‘स्त्री नेतृत्व की खोज’ श्रृंखला के तहत घरेलू कामगार महिलाओं को संगठित कर उनके संघर्ष की अगुआई कर रही संगीता सुभाषिणी से और उनके आंदोलन से परिचित करा रहे हैं नवल किशोर कुमार.
बिहार के मुजफ्फरपुर शहर की रहने वाली संगीता सुभाषिणी की खासियत यही है कि अपनी निजी जिंदगी में तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी है। अपनी निजी जिंदगी की परेशानियों के समानांतर उन्होंने समाज के उस तबके के विकास का अभियान शुरू किया, जिसकी उपयोगिता तो हर संभ्रांत परिवार में है, लेकिन कद्र कोई नहीं करता है। वह संगीता ही हैं, जिनके कारण मुजफ्फरपुर शहर में चूल्हा-चौका करने वाली करीब चार हजार महिलायें आज न केवल आत्मनिर्भर हैं, बल्कि समाज में अपनी उपस्थिति भी पूरी मजबूती के साथ स्थापित कर रही हैं।
संगीता सुहासिनी घरेलू कामगार महिलाओं के साथ |
संगीता बताती हैं कि पहले घरों में काम करने वाली महिलाओं को मुजफ्फरपुर शहर में हेय दृष्टि से देखा जाता था। इसके अलावा उन्हें नियमित रूप से मजदूरी का भुगतान भी नहीं किया जाता था। जबकि यह सभी जानते हैं कि कोई भी महिला किसी दूसरे के घर के में चूल्हा-चौका जैसा काम किस हालात में करती है। सामाजिक रूप से यह पेशा कभी सम्मानजनक पेशा नहीं माना गया। इस पेशे को अपनाने वाली महिलाओं में अधिकांश वंचित तबके की होती हैं जिनके पास रोजगार का कोई विकल्प नहीं होता है। संगीता बताती हैं कि वर्ष 2008 में उन्होंने ‘संबल’ संस्था की स्थापना की। तब मकसद यही था कि ऐसी महिलाओं को सशक्त बनाया जाय।
लेकिन यह रास्ता इतना आसान नहीं था। जिन घरों में महिलायें दाई का काम करती थीं, उनके मालिकों का व्यवहार एकदम क्रूर था। यहां तक कि स्थानीय पुलिस प्रशासन भी ऐसी महिलाओं की शिकायत पर ध्यान नहीं देती थी। चुनौती यही थी कि ऐसी महिलाओं को उनका अधिकार सम्मान के साथ दिलाया जाय। संबल के बैनर तले महिलायें एकजुट होती गयीं और फिर अहिंसात्मक तरीके से अन्याय के खिलाफ आंदोलन छेड़ा गया।
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संगीता के मुताबिक आज उनके संगठन में चार हजार से अधिक महिलायें जुड़ी हैं। इसके अलावा आसपास के इलाकों में उन्होंने अपने प्रशिक्षित प्रतिनिधियों को जिम्मेवारी दे रखी है। ये प्रतिनिधि अपने-अपने इलाकों में घरेलू नौकरानियों एवं दाईयों, आदि का पूरा रिकार्ड रखती हैं। साथ ही उनके साथ होने वाले किसी भी प्रकार के अन्याय के खिलाफ सूचना मिलने पर पूरी जानकारी संगीता सुभाषिणी को देती हैं। इसके बाद सुभाषिणी महिलाओं को एकजुट कर आपस में रणनीति तय करती हैं। इसके बाद ही अहिंसात्मक तरीके से कार्रवाई की जाती है।
कारवां बढ़ता गया
संगीता ने बताया कि वर्ष 2012 से पहले उन्होंने संबल नामक अपनी संस्था का पंजीकरण नहीं कराया था। इसके पीछे की वजह बताते हुए वे कहती हैं कि उनकी मंशा महिलाओं को एकजुट कर उन्हें जागरूक बनाना था। किसी तरह का लाभ कमाना उनका उद्देश्य नहीं था। लेकिन इसका एक दुष्परिणाम यह हुआ कि स्थानीय प्रशासन द्वारा संबल के द्वारा उठाये गये सवालों को नजर अंदाज किया जाने लगा। अंत में सभी महिला सदस्यों ने आपस में मिलकर स्वयंसेवी संस्था के रूप में पंजीकृत कराने का निर्णय लिया।
अपने द्वारा किये गये प्रयासों के परिणाम के बारे में संगीता बताती हैं कि अब स्थिति पूरी तरह बदल गयी है। अब तो उनके पास वे महिलायें भी आती हैं, जो मालकिन कहलाती हैं और अपनों के द्वारा विभिन्न प्रकार की हिंसा की शिकार होती हैं। हमारी संस्था से जुड़ी महिलायें उनका उत्साह बढ़ाती हैं और अन्याय के खिलाफ उनका साथ देती हैं। उन्होंने कहा कि सबसे अधिक सुकून देने वाली बात यह है कि अब दाई के रूप में काम करने वाली महिलायें ‘अप्प दीपो भव’ की तर्ज पर स्वयं जागरूक होती जा रही हैं। वे अब अपनी आय का अधिक हिस्सा अपने बच्चों को पढ़ाने-लिखाने में खर्च करती हैं।
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संबल में संगीता और अन्य महिलायें |
दमिता नामकरण
जून ,2011 में जेनेवा में हुए अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के 100 वें अधिवेशन में घरेलू कामगार स्त्रियों के संगठन का भी कन्वेंशन हुआ और दुनिया भर में 10 करोड़ के आसपास घरेलू कामगार महिलाओं को सम्मानजनक श्रममूल्य और वातावरण दिलाने का संकल्प लिया गया. इसके बाद भारत में भी इन महिलाओं की सुध लेने की सरकारी कोशिशें तेज हुईं . तमिलनाडु , महाराष्ट्र , कर्नाटक, केरला आदि राज्यों में सीमित अर्थों में ही सही इन महिलाओं के लिए सरकारी प्रयास सुनिश्चित हुए, हालांकि सम्मानजनक भुगतान और दूसरी सुरक्षाओं की लड़ाई अभी जारी है. धीरे –धीरे केंद्र सरकार पर भी दवाब बन रहा है कि वह इन महिलाओं के लिए एक मुक्कमल बिल लेकर आये.
इन सब के बीच मुजफ्फरपुर की ये महिलाएं, जिन्हें 200 से 500 रुपये तक एक घर से मिलता है चौका वर्तन के लिए , देश और दुनिया भर में चल रही अपने लिए लडाइयो को नहीं जानती हैं. उन्हें भरोसा है तो अपनी सुभाषिणी दीदी पर , जिन्होंने इन महिलाओं के लिए एक नया नाम भी दिया है ,’ दमिता.’ यह नाम ‘दलित’ नाम के करीब इस मायने में है कि ये लगभग उतने ही हाशिये पर जीती है और अलग इस मायने में कि दलितों के साथ जुड़ा छुआ –छूत इनके साथ नहीं है . ‘चौका -बर्तन करे में कहीं 100 रूपया मिलअइछइ त कहीं 200, इतना में केना पेट भरतइ अ केना अपन बाल बच्चा के पढ़बइ. अब दीदी के सहयोग से हम सब भी अपन हक ला आवाज उठावे के चाहिछिअइ, शायद हामरो सब के परिवर्तन आ जतइ’ यह विश्वास सिर्फ राजवती देवी के साथ उन दर्जनों महिलाओं को हैं , जो संबल में सुभाषिणी जी के साथ सक्रिय हैं.
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अपनी कार्यकर्ताओं को सुभाषिणी न सिर्फ उनके हक के लिए लड़ना सिखा रही है, बल्कि सामजिक बुराइयों के खिलाफ भी खड़ा कर रही है, जिसका असर मुजफ्फरपुर के चर्चित शराब बंदी आन्दोलन में दिखा . जिला स्तर पर सरकारी सुविधाओं को हासिल करने में भी इन ने एकजुटता दिखाई है. अपने संसाधनों से संचालित यह संगठन एक लम्बी लड़ाई लड़ने की स्थिति में नहीं है लेकिन लम्बी लड़ाई के जज्बे से भरा है . सुभाषिणी जी हालांकि प्रदेश सरकार और खासकर बिहार के मुख्यमंत्री से अपील करती हैं कि दूसरे राज्यों की तरह बिहार में भी वे ‘दमिताओं’ के हक़ में कुछ कदम उठाएं . वे देश के दूसरे हिस्सों में चल रही इस लड़ाई से इन महिलाओं को जोड़ने की तैयारी में भी हैं.
जीवन और संघर्ष का निजी कोना
बहरहाल संगीता सुभाषिणी का निजी जीवन भी अनगिनत चुनौतियों का पर्याय रहा है। हालांकि उनका जन्म मुजफ़्फ़रपुर के बड़े उद्यमियों में से एक स्व प्रह्लाद दास अग्रवाल के घर में हुआ था। उनके पिता उत्तर बिहार में
कंक्रीट के ह्यूम पाईप का उत्पादन करने वाले पहले उद्यमी थे। इसके अलावा वे मुजफ़्फ़रपुर नगर कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे थे। समाज के प्रति उनके समर्पण और जनता से उनका लगाव इस कदर था कि वे आजीवन मुजफ़्फ़रपुर नगर निगम की स्थायी समिति के सदस्य रहे। इसके अलावा वे मुजफ़्फ़रपुर नगर निगम के
अध्यक्ष भी निर्वाचित हुए थे।इस तरह एक उच्च आयवर्गीय परिवार में जन्म लेने के बावजूद संगीता को समाज
सेवा अपने पिता से विरासत में मिली। मुजफ़्फ़रपुर शहर में ही प्राथमिक शिक्षा और इसी शहर के बिहार यूनिवर्सिटी से उच्च शिक्षा हासिल की। इकोनामिक्स उनका पसंदीदा विषय रहा। लेकिन उन दिनों ही समाज के साथ खड़ेहोने की भावना प्रबल हो उठी और संगीता ने कानून की पढाई की।
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संगीता बताती हैं कि उन दिनों ही उनके एकमात्र भाई की हत्या कर दी गयी। इस कारण परिवार
पर संकट का पहाड़ टूट पड़ा। विषमता के समानांतर संगीता ने अपने जीवन का एक नया रास्ता चुना। उन्होंने
मुजफ़्फ़रपुर से प्रकाशित दैनिक “प्रातः कमल” में पत्रकार के रुप में काम करना शुरु किया। यह वह समय था जब मुजफ़्फ़रपुर जैसे शहर में लड़कियों के लिए नौकरी करने की बात सोचना भी कल्पना के परे था। पत्रकारिता के अपने जीवन में संगीता ने अपनी रिपोर्टों से पूरे शहर का ध्यान आकृष्ट किया। खासकर एक दबंग नेता के द्वारा एक महिला के साथ दुष्कर्म के बाद हत्या को लेकर संगीता के द्वारा की गयी रिपोर्टिंग ने उन्हें एक मुकम्मिल पत्रकार के रुप में स्थापित किया।
उन दिनों ही उनकी मुलाकात अक्खड़ स्वभाव के पत्रकार अनिल गुप्ता से हुई। वे भी प्रातः कमल के लिए काम करते थे। फ़िर एक दिन ऐसा भी आया जब संगीता और अनिल ने शादी कर अपनी दुनिया बसा ली। संगीता बताती हैं कि यह एक नये जीवन की शुरुआत थी। अनिल गुप्ता के साथ देश के कई शहरों में उन्होंने पत्रकार के रुप में अनेक पत्र-पत्रिकाओं के लिए काम किया। लेकिन उनका दिल मुजफ़्फ़रपुर में बसता था और अंततः वे मुजफ्फरपुर आ गईं। तबसे उनका संघर्ष जारी है। वे कहती हैं कि जबतक उनके शरीर में रक्त का एक कतरा भी शेष है, वे अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु प्रयत्नशील रहेंगी। हालांकि वे चाहती हैं कि सरकार और समाज सभी महिलाओं के अस्तित्व को पूर्णता में स्वीकार करें और उन्हें अपना जीवन जीने दे। इसी में समाज की बेहतरी है।
नवल किशोर कुमार अपना बिहार वेब पोर्टल के संपादक हैं और हाशिये के संघर्ष के प्रति प्रतिबद्ध पत्रकार हैं.