इला कुमार का पहला कविता संग्रह ‘जिद मछली की’ है । ‘किन्हीं रात्रियों में’ ‘ठहरा हुआ अहसास’ और ‘कार्तिक का पहला गुलाब’ ‘आज पूरे शहर पर’ आदि अब तक ५ संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. संपर्क : ई -मेल : ilakumar2002@yahoo.co.in
मध्यरात्रि के बीच
एक रात
मध्यरात्रि के बीच
सूरज उग पड़ा
सुबह का सूर्य
रात में
आकाश के योजनों विस्तृत वक्ष पर
मनसर’ के खेतों, पेड़ों के बीच से लुकता-छिपता
उस मध्यरात्रि में
निकल पड़ा
अवतरित हुआ वह
खुले आसमान की क्रोड़ से
या
कि आसमान ही आकार ले रहा था
शनैः शनैः उसकी गोद से
किसे पता
सूरज के पास था उजाला
दर्प, आस्था, न्याय और प्रश्न
प्रश्न उसके पास थे अनंत
खेतों में बीजों के अंकुरने का प्रश्न
नदियों की सतह के वापिष्त होने का प्रश्न
प्रश्नों की आकांक्षाओं से भरे प्रश्न उसके पास थे
इससे-उससे सबसे पूछता रहा वह प्रश्न
उस रात मध्यरात्रि में
पानी की चक्रायित गति का प्रश्न
गूँज उठा विदर्भ की जमीं पर
चक्राकार योजना के बीच
घूमती थीअनवरत तब वाष्प की बूंदें
बूंदों से भरते तालाबों की छाती की सल्-सल्
उन्हीं तालाबों की जड़ों के बल पर
शेशनाग के फन पर सम्हाली-सहेजी गई
पृथ्वी के अंतर में स्थित ज्वाला की थर्-थर्
अनगिनत तत्वों से जुड़े अनत प्रश्न आकाश में मंडरा उठे
उस रात
सृष्टि की शुरुआत में सूर्य के अंदर पैठे देव ने
रची थी एक अद्भुत चक्राकार योजना
करोड़ों रश्मि किरणों के बल पर
खींच लिया करेगा वह वाष्पों के अदृश्य कण
वाष्प आवेशित कण-कण का महीन जोड़
बादलों की शक्ल लेगा
और
वे ही बादल कण हर बीज में, धन-धान्य में प्राण बन लहरा उठेंगे
आज भी अदृश्य वाष्प कणों को थामे
अपरिमित रश्मियाँ पसर जाती हैं
नवकलिकाओं के सद्यस्फुटित प्रस्फुटन के प्रथम अवगुंठन पर
कई विज्ञ जन प्रथम दृश्य बाल सूर्य को अध्र्य देते हुए उचारते हैं…
…ऊँ दिवाकरऽऽ…! ऊँ पूषाअन्नै…!
श्रुतियों, स्मृतियों का पोषणहार
अनगिनत चतुर्युगियों से पोषण का धर्म
निभाता है
लेकिन पृथ्वी का धर्म ?
वाश्प का, जल का, बूंदों का चक्र
किसने खंडित किया
थल के उर में समाए जल और गगन में पसरी रश्मियों के
अद्भुत समन्वय को
पूरी पृथ्वी पर स्थापित आचरण के
सही स्वरूप को तोड़ डाला
आखिर किसने ?
पृथ्वी, धरती, जल, बादल और संभावित जीवन से जुड़े अनगिनत प्रश्न थे
प्रश्न बहुत थे सूरज के पास
उसके प्रश्नों का जवाब पृथ्वीवासियों के पास न था
प्रश्न वही हैं
वे हीहैं
सूरज भी
धरती क्या नहीं रहेगी ?
और हम ?
धूसर धरती
धूसर धरती पर लम्बे पेड़ों के निकट
घूमती बलखाती सड़क के साथ है
नदी के बिम्ब
प्रतिबिम्ब सरीखे
पहाड़ों के पैरों से दूर
बीते दशकों की लम्बाई के पीछे ठिठककर
नदी ने फैलाई थीं अपनी बाँहें
पसारी थी अपनी काया
अद्भुत तरलता भरी
शहर आकर बसाया था उसके तटों पर
पनी मिट्टी स्थूल सूक्ष्म सभी कुछ देती रही नदी
सालों- साल
लगातार निर्मल मीठा पानी अपनी रगो में उतार
दुधमुहें बच्चों ने पाई उड़ान
सौदर्यित saashwit काया के संग
हुए वे बच्चे युवा
नई सभ्यता के छल बल से पूर्ण
अक्ल के विस्तारित तहों के पार खड़े होकर
खरीदे उन्होंने धुंआ उगलने वाली भीमकाय मशीनें
नदी के किनारों पर खड़े किए
आसमान छूते ढांचे लोहे और स्टील के
तालाबों को मूंद बनवाए गए रिहायशी मकान
पुरानी संस्कृति/पृथ्वी की प्रथम संस्कृति
वर्षा जल को थाती समक्ष सकने वाली संस्कृति को
समाज से विलग कर
हुए पूर्वाग्रहों से मुक्त आधुनिक जीव
नदी आज सूख गई है
शहर से मानों रूठ गई है
अगले दशकों में बिन पानी
शहर क्या बना रहेगा ?
शायद नहीं
शायद . . . .
अजन्में बच्चे
माताओं के गर्भों में
जल पर डोलते बच्चे
हाथ जोड़े पनाह माँगते हैं
जल को बचे रहने देने का आश्वासन
अपने लिए
संसार को बचाए रखने का विश्वास
चुप हैं ज्ञाता-विज्ञाता
प्रशासक लापरवाही का ताना-बाना लपेटे
नीतियों के संरक्षण में मशगूल
नेता वोट-नोट और गोट ढूंढते हुए
प्रार्थनारत बालक हैरान हैं
भयमुक्त्ता का दिखावा करते समाज का भय
मीलों लम्बा पसरा हुआ है
माता !
सिर्फ माता रातों के बीच कालिमामयी रात्रि देखती हुई जगती है
ध्यान में बैठ गुनती है
त्राण-परित्राण के रास्तों को गुहारती है
अक्षमता स्वयं को, अपने को तौलती है
कल शायद
भविष्य पर छाया हाहाकार छंट जाएगा
लेकिन आज चिंता में डूबी माता
माता की माता
नवजात शिशुओं और अजन्में बच्चों के बारे में सोचती है
किन्तु नदी अभी नही दिखती है
एक दिन बरसाती कहर बन
तट पर बसे शहर को लील जाएगी
भयमुक्त होगी एक बार फिर
नदी!
बढ़ने के क्रम में
बढ़ने के क्रम में
वह
हवाई जड़ों को तना बनने देता है
अपनी नई जड़ों के बल पर सारी जमीन पर छा जाने के लिए
जिस पृथ्वी को पूर्वज वराह कभी सात समुद्रों के बीच से
निकाल लाए थे
उसी पृथ्वी को
अपने पत्तों के बल पर वह
हरी पृथ्वी में बदल देना चाहता है
पृथ्वी
जो महाजलप्लावन के बाद
आज से एक अरब बेरानवें करोड़ वर्ष पहले जल से बाहर
निकल आई थी
अब सात मन्वन्तरों के बाद
उसे
एक बरगद
अपने पत्तों के बल पर
ढांक लेना चाहता है
बीत चुके चतुर्युगियों की याद बरगद को नहीं है
उसे इस सत्य से भी कोई सरोकार नहीं
कि
किस चतुर्युगी में शिव ने संहार किया
और ब्रह्मा ने सृष्टि
बरगद की रुचि नहीं है
बीते हुए मनवन्तरों के लेखा जोखा रखने में
सेतुबंध के राम उसकी दृष्टि की परिधि पर अभी नहीं हैं
कृष्णावतार, यशोदा और ब्रजभूमि की ओर वह नजर डालना
नहीं चाहता
वह
मदुरै की मीनाक्षी और सुरेश्वर के बारे में कुछ भी नहीं सोचता
बरगद
शेषाचल के श्रीनिवास और पद्मावती के बारे में भी
अनजान बना रहना चाहता है
उसे अपने जड़ों पत्तों और डालियों के बढ़ने की चिंता है
उसे
पृथ्वी की चिन्ता है
पृथ्वी के क्षत विक्षत मानस को वह हेरता है
उसके सफेद दूध पर
भविय में
पृथ्वी के ऊपर टिककर खड़ी
प्लास्टिक की पृथ्वी का बिम्ब उभरता है
अन्य सभी अन्यायों से वह
वेन पृथु की पृथ्वी को बचा ले जाना चाहता है
अपने पत्तों के बल पर
हरी पृथ्वी रचने के क्रम में
बरगद
डाली दर डाली, पत्ता दर पत्ता आगे बढ़ता है
नए बिम्बों को रचते हुए
एक से अनेक हो उठता है
एकोऽहं बहुस्यामि के
ब्रह्म की तरह
–
कहा मैंने शहर से
कहा मैंने शहर से
‘‘जगह दो नदी को
बहने दो उसकी निश्च्छल, उज्ज्वल धारा को
पूरने दो कलेजा धरती का’’
नहीं दी नगर ने जगह नदी को
अपनी ऊँची इमारतों के पांवों को धंसने दिया
नदी के सकुचाए तटों पर
कंक्रीट के चौड़े सीमेंटी पटरों से पाट दिया बहती धारा की छाती को
कहा मैंने गृहवासियों से
‘‘जगह दो नदी को
बहने दो उसकी कल कल उज्ज्वल धारा को
नम होने दो धरा को’’
नहीं दिया गृह धारकों ने जगह धारा को
धरा को घेर-घेर बना लिए एक मंजिले-दुमंजिले मकान
सिकुड़ गई नदी बंटती रही उपधाराओं में
नाली जैसा रूप धर कर
इधर से उधर डोलती रही
कहा मैंने बार-बार
बहुतों से बहुत बार
सुनी नहीं उन्होंने मेरी बात
रुचि नहीं उन्हें मेरी गुहार
उनमें से कई हुए नाराज
मेरी अन-अपेक्षित दखलअंदाजी पर उन्हें था गहरा एतराज
नाराज मैं रही लगातार
नगर, शहर और ग्रामवासियों से
उनकी निर्मम लापरवाही से
बीतते दशकों के बीच वर्शों के हुजुम आगे बढ़ गए
मनुष्य आसुरत्व के बीच ठिठके रहे
अब धरा है नाराज
नगर-डगर, धूप-छांव के बीच प्यासे डोल रहे
थलचर, नभचर, जलचर
जल चाहिए सबों को !
वाकई
जल हम सबों को चाहिए, कुछ घंटों के अंतराल पर
प्यास से कंठ सूख जाता है रह-रह कर
नाराज नहीं है अगर
तो वह है नदी
हल्की बारिश होते ही वह झिलमिला उठती है
वरना वह तो सूख गई है
जमीं के नीचे जाकर बैठ गई है
समाज, सभ्यता और संस्कृति को पोषित करने वाली धारा
लुप्त हो गई है
लोग जल खोजने निकल पड़े हैं चंद्रमा और मंगल पर
लेकिन वहाँ नहीं है नदियों के पैरों की नम्र छाप
जल को तलाशते मनुष्यों के हाथ-पैर और मन-प्राण
ब्रह्मांड में भटक रहे हैं