टीवी पर ‘अल्ट्राटेक सीमेंट’ का नया विज्ञापन आ रहा है.सुंदर और सेक्सी मॉडल्स बिल्डिंग बना रहे हैं.मतलब विज्ञापन में वे मज़दूर की भूमिका में हैं.लड़के मज़दूर ‘सिक्स-पैक’ की बॉडी के साथ और लड़कियाँ मज़दूर ‘ज़ीरो फिगर’ वाली,छरहरी सुंदर.
मतलब बिल्डिंग भी यह सोचकर कभी न गिरे कि ‘क्या खूब हाथों ने हमें बनाया है.’
पूँजीपति वर्ग का आज के युग में मज़दूरों पर यह सबसे सुंदर(?) मज़ाक है.(अगर इसे ऐसे देखें तो.)
हालाँकि सौन्दर्यवादी दृष्टि से विज्ञापन खूबसूरत बन पड़ा है लेकिन जिन मज़दूरों को चित्रित किया गया है वे लोग ऐसे होते नहीं.उनकी स्थिति दर्दनाक होती है.
पूँजीवाद ने अब मज़दूरों को भी विज्ञापन में सौंदर्य के प्रतिमान की तरह चित्रित करना शुरू कर दिया है.यानी यह नई कला से मज़दूर को गायब करने की शुरुआत है.इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मज़दूरों और किसानों और आदिवासियों को लुप्त करने जा रहा है.
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यह मीडिया-क्रांति का युग है.मीडिया से मज़दूर गायब,किसान गायब,आदिवासी गायब यह अचानक नहीं है.यह एक सोची समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है.
बहस के लिए उछाले जा रहे मुद्दे बुनियादी मुद्दों से अलग हैं.राहुल गाँधी की यात्रा की ‘कवरेज’ जरूरी है,किसानों की स्थिति नहीं.राहुल गाँधी की मिट्टी उठाती तस्वीर महत्त्वपूर्ण है,रोज-रोज वही काम कर रहे मज़दूर नहीं.उनकी तस्वीर नहीं.
‘चाय वाले’ लीडर पर कवरेज तो होगी लेकिन असली चाय वालों को बहस से बाहर रखा जाएगा.उनकी स्थिति,उनका दर्द मीडिया से गायब होगा.मज़दूरों पर मीडिया ‘बाईट्स’ तो होंगी लेकिन मज़दूर गायब होंगे.
आधुनिक मीडिया पूँजीवाद का पिट्ठू है.वह आमजन के बुनियादी मुद्दों से अलग फैशन और मनोरंजन को जगह देने वाला माध्यम है.मीडिया में जब से ‘बड़ी-पूँजी’ का प्रवेश हुआ है उसे आमजन या लोकतंत्र के हथियार के रूप में जानने और मानने वालों को निराशा हुई है.
आधुनिक मीडिया पूँजीपतियों के हित साधन के लिए खबरें निर्मित करता है.इसने कला के हर रूप को अपने अंदर समाहित कर लिया है.वे सारे रूप जो कल तक जन सरोकारों से जुडे थे मीडिया ने उन्हें अपने कब्जे में कर लिया है.कविताओं और कहानियों के बाद अब विज्ञापन और सीरियल्स और कला के सभी आधुनिक रूपों पर पूँजीपतियों का कब्जा है.आमजन के हित के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाइयों के सभी माध्यमों पर पूँजीपति नजर गड़ाए है.वह पिछली सदी वाली गलती नहीं करना चाहता.
लेकिन इन सबके बीच जो सबसे बड़ी समस्या है वह यह कि आमजन मञ्च विहीन हो गया है.उसके लिए लड़ी जाने वाली हर लड़ाई ‘फिक्स्ड’ है.उसका हर हीरो बिका हुआ है.वह किसी पर भरोसा नहीं कर सकता.
जन प्रतिनिधि उसे केवल मुददे के रूप में देख रहा है और पूँजीवाद उसे सौन्दर्य प्रसाधन या मनोरंजन के एक प्रकार के रूप में प्रस्तुत कर रहा है.जहां उसकी चर्चा तो होगी लेकिन नॉनसेंस के लिए.मजदूर मीडिया में नॉनसेंस होगा.टीवी देख रहे मजदूर उजबक की तरह टुकुर टुकुर ताकेंगे.
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यह युग एंटी मजदूर,एंटी किसान,एंटी आदिवासी है.बड़ी पूँजी ने समूची सभ्यता को खेल बना दिया है.ऐसा खेल जिसके सारे नियम उसने खुद बनाए हैं.मजदूर सिर्फ एक वस्तु बनकर रह गया है.किसी भी मजदूर या किसान की आत्महत्या अब मनोरंजन की वस्तु है.मीडिया ने उसे एक रूटिन खबर बना दिया है.लोग जैसे फिल्में और सीरियल्स और गाने देखते हैं हिंसा या हत्या या मृत्यु की खबरें वैसे ही देख रहे हैं.लोगों की संवेदनहीनता असल में मीडिया निर्मित है.यह मीडिया निर्मित स्थिति है..यह एक खराब युग है.जहाँ विरोध के सारे साधन,सारे नियम जिसका विरोध हो रहा है उसके कब्जे में है.ऐसे में यह लड़ाई बहुत खतरनाक और गंभीर हो गई है.इसकी चुनौतियाँ दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं.
लोग अपने आस पास के मुद्दों को मीडिया में देखें, उसके ग्लैमर के रंग में रंग जायें यही उद्देश्य है.मुक्तिबोध ने शीतयुद्धीय समय में जिसे ‘कॉस्मेटिक सौन्दर्य’ कहा था असल में वह शुरुआती दौर था.अब हम उसे उसके विकसित रूप में देख रहे हैं.लोगों की बेबसी और लाचारी असल में पूँजीपतियों की ताकत के फलस्वरूप की स्थिति है.
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मीडिया भ्रम बनाए रखता है कि वह जन सरोकार के मुद्दों के प्रति गंभीर है जबकि एक मुहीम के तहत वह जन सरोकार के मुद्दों को हल्का कर रहा होता है.उसके खिलाफ पनप रहे स्वाभाविक गुस्से को खत्म करने की स्थिति पैदा करता है.मीडिया का यह भ्रम असल में पूँजीपतियों के लिए जन्म ले सकती किसी भी अप्रिय स्थिति का तोड़ है.आमजन मीडिया को विरोध के ज़रिए के रूप में देखे और इधर मीडिया पूँजीपतियों के हित में काम करे.
गंभीर से गंभीर मुद्दे को मनोरंजन बना देना,हल्का बना देना कोई अचानक हो रही चीज़ नहीं है.मीडिया सबसे पहले व्यक्ति की आलोचनात्मकता को नष्ट करने का काम कर रहा है.मतलब जो दिखाया जा रहा है उसे चुपचाप दर्शक भाव से देखिए और स्वीकारिए.मीडिया ने विराट जनमानस को पंगु करने का काम किया है.
मैं इस विज्ञापन के पीछे की विचारधारा के खतरे को साफ देख रहा हूँ.मीडिया ने हर एक बुनियादी सवाल को सौन्दर्य की वस्तु बना दिया है और आमजन को दर्शक.
फुकोयामा ने कहा था ‘हम जिस गाडी में बैठे हैं उसकी ड्राइविंग सीट पर राजनीति नहीं है.’