आज से 19 साल पहले चन्द्रशेखर मारा गया था. 19 साल बाद सीवान फिर गहरे सदमें,दुख और गुस्से में है. पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या ने पुराने जख्मों को ताजा कर दिया. मेरी आंखों में वे दिन रिसने लगे हैं. दिल बैठ गया है. जैसे भीतर की घड़ी चलना बंद हो गयी हो. सिर्फ लहू का शोर धमनियों में सुनाई देता रहा. 19 साल पहले हम उसे इसी तरह सुलगती हुई लकडियों के बीच सुला आये थे. सबकी आंखें नम थी और भीतर गहरा गुस्सा. धूप पुरानी बुझी हुई चिताओं की काली कतार पर चली आयी थी. हमसब सूनी आंखों से उठती हुई लपटों को देख रहे थे. चन्द्रशेखर के लिए सैलाब उमड़ा था. देश भर से लोग आए थे उसकी मिट्टी में शामिल होने. हर आदमी की आंखें सुलग रही थी. आज फिर इतिहास खुद को दोहरा रहा है. राजदेव रंजन मारे गए. वे हत्यारे अभी भी हिंसक मदमाती ज्वार में लपलपाती हुई जीभ निकाले हमारे बीच धूम रहे हैं. हमसब न्याय की मांग कर रहे है. इतने सालों में चन्द्रशेखर के हत्यारे पकड़े नहीं गए. उसे न्याय नहीं मिला. उस समय भी पूरे मामले की जांच सीबीआई को सौप दिया गया था. सीबीआई किसी नतीजे पर नहीं पंहुची.
आज भी राजदेव की हत्या की जांच सीबीआई को सौप दिया गया है. इतने दिनों में अभी तक ये पता नहीं चला कि इस हत्या के पीछे किसका हाथ था ? राजदेव की हत्या की खबर भी अखबारों के पन्ने से गायब हो रही है. खुद उसके अखबार में भी खबर जिस तरह से छप रही है उससे लगता है कि एक पत्रकार की मौत किसी के लिए मायने नहीं रखती. सच तो यह है कि हम उस सत्ता से न्याय की उम्मीद कर रहे हैं जो अपराधियों को संरक्षण देती है. ये कैसी राजनीति है जो एक तरफ आश्वस्त करती है कि हत्यारे पकड़े जायेंगे और दूसरी तरफ अपराधियों को पार्टी के भीतर जगह देती है. क्या एक बार फिर ये सवाल जरुरी नहीं है कि राजनीति में जबतक अपराधियों को तरजीह मिलेगी न्याय की बात बेमानी है.दुनिया के पत्रकार खतरे झेलते रहते हैं. अपनी खबरों के लिए खतरा मोल लेते हैं. अगर पत्रकार खबर नहीं ला पाएं,लेखक लिख नहीं पाए,कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन ना कर पाएं तो फिर इस लोकतंत्र का क्या मतलब? इनकी सुरक्षा देश की लोकतंत्र की सुरक्षा है. पिछले 30 सालों से मैं पत्रकारिता में हूं. पर इतने बुरे दिन कभी नहीं आए जब पत्रकार इसलिए मार दिया जाय कि वह खबरों को लोगों तक ला रहा है. एक निर्भीक और गंभीर पत्रकारिता की ये कीमत किसी भी देश के जनतंत्र के लिए अच्छा नहीं है. हमसब एक एक ऐसे समय में जी रहे हैं जहां लिखने-पढ़ने वालों पर सबसे ज्यादा हमले हो रहे है. पत्रकारों की हत्या के मामले में हमारा देश दसवीं सूची में शामिल है.
आंकड़े बताते हैं कि 1992 से अबतक हमारे देश के 1,189 पत्रकारों की हत्या हो चुकी है. फिर हमलोग किसका इंतजार कर रहे हैं ? किससे न्याय की आस लिए हैं ? चन्द्रशेखर के लिए लंबी लड़ाई लड़ी गयी पर उसे न्याय नहीं मिला. चन्द्रशेखर की मां न्याय की आस में चली गयीं. लोगों के दिलों दिमाग को हिला देने वाला, जाति, धर्म,असमानता और हत्या की संस्कृति के खिलाफ जो खड़ा हुआ उसे तो हत्यारों की आंखों में चुभना ही था. चन्द्रशेखर और राजदेव रंजन जैसे लोग हमारी चेतना हमारी स्मृतियों बसे रहेंगे. पूरे देश की नसों में बहते रहेंगे. मुझे याद है चन्द्रशेखर की प्यारी ,खूबसूरत,चमकदार हंसी. मुझे याद हैं उसकी बैचेनी भरी गहरी निगाहें जैसे आज भी हमें देख रही हों. चन्द्रशेखर अपने विचारों में जिंदा है. राजदेव जिंदा हैं अपने लेखन में. जिसने मौत की आंखों में आंखें डाल कर देखा हो. जो लोगों के दिलों में दाखिल हो.उसे कौन मार सकता है. वह अब मनों मिट्टी के नीचे सो रहा है. मैं रुखसत नहीं लेना चाहती. उपर सर्द अथाह आसमान की गहराइयां जगमगा रहीं हैं और तारे चकमक पत्थर की तरह चमक रहे हैं. हवा शांत और परदर्शी है. शहर का कोलाहल अभी भी लहरों की तरह लोगों के दुख से भीगा है.अगर हम अभी भी खड़े नहीं हुए तो हत्यारे जीत जायेंगे और कलम की हार होगी.