ठीक एक साल पहले 17 जनवरी को रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या हुई थी. रोहित की मां तब से अपने बेटे को न्याय दिलाने के लिए और शिक्षण संस्थानों में जातीय भेदभाव के खिलाफ सक्रिय हैं. मेधा एक मां के संघर्ष और दुःख को व्यक्त कर रही हैं, उनसे मिलने और उनके दुःख साझा करने के बाद.
पिछले दिनों रोहित वेमूला की माँ राधिका वेमुला से मिलना हुआ. उनके साथ रोहित के मित्र रियाज भी थे. रोहित के जाने के बाद रियाज ने माँ का साथ हर मानिंद दिया है. रियाज मित्रता की अनूठी मिसाल पेश कर रहे हैं. राधिका जी और रोहित से मुलाकात मलकागंज के एक कार्यक्रम में हुई. मलकागंज में एक स्वयंसेवी संस्था ने उन बीमार महिलाओं के लिए एक केंद्र खोला है, जिनका कोई नहीं है, जो सड़कों पर अपनी जिंदगी गुजारने को विवश हैं. साथ ही इस केंद्र में वे नवयुवतियां भी रहेंगी, जिन्हें बचपन में ही सड़कों से उठा कर अपने केंद्र में इस संस्था ने पाला-पोसा और पढ़ाया-लिखाया है. अब यहां इन्हें कोई हुनर सीखा कर अपने पैरों पर खड़े होने का प्रशिक्षण दिया जाएगा.
इसी केंद्र के उद्घाटन के लिए रोहित वेमुला की माँ राधिका वेमुला आई थीं. इस केंद्र का नाम रोहित वेमुला उन्नित केंद्र रखा गया है. 17 जनवरी 2017 को रोहित को इस दुनिया से गए साल भर हो जाएगा. राधिका जी के उन्नत चेहरे पर पसरा हुआ गहरा दुःख साल भर में करुणा के रंग में तब्दील हो गया था. लेकिन उनकी पनीली आंखें अब भी एक माँ की व्यथा-कथा कह रही थीं. आंखों की तमाम चुगली के बावजूद व्यक्तिगत वेदना की नदी समष्टि के विराट दुख को अपना कर एक वेगवान झरने की मानिंद निरन्तर करुणा के महासागर में बदलती जा रही थी. और मैं उनके भीतर हो रहे इस रूपान्तरण को सहज ही अनुभूत कर पा रही थी.
‘दुःख हमें मांजता है’; (अज्ञेय को याद करते हुए) लेकिन किसी-किसी को वह इतना मांजता है कि निजी दुःख के आंसू से करुणा का सागर बन जाता है.
राधिका जी से यूं तो पहली बार ही मिलना हो पा रहा था, लेकिन संवेदना के स्तर पर वह मुझे अपनी बहुत ही पुरानी सहेली जान पड़ी. शायद इसलिए भी कि अन्याय की जिस कथा को और उस कथा से उपजे भयावह दुख को मैं 17 जनवरी से अप्रत्यक्ष स्तर पर जी रही थी और जिसके मेरे भीतर इतने गहरे समा जाने का अहसास मुझे स्वयं भी नहीं था. वह दुख राधिका जी को देखते ही स्वतः फफक कर बाहर आ गया और उससे ऐसे एकाकार हुई कि लगा कि मैं ही उस आखिरी चिट्ठी को लिख कर अपनी जीवन-लीला समाप्त कर देने वाली रोहित वेमुला हूं और मैं ही अपने जवान बेटे को खो देने का अथाह दुःख झेलने वाली राधिका वेमुला
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उनके चेहरे पर दुख का गहरापन था, तो कहीं न कहीं गौरव की दीप्ती भी थी. लेकिन इस सब के पीछे वह माँ आज भी सीसक रही थी, जिसने अपने जवान बेटा खोया था. वह बेटा, जिसको पढ़ा-लिखा कर काबिल बनाना, उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य था. हर तरह की तकलीफों को सहते हुए, उसे पढ़ाया-लिखाया. वह बेटा -जिसे उन्होंने एक सपने के साथ हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय भेजा था. वह बेटा – जिसके आईएस बनकर लौटने का इंतजार आंखों में लिए वह जी रही थीं. एक माँ के बतौर अपने बेटे की उस तकलीफ, घुटन और अकेलेपन का गहरा अहसास है, जिसने उसकी जान ले ली. साथ ही, उन्हें उस राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था में छुपे अन्याय का भी बोध है, जो रोहित की इस दशा के लिए जिम्मेदार है.
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राधिका जी बात करती हैं, तो कुछ ही मिनटों में उनके हिमालय जैसे दुःख से करुणा की नदी बह निकलती है. और उस नदी से इरादों का एक सूरज उदित होता है जो व्यवस्था के खिलाफ खड़े होने के उनके पराक्रम और साहस का प्रतीक बन जाता है. लेकिन इन सब के बीच एक मजबूर माँ अपने बेटे से गहरी शिकायत करती भी नजर आती है- कि वह कैसे अपनी माँ के सारे संघर्षों पर पानी फेरते हुए इस दुनिया से चला गया. उसने कैसे नहीं अपनी माँ की सुध ली.
राधिका जी ने कार्यक्रम में उपस्थित बच्चियों से कहा कि -‘‘ जिस तरह रोहित अपने हक के लिए लड़ा, अन्याय के खिलाफ खड़ा हुआ, वैसे ही तुम सब भी खड़े होना. लेकिन रोहित अकेला पड़ गया, इसलिए शायद उसे इतना भयंकर कदम उठाना पड़ा. लेकिन तुम साथ मिलकर अन्याय के खिलाफ लड़ना. अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए तुम्हारा हथियार शिक्षा होगी, इसलिए तुम सब खूब-खूब पढ़ना.’’ मैं देख रही थी, कि कैसे वहां बैठी सभी बच्चियां रोहित का रूप ले रही थीं और राधिका जी उन सबकी माँ.
सारे कार्यक्रम के दौरान कुछ इधर भी गहरा उथल-पुथल चल रहा था. जब से रोहित गया और उसकी पहली और आखिरी चिट्ठी मैंने पढ़ी, तब से वह हमेशा के लिए मेरी चेतना में समा गया. ऐसी चिट्ठी लिखने की तो उसकी उमर नहीं थी. यह तो प्रेम पत्र लिखने की उमर थी उसकी. लेकिन यह पत्र भी तो उसने प्रेम के बारे में ही लिखा. हम भी तो मौत से कम पर उसकी बात को सुनने को राजी नहीं हुए. रोहित वह साहसी शख्स है, जिसने प्रेम के लिए मौत को गले लगाया. प्रेम किसी व्यक्ति के लिए नहीं, प्रेम प्रकृति के लिए, एक ऐसी दुनिया को साकार करने की जिद से प्यार के लिए जहां मनुष्य केवल मनुष्य हो अपने पूरेपन में; जिसके वजूद पर जाति, धर्म, वर्ग, लिंग, नस्ल का कोई धब्बा न लगा हो, जहां कोई भी पहचान मनुष्य होने की पहचान से बड़ी न हो. जहां पहचान राजनीति का माध्यम न बनकर विविधता के सौंदर्य का उत्सव बनें. एक ऐसी दुनिया-जहां बिना चोट खाए, बिना दर्द सहे – प्यार किया जा सके. इस निगाह से देखें तो, रोहित का आखिरी पत्र दुनिया का अकेला और सबसे अनूठा प्रेमपत्र. और उस पत्र को पढ़ने वाला हर बंदा उसका प्रेमी है, जिसकी जिम्मेदारी है कि, रोहित ने जिस दुनिया का सपना लिए इस संसार को अलविदा कहा, उस दुनिया को सच करने की ओर रोज एक कदम भरना.
लेखिका सत्यवती महाविद्यालय ,दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती है . संपर्क :medhaonline@gmail.com