राज्यसभा सांसद और राष्ट्रीय जनता दल की प्रभावशाली महिला नेता डा. मीसा भारती अपने इस लेख में महिलाओं के आरक्षण को समय की आवश्यकता बता रही हैं:
राजनीति में महिलायें ! यह आज भी एक बडा सवाल है. कम से कम भारतीय राजनीति में. प्रमाण यह कि यहां महिलाओं को हर स्तर पर स्वयं को साबित करना पडता है. बात यदि वंचित वर्ग की महिलाओं की हो तो प्रतिकुलता के स्तर में गुणोत्तर वृद्धि हो जाती है. एक ताजा प्रमाण यह कि देश में दलित राजनीति की शीर्ष नेत्री मायावती जी का सार्वजनिक अपमान भाजपा के उपाध्यक्ष पदधारी नेता द्वारा किया गया. यह सब उस पार्टी के नेता द्वारा किया गया जो धर्म के आधार पर महिलाओं को देवी का अवतार मानती है. इतना ही नहीं जब केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने इसका विरोध किया तो उनका भी माखौल उडाया गया. ये घटनायें तो महज बानगी है.
कहने की आवश्यकता नहीं रह गयी है कि महिलायें आज न केवल सामाजिक जिम्मेवारियों के निर्वहन में सक्षम हैं बल्कि कई क्षेत्रों में उन्होंने स्वयं को पुरूषों से आगे निकलकर खुद को साबित किया है. हालांकि यह भी एक कटु सत्य है कि आधी आबादी को आज भी अपने अस्तित्व के लिए अग्निपरीक्षा देनी पड़ती है, पुरुषों द्वारा परिभाषित कसौटी पर खुद को साबित करना पड़ता है.
हमारे समाज में महिलाएँ अपने हित से जुड़े निर्णय लेने में भी स्वतन्त्र नहीं हैं, इसके लिए भी उन्हें सदैव किसी ना किसी पुरुष की हामी पर ही निर्भर रहना पड़ता है.हमारे पुरुष प्रधान देश में बेटी या बहु को घर की इज़्ज़त बताने के बहाने सीमाएँ निर्धारित कर दी जाती हैं जो दरअसल महिलाओं को वश में रखने के लिए एक पुरुष प्रधान समाज द्वारा किए गए अन्यायपूर्ण उपायों से अधिक कुछ नहीं हैं. दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि संविधान में भी महिलाओं को वाजिब हक मिल सके, इसके लिए न्यायपूर्ण प्रावधान नहीं किये जा सके हैं. ताजा उदाहरण संसदीय व्यवस्था में महिला आरक्षण के मुद्दे का है. इसे लेकर कई भ्रांतियां भी हैं जो समाज के विभिन्न तबकों में विषमता के कारण भी है और यथास्थिति के आदती हो चुके सामाजिक व्यवस्था के कारण भी.सबसे पहले तो यह समझना अनिवार्य है कि आरक्षण का उद्देश्य क्या है. अगर आरक्षण का उद्देश्य देश के संसाधनों, अवसरों और राजकाज में समाज के हर समूह की उपस्थिति सुनिश्चित करना है, तो यह बात अब निर्णायक रूप से कही जा सकती है कि आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था असफल हो गयी है.
सामाजिक न्याय का सिद्धांत दरअसल वहीं लागू हो सकता है, जहां लोगों (खासकर प्रभावशाली लोगों) की नीयत साफ हो. विशिष्ट सामाजिक बनावट की वजह से भारत जैसे देश में सामाजिक न्याय के सिद्धांत को असफल होना ही था और यही हुआ.
सर्वविदित है कि आजादी के पहले से ही भारत में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण लागू है. 1993 के बाद से अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी के लिए केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण है. 2006 के बाद से केंद्र सरकार के शिक्षा संस्थानों में अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए आरक्षण लागू हो गया. राज्यों के स्तर पर ओबीसी का आरक्षण काफी समय से चला आ रहा है. लेकिन इस तरह के तमाम आरक्षण का नतीजा क्या निकला ? यह एक विचारणीय प्रश्न है. भारतीय संविधान के मुताबिक अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण लागू होने के साठ साल से अधिक समय बीत चुके हैं. अब मौका आ गया है कि देश के सभी तबकों के लोग आपस में मिलकर इस स्थिति पर विचार करें कि जिन उद्देश्यों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी, वह अभी तक अप्राप्य क्यों है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आरक्षण की समीक्षा के बहाने वंचित तबकों के हितों की उपेक्षा की जाय.
मेरे हिसाब से एक्सक्लूजन की बजाय इन्क्लूजन की नीयत से आरक्षण की समीक्षा हो और जब ऐसा हो तो महिलाओं को प्राथमिकता दी जानी चाहिए. सामाजिक न्याय की अवधारणा ही समाज के सभी वंचित तबकों को विकास की मुख्यधारा में शामिल करने का है. फिर महिलाओं को इससे अलग कैसे किया जा सकता है. खास बात यह भी कि समीक्षा के पूर्व ठोस पहल किये जाने की आवश्यकता है. हालांकि पूर्ववती केंद्र सरकार ने देश में जातिगत जनगणना कर एक पहल की लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि इसे आजतक सार्वजनिक नहीं किया गया है.इसका परिणाम यह है कि आज नीतियां एवं योजनायें बिना किसी ठोस आधार के बनायी जा रही हैं. किसी को भी यह नहीं मालूम कि ओबीसी का आंकड़ा क्या है. दलित कितने हैं और आदिवासी कितने. इस देश में ओबीसी के लिए आरक्षण है, ओबीसी वित्त आयोग है, ओबीसी के लिए सरकार की ओर से मामूली सा ही सही लेकिन बजट है, राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय ओबीसी आयोग है, लेकिन ओबीसी का कोई आंकड़ा नहीं है. चूंकि आंकड़ा नहीं है इसलिए योजनाओं का कोई लक्ष्य भी नहीं है. किस राज्य को ओबीसी विकास के लिए कितनी रकम देनी है और कितनी स्कॉलरशिप देनी है, यह सब ओबीसी की संख्या के आधार पर नहीं, बल्कि राज्य की कुल आबादी के अनुपात में तय होता है.
दिल्ली विश्वविद्यालय में इस साल ओबीसी की 5400 सीटें योग्य कैंडिडेट न मिलने के नाम पर जनरल कटेगरी को ट्रांसफर कर दी गयीं. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी लगभग ढाई सौ ओबीसी सीटें जनरल छात्रों से भरी गयीं. विश्वविद्यालयों में दलित, आदिवासी और ओबीसी कोटा किसी न किसी बहाने खाली रखा जाता है. आईआईटी और आईआईएम में यह समस्या और गंभीर है. समुदायों के स्तर पर यह असंतुलन लोकजीवन के अलग-अलग और लगभग सभी क्षेत्रों में देखा जा सकता है. राजनीति और सफाई के पेशे को अपवाद के तौर पर देख सकते हैं, जहां वंचित समुदायों के लोग अच्छी संख्या में हैं.इनमें से ज्यादातर बातें अनुमान या अनुभव के आधार पर इसलिए भी कहने की जरूरत पड़ती है क्योंकि इस देश में कभी भी यह जानने की कोशिश नहीं की जाती कि देश के अलग अलग समुदायों की वास्तविक स्थिति क्या है और किन समुदायों को कितना और किस तरह से विशेष अवसर देने की जरूरत है. इस बात को छिपाने पर जोर इतना ज्यादा है कि देश में समाजशास्त्रीय महत्व के आंकड़े जुटाने का खुद समाजशास्त्री (अकादमिक क्षेत्र में वंचित समुदायों के लोग नाम मात्र ही हैं) ही विरोध करते हैं. मिसाल के तौर पर, अभी आंकड़ा संग्रह की जो स्थिति है, उसकी वजह से आप यह कभी नहीं जान पाएंगे कि इस देश में कितने लोग जाति से बाहर शादी करते हैं. बहरहाल ठोस आंकड़े न होने पर भी यह बात भरोसे के साथ कही जा सकती है कि देश के ज्यादातर संसाधनों, अवसरों और राजपाट (विधायिका को छोड़कर) पर दलित-आदिवासी और ओबीसी उपस्थिति सुनिश्चित करने में आरक्षण का मौजूदा स्वरूप असफल रहा है.
महिलाओं के मामले में खास बात यह भी है कि उन्हें कभी भी स्वतंत्र तौर पर नागरिक माना ही नहीं गया है. महिलाओं की जाति उनके पति की जाति के आधार पर तय करने की प्रथा है. सवाल केवल जाति निर्धारण का ही नहीं है बल्कि महिलाओं के अस्तित्व को स्वीकारने का है. जिस तरीके की विषमता पुरूषों के लिए समाज में मौजूद है, महिलाओं के लिए भी वहीं विषमतायें लागू होती हैं. मसलन महिलायें भी जाति के आधार पर श्रेणीकृत हैं. इस सच्चाई से इन्कार नहीं किया जा सकता है.
खैर महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए उनका राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक तीनों स्तरों पर उन्मुखीकरण अनिवार्य है. बिहार इस मामले में एक नजीर है. बिहार में पहली बार महिलाओं को पंचायती राज व्यवस्था के तहत पचास फीसदी आरक्षण दिया गया. हालाँकि इसके आलोचना में यह ज़रूर कहा जाता है कि अक्सर ये महिला उम्मीदवार अपने परिवार के किसी राजनीतिक रूप से महत्वाकांक्षी पुरुष के महिला मुखौटा से अधिक कुछ नहीं होती हैं, और इस वास्तविकता से इंकार भी नहीं किया जा सकता है. परंतु इसके साथ साथ इस वास्तविकता से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि इसी बहाने दूर दराज के गाँवों की महिलायें अपने घर की दहलीज से बाहर निकलीं और कई अवसरों पर खुद को सामाजिक और राजनीतिक जीवन में साबित भी किया. अब देश के विभिन्न राज्यों द्वारा बिहार के इस उदाहरण को सराहा और अपनाया जा रहा है.
बहरहाल महिलायें सशक्त हों, इसके लिए आरक्षण आवश्यक है और यह भी सही है कि कोटा के तहत कोटा मिले तो यह एक न्यायपूर्ण स्थिति होगी. लेकिन सबसे बड़ा सवाल पहल करने की है. जिस तरीके से महिलाओं को उनके हक-हुकूक से वंचित किये जाने की साजिश की जा रही है, अब बंद होना चाहिए. इसके लिए प्रबुद्ध महिलाओं को आगे आना होगा और गाँव गाँव जाकर इस सुनियोजित संस्थागत अन्याय के विरुद्ध सभी महिलाओं को जागृत और संगठित करना होगा. कोई न कोई मार्ग तो तलाशनी ही होगी ताकि आधी आबादी खुलकर अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाये.
डा. मीसा भारती राज्यसभा सांसद हैं