स्तन कैंसर/ब्रेस्ट कैंसर: कवितायें विभा रानी की

विभा रानी

लेखिका, रंगमंच में सशक्त उपस्थिति, संपर्क :मो- 09820619161 gonujha.jha@gmail.com

कैंसर का जश्न!

क्या फर्क पड़ता है!
सीना सपाट हो या उभरा
चेहरा सलोना हो या बिगड़ा
सर पर घने बाल हों या हो वह गंजा!
ज़िन्दगी से सुंदर,
गुदाज़
और यौवनमय नहीं है कुछ भी.
आओ, मनाएं,
जश्न – इस यौवन का
जश्न – इस जीवन का!


गाँठ

मन पर पड़े या तन पर
भुगतते हैं खामियाजे तन और मन दोनों ही
एक के उठने या दूसरे के बैठने से
नहीं हो जाती है हार या जीत किसी एक या दोनों की.
गाँठ पड़ती है कभी
पेड़ों के पत्तों पर भी
और नदी के छिलकों पर भी.
गाँठ जीवन से जितनी जल्दी निकले
उतना ही अच्छा.
पड़ गए शगुन के पीले चावल,
चलो, उठाओ गीत कोई.
गाँठ हल्दी तो है नहीं
जो पिघल ही जाएगी
कभी न कभी
बर्फ की तरह.


गांठ : मनके-सी!

एक दिन
मैंने उससे कहा
देखो न!
गले में पड़े मनके की तरह
उग आई हैं गांठें।
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि
गले से उतारकर रखी गई माला की तरह ही
हौले से गांठ को भी निकालकर
रख दें किसी मखमली डब्बे में बंद
उसकी आंखों में दो मोती चमके
और उसने घुट घुट कर पी लिया अपनी आंखों से
मेरी आंखों का सारा पानी।
गांठ गाने लगी आंखों की नदी की लहरों की ताल पर
हैया हो… हैया हो…
माझी गहो पतवार, हैया हो..।



छोले, राजमा, चने सी गाँठ!

उपमा देते हैं गांठों की
अक्सर खाद्य पदार्थों से
चने दाल सी, मटर के साइज सी
भीगे छोले या राजमा के आकार सी
छोटे, मझोले, बड़े साइज के आलू सी.
फिर खाते भी रहते हैं इन सबको
बिना आए हूल
बगैर सोचे कि
अभी तो दिए थे गांठों को कई नाम-उपनाम
उपनाम तो आते हैं कई-कई
पर शायद संगत नहीं बैठ पाती
कि कहा जाए –
गाँठ –
क्रोसिन की टिकिया जैसी
बिकोसूल के कैप्सूल जैसी.
सभी को पता है
आलू से लेकर छोले, चने, राजमे का आकार-प्रकार
क्या सभी को पता होगा
क्रोसिन-बिकोसूल का रूप-रंग?
गाँठ को जोड़ना चाहते हैं –
जीवन की सार्वभौमिकता से
और तानते रहते हैं उपमाओं के
शामियाने-चंदोबे!



कैंसू डार्लिंग! किस्सू डियर!! 

मेरा ना…….म है – कैंसर!
प्यार से लोग मुझे कुछ भी नहीं कहते.
न कैंसू, न किस्सू, न कैन्स.
और तुम्हारा नाम क्या है –
सुषमा, सरोज, ममता या अम्बा.
रफ़ी, डिसूजा, इस्सर, जगदम्बा.
उस रोज
रात भर बजती रही थी
शहनाई, बांसुरी, ढोलक की बेसुरी धुन!
खुलते रहे थे दिल और दिमाग के
खिड़की – कपाट.
मन चीख रहा था गाने की शक्ल में
दे नहीं रहा था ध्यान सुर या ले पर.
हुहुआ रही थी एक ही आंधी
डुबा रही थी दिल को – एक ही धड़कन
कैसे? कैसे ये सब हुआ??
क्यों? और क्यों ये सब हुआ?
कैंसर!
मुझे पता है तेरा नाम
दी है अपने ही घर के तीन लोगों की आहुति
फिर भी नहीं भरा तुम्हारा पेट जो
आ गए मेरे पास?
और अब गा रहे हो बड़ा चमक-छमक के, कि
मेरा ना……म है कैंसर!
और कर भी रहे हो शिकायत कि
नहीं लोग पुकारते हैं तुम्हें प्यार से
किस्सू डियर या कैंसू डार्लिंग!
आओ,
अब, जब तुम आ ही गए हो मेरे सीने में
मेरे दिल के ठीक ऊपर
जमा ही लिया है डेरा
तो कह रही हूँ तुम्हें
कैंसू डार्लिंग, किस्सू डियर!
खुश!
लो, पूरी करो अपनी मियाद
और चलते बनो
अपने देस-नगर को,
जहां से मत देना आवाज किसी को
न पुकारना किसी का नाम
इठलाकर, बल खाकर
ओ माई कैंसू डियर!
ओ माई किस्सू डार्लिंग!!


ब्रेस्ट कैंसर.

अच्छी लगती है अंग्रेजी, कभी कभी
दे देती है भावों को भाषा का आवरण
भदेस क्या! शुद्ध सुसंस्कृत भाषा में भी,
नहीं उचार या बोल पाते.
स्तन – स्तन का कैंसर
जितने फर्राटे से हम बोलने लगे हैं –
ब्रेस्ट – ब्रेस्ट कैंसर!
नहीं आती है शर्म या होती है कोई झिझक
बॉस से लेकर बाउजी तक
डॉक्टर से लेकर डियर वन्स तक को बताने में
ब्रेस्ट कैंसर, यूट्रेस कैंसर.
यह भाषा का सरलीकरण है
या भाव का भावहीनता तक का विस्तार
या बोल बोल कर, बार बार
भ्रम – पाने का डर से निजात
ब्रेस्ट कैंसर, ब्रेस्ट कैंसर, ब्रेस्ट
ब्रेस्ट, ब्रेस्ट, ब्रेस्ट कैंसर!



तुम और तुम्हारी वकत ओ स्तन!

याद नहीं,
पर आते ही धरती पर
मैंने तुम्हें महसूसा होगा
जब मेरी माँ ने मेरे मुंह में दिया होगा – तुम्हें.
यहीं से शुरू हो जाता है
हर शिशु का तुमसे नाता
जो बढ़कर उम्र के साथ
बन जाता है माँ से मादा तक का हाथ –
छूता, टटोलता, कसता
या घूम जाता तुम्हारी गोलाई में.
इधर-उधर के ताने-बाने के साथ.
तुम्हें ही मानकर पहेली
तुम्हीं के संग बनकर सहेली
खेली थी होली
की थी अठखेली
भाभी संग, संग ननद के भी
जब मुंह के बदले बोली थी
स्तन की बोली.
मेरी समझ में आया था
क्या है वकत तुम्हारी
तुमसे ही होती है पहचान हमारी
ओ मादा! ओ औरत ज़ात!
कितना बड़ा हिस्सा है देह के इस अंग का
तुम्हारे साथ!


जनाना चीज

बचपन में ही चल गया था पता
कि बड़ी जनाना चीज है ये.
मरे जाते हैं सभी इसके लिए
छोकरे- देखने के लिए
छोकरियाँ-दिखाने के लिए
बाज़ार- बेचने और भुनाने के लिए
सभी होते हैं निराश
गर नहीं है मन-मुआफिक इसका आकार!
बेचनेवाले कैसे बेचें उत्पाद
ब्रेसरी की मालिश की दवा
कॉस्मोटोलोजी या खाने की टिकिया
पहेलियां भी बन गईं- बूझ-अबूझ
‘कनक छड़ी सी कामिनी, काहे को कटि छीन?
कटि को कंचन काट विधि, कुचन मध्य धरि दीन!’
ये तो हुआ साहित्य विमर्श
बड़े-बड़े देते हैं इसके उद्धरण
साहित्य से नहीं चलता जीवन या समाज.
सो उसने बनाया अपना बुझौअल और बुझाई यह पहेली-
गोर बदन मुख सांवरे, बसे समंदर तीर
एक अचंभा हमने देखा, एक नाम दो बीर!
वीर डटे हुए हैं मैदान में
कवियों के राग में
ठुमरी की तान में
‘जब रे सिपाहिया, चोली के बन्द खोले,
जोबन दुनु डट गई रात मोरी अम्मा!’
खुल जाते हैं चोली के बंद
बार-बार, लगातार
सूख जाती है लाज-हया की गंगा
बैशाख-जेठ की गरमी सी
खत्म हो जाती है लोक-लाज की गठरी
आंखों में बैठ जाता है सूखे कांटे सा
कैंसर!
उघाड़ते-उघाड़ते
जांच कराते-कराते
संवेदनहीन हो जाता है डॉक्टर संग
मरीज भी!



पॉप कॉर्न सा ब्रेस्ट!

पॉप कॉर्न सा उछलता
बिखरता ब्रेस्ट कैंसर।
यहां-वहां, इधर-उधर
जब-तब, निरंतर।
प्रियजन,
नाते-रिश्तेदार
हित-मित्र, दोस्त-यार।
किसी की माँ
किसी की बहन
किसी की भाभी
किसी की बीबी
कोई नहीं तो अपनी पड़ोसन।
दादी-नानी भी नहीं है अछूती
न अछूता है रोग।
आने पर ब्रेस्ट कैंसर की सवारी
खोजते हैं आने की वजह?
लाइफ स्टाइल?
स्ट्रेस?
लेट मैरिज?
लेट संतान?
एक या दो ही बच्चे?
नहीं कराया स्तन-पान?
डॉक्टर और विशेषज्ञ हैं हैरान
नहीं पता कारण
नहीं निष्कर्ष इतना आसान
हर मरीज के अपने लक्षण
अपने-अपने कारण।
पूछते हैं सवाल एक से- कैसे हो गया?
जवाब जो होता मालूम
तो फेंक आते किसी गठरी में बांधकर
किसी पर्वत की ऊंचाई पर
या पाताल की गहराई में
पॉप कॉर्न से कैंसर के ये दाने।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles