दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में शोधरत सिनेमा में गहरी रुचि. समकालीन जनमत में फ़िल्मों की समीक्षाएँ प्रकाशित. संपर्क : dkmr1989@gmail.com
कंगना को संबोधित ‘ दिवस ‘ का पत्र
कंगना मैं बरखा के साथ तुम्हारा इंटरव्यू देख रहा हूँ और मुझे फिल्म ‘मलेना’ याद आ रही है. लेकिन उसके पहले..
कंगना आज तुम ‘गैंगस्टर’ से बहुत आगे निकल आई हो लेकिन मेरे अंतर के कोनों में टेढ़े बांस की तरह तुम्हारी जो छवि अटकी है वह पानी से भरे फर्श को साफ़ करती लड़की की ही है. वो बरसाती सुबहें होती थीं जब हम खिड़की से बारिश को देखते हुए तुम्हारी फिल्म ‘गैंगस्टर’ का गाना ‘तू ही मेरी शब है ..सुबह है..तू ही दिन है मेरा’ किसी एफएम पर सुना करते थे. ‘या आली..’ की ‘बिना तेरे न इक पल हो..न बिन तेरे कभी कल हो..ये दिल बन जाये पत्थर का..न इसमें कोई हलचल हो..’ पंक्तियाँ तो लबों पर होती थीं..जिन्हें हम दोस्त खास पलों में सामूहिक स्वरों में गाया करते थे. कैसे भूल सकता हूँ ‘गैंगस्टर’ के ठीक बाद आई तुम्हारी फिल्म ‘वो लम्हें’ के ‘तू जो नहीं है..तो कुछ भी नहीं है..’ गाने को. ये वो दौर था. जब हमारी पीढ़ी टीनएज और जवानी की बिलकुल दहलीज पर खड़ी थी..स्कूलों से निकलकर कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में दस्तक दी ही थी और इन गानों में अपने संसार का तसव्वुर लिए एक खास तरह के रुमान से भरी थी. कुछ नजर विकसित होने के बाद हालाँकि ये सब बहुत हल्का लगने लगा था..और इस अपरिपक्व रुमान को सरकाकर धीरे-धीरे उन उस्तादों, मौसिकी, ग़ज़ल, शेर-ओ-शायरी, कविता, सिनेमा ने जगह ले ली थी जिनसे जिन्दगी को नया अर्थ मिल रहा था. लेकिन इससे इंकार नहीं करूँगा कि इस पहली फिल्म में तुम्हारे अभिनय की जो सघनता थी वह मेरे साथ हमेशा बनी रहने वाली थी.
आज सुबह ही मेरी तुम्हारे इंटरव्यू के साथ हुई, फिर यूँ ही तुम्हारी फिल्म गैंगस्टर देखने लगा और ‘ओह माय गॉड’ ये क्या..मैं इस फिल्म में तुम्हारे वर्तमान जीवन में घट रही घटनाओं का अक्स क्यों देख रहा हूँ..मुझे क्या हो गया है..क्या मैं पागल हूँ..भला तुम्हारी हकीक़त की जिंदगी से एक फिल्मीं जिंदगी का क्या वास्ता..लेकिन फिल्म में तुम्हारे चरित्र की वायस-ओवर जैसे फिल्म के अन्दर खुद की जिंदगी को डिसक्राइब कर रहा है वह आज विभिन्न मीडिया माध्यमों में तुम्हारे सपनों, आकांक्षाओं और संघर्षों की कही जा रही कहानी जैसा लग रहा है. तुम बार-बार अपने इंटरव्यू में ‘मेल शोविनिज्म’, पैट्रियार्की, समाज में महिलाओं के दर्जे, हाई सोसायटियों के वैचारिक खोखलेपन पर बात कर रही हो..आज मंडी के एक गाँव से निकलकर वाया दिल्ली, मुंबई पहुंचकर सिने संसार में अपने मुहावरे खुद गढ़ने वाली कंगना से यदि पूछा जाये कि वह कौन है? तो किस तरह का जवाब सुनने लायक यह दुनिया अब तक हम बना पाए हैं. ‘गैंगस्टर’ में तुम्हारा चरित्र एक जगह कहता है, “पुलिस की गोलियों से बचती-भागती एक मुजरिम के सिवा मैं क्या हो सकती हूँ.” इसे बदलकर मैं यूँ कह दूँ कि बॉलीवुड की ‘क्वीन ’, सबसे ज्यादा पैसे पाने वाली हीरोइन टाई-सूट पहने गंदे दिमागों वाले तथाकथित आधुनिकों की इर्ष्या, घमंड, झूठे श्रेष्ठताबोध से बजबजाते मर्दवादियों के उछाले जा रहे अपमान के कीचड से बचती-भागती एक औरत के सिवा हो ही क्या सकती हो..नहीं-नहीं शायद मैं गलत हूँ, बचती-भागती नहीं बल्कि उनकी ही जमीन पर खड़ी होकर उनके नकाबों को नोच रही हो.
कंगना याद है तुम्हारी फिल्म ‘गैंगस्टर’ में गुलशन ग्रोवर का चरित्र अपनी गलीज भाषा में औरतों के लिए किस तरह की बातें करता है. और तुम्हारा चरित्र अपमान, घृणा के घूँट पीते हुए सी असहाय खड़ी है. कितनी अजीब होती है पुरुषों की दुनिया, अपने इर्द-गिर्द एक जाल लेकर चलता है हमेशा. एक औरत बिना जाल देखे प्यार किये जाने की अभिलाषा लिए आती है, लेकिन एक पुरुष जैसा कि हिंदी के कवि ने लिखा है, ‘तुम जो/ पत्नियों को अलग रखते हो/ वेश्यायों से/ और प्रेमिकाओं को अलग रखते हो/ पत्नियों से/ कितना आतंकित होते हो/ कितना आतंकित होते हो/ जब स्त्री बेख़ौफ़ भटकती है/ ढूंढती हुई अपना व्यक्तित्व/ एक ही साथ वेश्याओं और पत्नियों और प्रेमिकाओं में/’. और देखो कितने शातिराना ढंग से उस तरफ से चुप्पी साध ली गई है. क्योंकि फिर उसी कवि की भाषा में ‘तुम तो पढ़कर सुनाओगे नहीं/ कभी वह ख़त/ जिसे भागने से पहले/ वह अपनी मेज पर रख गई/ तुम तो छुपाओगे पूरे ज़माने से उसका संवाद/’ और जब तुम नहीं छुपा रही हो, खुलकर अपने संबंधों, अपने से जुड़ी व्यक्तिगत मुआमलों को स्वीकार कर रही हो तो फिर सामने वाले को कौन सा डर है जिससे वह तुम्हारे हर दावे को झुठलाने पर तुला हुआ है. क्या यही ‘कुलीनता की हिंसा’ होती है जो खुद का पर्दाफाश होने पर सबकुछ मिटा देना चाहता है, झुठला देना चाहता है, दफ़न कर देना चाहता है.
याद करो ‘गैंगस्टर’ के ही अपने चरित्र को जो तीन तरह के पुरुषों से घिरी है. एक जिसे कोई हक नहीं था अपने साथ ‘सिमरन’ को अपराध के दलदल में फंसा देने का. अपनी जाती हालात से परिचित होने के बावजूद वह तुम्हें पा ही क्यों लेना चाहता था. ‘सिमरन’ तो ‘खुशियों की मंजिल’ ढूंढ रही थी. लेकिन बदले में उसे ‘गम की गर्द’ ही मिल रही थी. दूसरा, जिसके औरतों के बारे में ख्यालात ही किसी भी संवेदनशील मन में गहरी वितृष्णा पैदा करने वाले गर्हित किस्म के थे. तीसरा पुरुष, पुरुष सत्ता की उस चालाक प्रवृत्ति का मिसाल है जो किसी स्त्री के सपनों और भावनाओं की कमजोरियों का लाभ उठाकर उसका इस्तेमाल कर लेना चाहता है. और देखो न तुम अपने ही कभी खास रहे पुरुषों की कुरूपताओं को जिनके लिए आज तुम ‘साइकोपाथ’, तंत्र-मन्त्र, जादू-टोटका करने वाली, वेश्या, सफलता के लिए अपने शरीर का इस्तेमाल करने वाली और न जाने क्या-क्या कहा जा रहा है. मुझे नहीं पता तुम्हारी साहसिक स्वीकारोक्तियों, बेबाक-बेलौस बोलों से देश के सुदूर इलाकों में जिन स्त्रियों को ऐसे ही आरोपों को लगाकर सामूहिक रूप से जलील किया जाता है..उनके साथ जघन्यतम हिंसा की जाती है, जैसी घटनाओं पर क्या प्रभाव पड़ेगा. लेकिन इतना जरुर हुआ है कि अतिरिक्त आधुनिक मानी जाने वाली दुनिया की लैंगिक दुराग्रहों, वैचारिक पिछड़ेपन और पितृसत्ता के क्रूर चेहरे को पूरी तरह से उघाड़ दिया है.
तीसरा राष्ट्रीय पुरस्कार मुबारक!