, ठन्डाई, मिठाई के साथ-साथ रंगों से खेलने का मजा लिया जाता है। असल जिंदगी में हम जिनसे अन्जान लोगों से हाथ नहीं मिलाते उन्हें हम होली के नाम पर पानी से भिगोकर दोनों हाथों से सर चेहरे से लेकर जहां
इच्छा हो रगड़ दे सकते हैं…हंसते हुए कह देंगे बुरा न मानो होली है (साॅरी)। साॅरी कहने का सार्वजनिक उपक्रम है होली, यह त्योहार स्त्री -पुरूष दोनों को एक-दूसरे को रंग लगाने के बहाने छूने का अवसर देता है जबकि हमारा समाज स्त्री -पुरूष के बीच नैतिकता की दीवार खड़ी कर देता है, जहां बाकी दिनों में परस्पर किसी
के भी मिलने-जुलने को सैक्स के साथ जोड़ कर देखने का आदि हो चुका है। किसी भी उम्र, किसी भी रिश्ते के लोगों को वह अपनी इस कृपा दृष्टि से देखे बिना नहीं रहता।
होली को बसंतोत्सव व कामोत्सव भी कहते हैं। बसंत जो प्रेम का प्रतीक है , वहां कामवासना उसका दूसरा कदम है। हमारे रिश्ते में देवर, भाभी, जीजा-साली, मामी-भानजा, पति-पत्नी व भाई-दोस्त, पत्नी की बहनें और सहेलियां इस खेल के यानि कि बिन्दास खिलाड़ी होते हैं। रंगों के साथ-साथ मजाकों के फव्वारे अपनी सीमाएं लांघ अश्लीलता में बदल जाये तो ‘क्योंकि बुरा न मानो होली है ‘ का कुटिल मुस्कान सामने होता है.
दोस्तों और सहेलियों, पास-पड़ोस के पड़ोसियों द्वारा आपस में होली खेली जाती है. यहां भी छुपे आकर्षण बाहर निकल कर आते हैं। कभी-कभी होली में इन वजहों से झगड़े हो जाते हैं। तब रंगों की होली खून की होली हो जाती है। और पुलिस थाने की नौबत तब आ जाती है। होली खेलते होली वाले दिन लोग खासतौर से रंगीन मिजाज लोग टोलियों में खेलने जाते हैं। उस दौरान रास्ते में उन्हें अगर लड़कियों या औरतों की टोली दीख जाए तो मर्दों की टोली अश्लीलता फब्तियां तो कसते ही हैं। वैसी हरकत करने लगते हैं। हमारे सीने जगत में होली के वीभत्स रूप दिखाये गये हैं ‘दामिनी’ फिल्म में होली के साथ घरेलू कामगार लड़की के साथ रेप, होली संस्कृति को जाहिर करती है . होली पर स्त्री -प्रेम का मशहूर गाना ‘रंग बरसे -भीगे चुनरवाली …रंग बरसे…खाये गोरी का यार बलम तरसे।
भारत में स्त्री मुक्ति आंदोलन 1980 से माना जाता है। इस आंदोलन का मुख्य आधार लिंग भेद से उपजी सभी तरह के शोषण को घर की देहरी से बाहर निकाल कर उसे समाज के समक्ष रखकर उसकी समाप्ति का आंदोलन है। इस लिंगभेद आधारित भेदभाव, असमानता, शोषण, अपमान और गैरबराबरी की स्वीकृति पर हल्ला बोलना है। इस ओर महिला आंदोलनों ने बहुत काम किया। उन कामों सुचारू रूप से जारी रखने के लिये उसे संस्थागत भी किया। यहां तक कि मीडिया में पहुंचाने में काफी काम हुआ और मीडिया महिलाओं के प्रति कुछ हद तक संवेदनशील हुई है। भारत में स्त्री मुक्ति आंदोलन 8वें दशक से माना जाता है। हालांकि स्त्री मुक्ति
की पहल 19वीं शताब्दी में ज्योतिबा राव, सावित्रीबाई फुले, ताराबाई शिंदे, पंडिता रमा बाई, रूक्माबाई, मुक्ताबाई की विद्रोही कलम द्वारा घोषित हो चुकी थी। उनकी कलम से स्त्री-पुरूष असमानता, धर्मशास्त्रों की तानाशाही और उसका असर स्त्री को किस तरह दबाव बना कर उन्हें घरेलू गुलामी की ओर धकेलता है, से जाहिर हो था। बींसवीं सदी के आठवे दशक में शोध और अध्ययन के लिये महिला-शिक्षा, रोजगार, महिलाओ ं के अधिकार, तलाक, दहेज, विवाह पूर्व यौन-सम्बन्ध, महिला-मजदूरी, ग्रामीण आदिवासी मुस्लिम-महिलाओं की सामाजिक आर्थिक स्थितियों को रेखांकित किया परन्तु दैनिक जीवन में हावी हमारे तीज-त्योहार, पूजा-अर्चना किस तरह स्त्री के अस्तित्व को नियंत्रित करती है इस पर कभी कोई चर्चा या शोध नहीं हुए।
साम्प्रदायिकता के विरूद्ध अपना नजरिया बनाने की आशातीत कोशिश की गई। लेकिन छुआछूतवादी नजरिये से उपजे भेदभावों को समझने के लिये समझने बनाने के प्रयास नहीं हुए। प्रगतिशील होने के नजरिया होने के बावजूद होली की मस्ती, दीपावली के पटाखे, दशहरे में रावण का मानमर्दन के पीछे सांस्कृतिक द्वंद्वों
पर कभी कोई पहल व चर्चा नहीं की गयी। दुनिया से दूर फिर भी दुनिया के दाद अविराम चलते रहे। स्त्रीवादी चश्मे से होली पर्व का विश्लेषण करे तो हम पायेंगे हमने ही स्वयं मान लिया है कि होलिका पतित थी, नास्तिक थी स्वाभिमानी थी, तार्किक थी इसलिये बुरी थी। आज की स्त्री महिलाओं को होलिका के नजरिये से देखें तो वे भी आस्तिक नहीं हैं, पारम्परिक नहीं हैं, बहुसंख्यक मर्दों व समाज की नजर में पतित व बुरी औरते हैं…तब क्या?
होली अपने आप में स्त्री- विरोधी व दलित विरोधी त्यौहार है। होली पर सवर्णों द्वारा दुश्मनी और घृणा और मालिकाना अधिकार में उनकी स्त्रियों के साथ अश्लील हरकतें करना, जबरन रोकने पर उनके साथ मार पिटाई करना उनका र्शौय साबित करना है। होलिका दहन की कठोरता से निंदा होनी चाहिये और उसके जला देने के बाद. जश्न में शामिल होकर या नाचना गाना…रंग खेलना, मस्ती करने पाबन्दी होनी चाहिए, क्योंकि दहेज के नाम पर औरत को जलाना, सती के नाम पर उसे चिता में फूंकना या होली में होलिका को सांकेतिक रूप से फूंकना स्त्री अस्तित्व और अस्मिता की सीरे से खारिज करती है। समाज की इस क्रूरता पर बहस होनी चाहिए।
स्त्री -विमर्श का हिस्सा बनना चाहिए।
रजनीतिलक स्त्रीवादी विचारक और लेखिका हैं . जाति और जेंडर के सवालों पर सक्रिय रहती हैं . सम्पर्क : rdmaindia@gmail.com