मेरा शबाब भी लौटा दो मेरे मेहर के साथ

नासिरुद्दीन


तलाक के नाम पर मर्दानगी

एसएमएस से तलाक, इ-मेल से तलाक, स्काइप से तलाक, व्हॉट‍्सएप्प से तलाक, नशे की हालत में तलाक, गुस्से में तलाक, ख्वाब में बड़बड़ाते हुए तलाक, गर्भवती को तलाक, माहवारी के दौरान तलाक… ये तलाक बेजान लोगों के लिए नहीं हैं. ऐसे मुंहजबानी, एकतरफा, एक साथ तीन तलाक किसी शायरा बानो, किसी हमीदन, किसी रजिया, किसी नसरीन, किसी रहीमबी, किसी रूबीना, किसी शहाना की जिंदगी की हकीकत है. हिंसक सच्चाई है. यह मर्द के हाथ में मर्दानगी दिखाने और साबित करने का जरिया भी है. यकीन न हो तो तलाक के पांच केस देख लें. पता चल जायेगा, कैसी-‍कैसी बातों पर तलाक का लफ्ज मर्द के मुंह से निकलता है. असलियत में यह तलाक के हक के मार्फत मर्दिया ताकत की नुमाइश है. हम मर्दिया समाज के बाशिंदा हैं. मजहब, कानून, तहजीब, रवायत भी इसी समाज में वजूद में हैं. जाहिर है, इन सबको पढ़ने-पढ़ाने और समझने-समझाने का तरीका भी मर्दिया सोच से ही ज्यादतर निकलता है. क्यों, क्या, कैसे और कितना बताया जाये… यह भी यही सोच तय करती है. इसीलिए बेवक्त एक साथ तीन तलाक जैसी हिंसा, मुसलमान स्त्रियों पर चली आ रही है. महिलाओं को किसने, कैसे और क्या बताया कि शादी या तलाक के मामले में उनके हक क्या हैं?

सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला है, जिसे कानून की जबान में ‘शमीम आरा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य’ के रूप में जाना जाता है. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सिर्फ कह देने भर से तलाक नहीं हो जायेगा. तलाक की प्रक्रिया पूरी करनी होगी. इसके अलावा कई हाइकोर्ट ने कई केसों में यह साफ किया कि मर्द की तरफ से एकतरफा, जबानी, इकट्ठा तीन तलाक नहीं दिया जा सकता. पहले सुलह-समझौते की कोशिश होनी चाहिए. तलाक की ठोस वजह होनी चाहिए. वरना, ऐसे ही दिया गया तलाक नहीं माना जायेगा. यानी देश के कोर्ट ने ऐसे तलाकों के बारे में अपनी राय साफ कर दी है. क्या ये फैसले इस मुल्क की महिलाओं और
खासकर मुस्लिम  महिलाओं को पता हैं? वैसे, इनके बारे में मर्दों को भी पता होना चाहिए. कई बार शौहर की हिंसा झेलने और खर्च न देने की हालत में मुसलमान महिला कोर्ट का दरवाजा खटखटाती है. कोर्ट में शौहर बचने का सबसे आसान तरीका निकालता है. कह देता है, मैंने तो इसे तलाक दे दिया है. यानी उसकी जिम्मेवारी खत्म. अब कोर्ट में यह भी नहीं चलता. ऊपर जिन फैसलों के बारे में कहा गया है, वे ऐसे ही शौहरों के पैंतरों का नतीजा हैं.

एक और कानून है, जिसे मुस्लिम  महिला (तलाक के बाद अधिकारों का संरक्षण) कानून 1986 के नाम से जाना जाता है. इस कानून के तहत तलाक देने के बाद भी कोई शौहर, महिला या बच्चों का खर्च देने से नहीं बच सकता. कई हाइकोर्ट ने इस कानून की व्याख्या करते हुए इद्दत के दौरान का गुजारा देने के अलावा एकमुश्त रकम, स्त्रीधन, दहेज का सामान दिलाने का फैसला दिया है. यह एकमुश्त रकम शौहर की सामाजिक-आर्थिक हैसियत के मुताबिक तय होगी. ध्यान रहे, कानून का नाम तलाकशुदा महिलाओं के हकों की हिफाजत है. क्या कोर्ट से राहत की यह बात हर मुसलमान मर्द-स्त्री को पता है? एक और कानून है- घरेलू ‘हिंसा से महिलाओं का संरक्षण विधेयक 2005’. यह कानून घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं को फौरी राहत देने की बात करता है. इस कानून में कोई मर्द, घर के दायरे में रह रही किसी स्त्री को बेघर नहीं कर सकता है. मुसलमान महिलाओं को इस कानून के जरिये भी इंसाफ मिल रहा है. इन महिलाओं में तलाकशुदा भी हैं. अब ऐसे मामलों में पति दलील दे रहे कि वे इस कानून के दायरे में नहीं आयेंगे. क्यों, क्योंकि उन्होंने तो तलाक दे दिया है. कोर्ट इसे नहीं मान रही है. वह इस कानून के दायरे में तलाकशुदा को भी शामिल मान रही है.

दिल्ली हाइकोर्ट का एक मामला है. तलाकशुदा बीवी को इस कानून के तहत अंतरिम गुजारा मिला. मामला सेशन से हाइकोर्ट पहुंचा. हाइकोर्ट में दलील दी गयी कि वे अब ‘घरेलू रिश्ते’ से नहीं बंधे हैं. इसलिए वे इस कानून के दायरे में नहीं आते हैं. कोर्ट का कहना था कि इस कानून के मुताबिक पीड़ित शख्स का मतलब वे सभी हैं, जो घरेलू रिश्ते में हैं, या रह रहे हैं, रहते हैं या रह चुके हैं या किसी भी दौरान साझे घर में साथ रह चुके हैं. कोर्ट के मुताबिक, इस दायरे में तलाकशुदा जोड़े भी आते हैं. तलाकशुदा महिलाओं को राहत दिलानेवाले ऐसे फैसले राजस्थान, मध्य प्रदेश, दिल्ली और मुंबई के कोर्ट से आ चुके हैं. वैसे इस कानून के तहत हर तरह की हिंसा यानी तशद्दुद जुर्म है. इसलिए तलाक की धमकी देना या बार-बार इसका डर दिखाना भी हिंसा के दायरे में आयेगा. क्या मुसलमान महिलाओं को इस कानून से राहत मिलने की बात पता है? यह पहला ऐसा कानून है, जो घरेलू रिश्तों में सभी मजहब की महिलाओं पर एक समान तरीके से लागू होता है.

अगर इस्लाम की रूह इंसाफ है और इसके मूल्य में बराबरी का समाज बनाना है, तो यह मुमकिन नहीं कि ऐसी चीजें मुसलमान स्त्रियों की जिंदगी की फांस बनी रहें. अगर कोई स्त्री नहीं है और उसके आपसी रिश्ते बराबरी के नहीं हैं, तो वह तीन तलाक की तलवार और उसके खौफ के साये में गुजरती जिंदगी का एहसास नहीं कर सकता. अगर हमारे घर में किसी बेटी, बहन, खाला, बुआ के साथ ऐसा नहीं हुआ, तो इसे समझना थोड़ा कठिन है. लेकिन हां, जो इंसाफ पसंद हैं, वे जरूर समझेंगे. हमारे समाज में तलाक के हक का कैसा इस्तेमाल होता है और आमतौर पर इसका किस पर सबसे ज्यादा असर होता है, यह शायद बताने की जरूरत नहीं है. एक ऐसे समाजी निजाम में जहां किसी स्त्री का ब्याहता होना सबसे बड़ा गुण माना जाता हो, वहां तलाकशुदा और अगर वह मां भी हुई तो, उसकी हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है. मगर जिंदगी सिर्फ इतनी ही नहीं है.
वैसे किसी शायर ने खूब कहा है-
तलाक दे तो रहे हो गरूर-ओ-कहर के साथ. / मेरा शबाब भी लौटा दो मेरे मेहर के साथ.



 तीन बार तलाक कहना सही नहीं

दसियों साल से मुसलमान एक ऐसी बहस पर अटके हैं, जिसे बहुत पहले खत्म हो जाना चाहिए था. यह काम भी मुसलमानों को खुद ही कर लेना चाहिए था. नतीजतन, बहस रह-रह कर सिर उठाती रहती है. बहस है, क्या एक साथ और एक वक्त में तलाक-तलाक-तलाक कह देने से मुसलमान जोड़ों के बीच का शादीशुदा रिश्ता खत्म हो जाता है?  उत्तराखंड की रहनेवाली शायरा बानो की शादी 2002 में हुई. शादी के लिए दहेज देना पड़ा. शादी के चंद रोज बाद ही और ज्यादा दहेज की मांग शुरू हो गयी. जब मांग पूरी न हुई तो उस पर जुल्मो-सितम‍ किये गये. खबरों के मुताबिक, उसे ऐसी दवाएं दी गयीं, जिससे उसके कई एबार्शन हो गये. वह हमेशा बीमार रहने लगी. पहले उसे जबरन मायके भेजा गया. फिर 2015 के अक्तूबर में इकट्ठी तीन बार तलाक-तलाक-तलाक देकर शौहर ने उससे मुक्ति पा ली. शायरा ने ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर तलाक के इस रूप यानी एक साथ इकतरफा तलाक को खत्म करने की मांग की है.

इसी तरह, लखनऊ की रजिया की कहानी है. शादी के कुछ महीनों बाद शौहर कमाने के लिए सऊदी अरब चला जाता है. इस बीच रजिया एक बच्चे की मां बन जाती है. अचानक एक दिन उसके ससुराल वाले बताते हैं कि शौहर ने उसे सऊदी से टेलीफोन पर तलाक दे दिया है. एक पल में रजिया की जिंदगी बदल दी जाती है. बवक्त एक साथ तीन तलाक की ऐसी घटनाएं, कई मुसलमान महिलाओं की जिंदगी का सच है.तलाक के इस रूप को इसलामी कानून की जबान में तलाक-ए-बिदत कहते हैं. यानी तलाक का ऐसा तरीका, जो कुरान और हदीस में नहीं मिलता है. तलाक की बुनियाद, जोड़ों के बीच मतभेद या लगाव न होने का नतीजा होती हैं.इसीलिए तलाक की इजाजत देने से पहले इसलाम इस बात की पैरवी करता है कि जोड़े सुलह की गुंजाइश तलाशें. मौलाना अबुल कलाम आजाद अपनी तफ्सीर ‘तर्जमानुल कुरान’ में एक आयत के हवाले से कहते हैं, ‘अगर ऐसी सूरत पैदा हो जाये, जिसमें इस बात का अंदेशा हो कि शौहर और बीवी में अलगाव पड़ जायेगा, तो फिर चाहिए कि खानदान की पंचायत बिठाई जाये. पंचायत की सूरत यह हो कि एक आदमी मर्द के घराने से चुन लिया जाये और एक औरत के. दोनों आदमी मिल कर सुलह कराने की कोशिश करें.’



अगर सुलह न हो पायी तब ? तलाक इस सुलह के नाकाम होने के बाद का अगला कदम है. पैगम्बर हजरत मोहम्मद (सल्ल.) की हदीस है, ‘खुदा को हलाल चीजों में सबसे नापसंदीदा चीज तलाक है.’फिर भी इसकी नौबत आ गयी है तो मौलाना आजाद ने इसी किताब में तलाक से जुड़ी आयत के हवाले से लिखा है, ‘तलाक देने का तरीका यह है कि वह तीन मर्तबा, तीन मजलिसों में, तीन महीनों में और एक के बाद एक लागू होती हैं. और वह हालत जो कतई तौर पर रिश्ता निकाह तोड़ देती है, तीसरी मजलिस, तीसरे महीने और तीसरी तलाक के बाद वजूद में आती है. उस वक्त तक जुदाई के इरादे से बाज आ जाने और मिलाप कर लेने का मौका बाकी रहता है. निकाह का रिश्ता कोई ऐसी चीज नहीं है कि जिस घड़ी चाहा, बात की बात में तोड़ कर रख दिया. इसके तोड़ने के लिए मुख्तलिफ मंजिलों से गुजरने, अच्छी तरह सोचने, समझने, एक के बाद दूसरी सलाह-मशविरा की मोहलत पाने और फिर सुधार की हालत से बिल्कुल मायूस होकर आखिरी फैसला करने की जरूरत है.’ (खंड दो, पेज 196-197) कुछ और चीजें भी देखते हैं. जैसे पैगम्बर हजरत मोहम्मद (सल्ल.) के वक्त में तलाक का क्या तरीका अपनाया गया होगा?

एक हदीस है, ‘महमूद बिन लबैद कहते हैं कि रसूल को बताया गया कि एक शख्स ने अपनी बीवी को एक साथ तीन तलाकें दे दी हैं. यह सुन कर पैगम्बर हजरत मोहम्मद (सल्ल.) बहुत दुखी हुए और फरमाया, क्या अल्लाह की किताब से खेला जा रहा है, वह भी तब, जब मैं तुम्हारे बीच मौजूद हूं.’ मौलाना उमर अहमद उस्मानी ‘फिक्हुल कुरान’ में बताते हैं कि पैगम्बर हजरत मोहम्मद (सल्ल.) के जमाने में अगर तीन तलाकें एक साथ दी जाती थीं, तो वह एक तलाक ही शुमार की जाती थी.अंदाजा लगाइए इसलाम, शादी न चल पाने की सूरत में अलग होने का यह तरीका सदियों पहले बता रहा था. कुरान ने जो तरीका बताया, उसे तलाक-ए-रजई या अहसन कहा गया है. इसे सबसे बेहतरीन तरीका भी माना गया है. अब अगर इस तरीके को छोड़ कर कुछ और अपनाया जाये, तो यह किस शरीअत की हिफाजत कही जायेगी? ऐसा नहीं है कि सभी भारतीय मुसलमान एक वक्त में दिये गये तीन तलाक को सही मानते हैं. लेकिन हां, मुसलमानों में कुछ ऐसे तबके अब भी हैं, जो इस तीन तलाक को बिल्कुल नहीं मानते. वह तीन चरणों की प्रक्रिया पूरी करने पर जोर देते हैं. सवाल है, अगर वे मान सकते हैं, तो बाकी लोग क्यों नहीं?



मिस्र ने ऐसे तलाक से 1929 में ही छुटकारा पा लिया था. इसके अलावा पाकिस्तान, बांग्लादेश, तुर्की, ट्यूनीशिया, अल्जीरिया, कुवैत, इराक, इंडो‍नेशिया, मलेशिया, ईरान, श्रीलंका, लीबिया, सूडान, सीरिया ऐसे मुल्क हैं, जहां तलाक कानूनी प्रक्रियाओं से गुजर कर पूरा होता है. दुनिया में इसलाम पहला ऐसा मजहब था, जिसने शादी को दो लोगों के बीच बराबर का करार बनाया. अगर निकाह एक खास प्रक्रिया के बिना पूरी नहीं हो सकती, तो बिना किसी प्रक्रिया के एकबारगी सिर्फ तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कह देने से निकाह खत्म कैसे हो जाना चाहिए? यही नहीं, अगर निकाह बिना औरत की रजमांदी के पूरी नहीं हो सकती, तो उसे शामिल किये बिना तलाक की प्रक्रिया कैसे पूरी हो जाती है? यह कैसी विडंबना है कि शादी या तलाक की जो प्रक्रिया इसलाम ने तय की थी, उसकी झलक नये जमाने के कानूनों में तो दिखती है, लेकिन मुसलमानों ने ही उसे छोड़ दिया.
बेहतर हो कि एक साथ तीन तलाक देने के तरीके को मुसलमान खुद ही खत्म करें. यह सही तरीका नहीं है. वरना शायरा या रजिया जैसी अदालत की चौखट पर जायेंगी ही.

इंसाफ के लिए उठी सदाएं

ऐसा क्यों होता है कि रीति-रिवाज, परंपरा, संस्कृति या मजहबी रहनुमाओं से महिलाओं का ज्यादा टकराव होता है? ऐसा क्यों होता है कि जब भी मजहबी कायदे-कानून में बराबरी की आवाज उठती है, तो ऐसी सदा स्त्रियों के लिए या स्त्रियों की तरफ से ज्यादा आती है? जब महिलाएं आवाज उठाती हैं, तो उन्हें ही गलत ठहराने की मुहिम शुरू हो जाती है. उन पर धर्म से भटकने और मजहब को बदनाम करने के इलजाम लगने लगते हैं.
कुछ भी कहिये, मर्दिया ताकत है बड़ी जबरदस्त! उसका ताना-बाना, उसकी मजबूत सत्ता की नींव काफी गहरी है. अपनी ताकत और ताने-बाने से मर्दिया सत्ता हर विचार, दर्शन या मुहिम को अपने हिसाब से मोड़ लेती है. चाहे मजहब के उसूल हों या फिर देश का संविधान, सब ताक पर रखे रह जाते हैं. मर्दिया सत्ता अपने हिसाब से चीजों की व्याख्या करती है और उसी के मुताबिक नियम-कानून बनाती और चलाती है.

इंसाफ, बराबरी, रहम, मोहब्बत, इंसानी इज्जत- ये सब इसलाम के मूल्य हैं. मर्दों ने इंसाफ और बराबरी को भी अपने हिसाब से खुद ही तय कर लिया कि मुसलमानों के लिए क्या सही है. मसलन, बहुविवाह के बारे में कुरान के विचार को पढ़ें, तो पता चलता है कि वह एक से ज्यादा शादी की इजाजत नहीं देता है, बल्कि वह तो एक वक्त में एक से ज्यादा शादी करने पर अंकुश लगाने की बात करता है. कुरान के आदर्श का मतलब मर्दों ने अपने हक में निकाल लिया. इसके जरिये वे इस नतीजे पर पहुंच गये कि उन्हें एक साथ चार बीवियां रखने की इजाजत है. (हालांकि, आज के वक्त में कोई ऐसा करता दिखता नहीं है.) नतीजा, मुसलमान मर्दों ने इसे अपना मजहबी हक मान लिया. यही नहीं इन्हीं की वजह से मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल किये जानेवाले ढेर सारे अफवाहों में एक यह भी शामिल है. वैसे, मजहब और मजहब के नाम पर बोलने में काफी फर्क है. मजहब कहता है, खुदा की नजर में हर बंदा बराबर है. मजहब के माननेवाले सोचते हैं, ऐसा कैसे हो सकता है? वे तर्क तलाशते हैं और साबित करने की कोशिश करते हैं कि मर्द नाम का जीव बरतर यानी श्रेष्ठ है.

मजहब क्या है, क्या बताता है, क्या कहता है, क्या चाहता है- इन सब बातों को बताने के काम पर भी मर्दिया सोच का कब्जा है. उनकी सोच ही मजहब हो गयी है. उनकी राय पत्थर की लकीर हो गयी है. उनके ख्याल जन्नत और दोजख का दरवाजा खोलने लगे हैं. जाहिर है, जब तक जेहन में इंसाफ और बराबरी की रूहानी सोच नहीं रहेगी, किसी की भी सोच इकतरफा ही होगी. ऐसा नहीं है कि मजहब जाननेवाले सभी मर्द ऐसा सोचते हैं. लेकिन ऐसे लोगों की तादाद कम है, जो सिर्फ मर्दिया नजरिये से धर्म को नहीं देखते हैं. अगर ये बातें अटपटी लग रही हों, तो जरा हम चंद चीजों पर गौर करें. ऐसा क्यों है कि मंदिरों में जाने के लिए महिलाओं को आंदोलन करना पड़ता है? क्या हमने कभी सवर्ण हिंदू मर्दों को मंदिर में खुद प्रवेश करने के लिए आवाज उठाते सुना है? ऐसा क्यों है कि महिलाओं को ही मजार में हर जगह जाने की इजाजत के लिए सड़क पर आना पड़ता है? ऐसा क्यों है कि कभी किसी मर्द के लिए यह सवाल नहीं पूछा गया कि वह नमाज पढ़ा सकता है या नहीं?

स्त्री-पुरुष की यकसां इमामत कर सकता है या नहीं? ऐसा क्यों है कि जायदाद में हक पाने के लिए पुरुषों की जमात ने कभी अपने लिए कानून की मांग नहीं की? ऐसा क्यों नहीं हुआ कि कोई शकील, कोई समी, कोई रिजवान, कोई रूमी तीन तलाक के अपने ‘जबरिया’ हक को खत्म करने के लिए कोर्ट की देहरी पर पहुंच गया हो? ऐसा क्यों है कि मर्दों ने कभी अपने साथ होनेवाली ‘हकतलफी’ खत्म करने के लिए घर-परिवार के दायरे में बराबरी का कानून बनाने की मांग नहीं की? मसलन, दहेज, दहेज हत्या, घरेलू हिंसा, बलात्कार, शादी-शुदा जिंदगी में उत्पीड़न, एक मजलिस में तीन तलाक, बहुविवाह, हलाला के खिलाफ, जायदाद में बराबरी के हक के लिए कानून, निकाहनामा में मर्दों के हकों की हिफाजत की गारंटी के वास्ते कोई आवाज तो नहीं उठती है. इन सबकी जरूरत तो स्त्रियों के वास्ते ही हुई. हां, मर्दों ने हर ऐसे कानूनी हिफाजत के ‘दुरुपयोग’ की बात जरूर उठायी. तनिक रुक कर यह भी सोचना चाहिए कि समाज सुधार आंदोलन या समाजी बेदारी की मुहिम का बड़ा हिस्सा महिलाओं की समाजी हालत सुधारना क्यों होता रहा है. इसका इतिहास है. सुधार आंदोलन, बेदारी मुहिम और हिफाजती कानून की जरूरत उनके लिए होती है.

जिन्हें समाज ने कमजोर बना कर या सदियों से दबा कर रखा है. हर धर्म और जाति की महिलाएं, मर्दों के मुकाबले वंचित समुदाय हैं. इसलिए मजबूत मर्दों को कभी अपने लिए खास मुहिम या कानूनों की जरूरत नहीं पड़ी. क्योंकि सामाजिक रीति-नीति से लेकर कायदे-कानून तक सब उनके ही तो हैं. उनके ही हितों की हिफाजत करते आ रहे हैं.एक मजलिस में तीन तलाक और बहुविवाह को खत्म करने, जायदाद में बराबर की हिस्सेदारी या धार्मिक स्थलों में इबादत की इजाजत की मांग, महिलाओं के हक की मांग हैं. ये हक उनकी इज्जत भरी जिंदगी के लिए जरूरी हैं. जरा फर्ज करें, सब उलट-पुलट हो गया है. वे सारे हक जो अब तक मर्दों के हाथों में थे, महिलाओं के पास आ गये हैं. अब महिलाएं जब चाहें, सोते-जागते, होश-बेहोश, बात-बेबात, बताये-बिना बताये, टेलीफोन-एसएमएस या व्हॉट‍‍्सएप्प पर इकट्ठे तीन बार तलाक, सोच कर-बोल कर-लिख कर दे सकती हैं. एक झटके में अपने शौहर को आदाब कह कर अपनी जिंदगी से विदा कर सकती हैं. कैसा होगा यह सूरतेहाल? क्या तब मर्द इसे इंसाफ मान कर चुपचाप बैठे रहेंगे? क्या वे कुछ नहीं बोलेंगे? क्या उनके साथ यह बराबरी का सुलूक होगा? क्या इसे इंसाफ और बराबरी का इंसानी उसूल कहा जायेगा? अगर ये सूरतेहाल ठीक नहीं कही जा सकती है. तो आज अगर स्त्रियां ऐसी सूरत को बदलने के लिए आवाज उठा रही हैं, तो ये गलत कैसे हो जायेगा?

यह आलेख स्त्रीवादी पत्रकार और चिंतक नासिरूदीन के प्रभात खबर में छपे तीन लेखों की पुनर्प्रस्तुति है

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