एदुआर्दो गालेआनो / अनुवादक : पी. कुमार मंगलम
अनुवादक का नोट
“Mujeres” (Women-औरतें) 2015 में आई थी। यहाँ गालेआनो की अलग-अलग किताबों और उनकी लेखनी के वो हिस्से शामिल किए गए जो औरतों की कहानी सुनाते हैं। उन औरतों की, जो इतिहास में जानी गईं और ज्यादातर उनकी भी जिनका प्रचलित इतिहास में जिक्र नहीं आता। इन्हें जो चीज जोड़ती है वह यह है कि इन सब ने अपने समय और स्थिति में अपने लिए निर्धारित भूमिकाओं को कई तरह से नामंजूर किया।
रोना
अमेज़न के इक्वाडोर में पड़ने वाले इलाके की बात है. वहां के शुआर मूलवासी एक मरती हुई बुढिया दादी के सामने रो रहे थे. वे उसके चारों ओर घेरा बनाए बैठे रोए जा रहे थे. यह सब देख रहे दुसरी दुनिया से आए एक आदमी ने पूछा:-आप लोग अभी क्यूँ रो रहे हैं जबकि वह ज़िंदा हैं”
तब जो रो रहे थे उन्होंने जवाब दिया:-“ताकि ये यह जान लें कि हम इन्हें कितना चाहते हैं.
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प्लाज़ा दे मायो की माएं
1977: बूएनोस आइरेस (प्रचलित नाम: ब्यूनस आयर्स).
प्लाज़ा दे मायो की माएं जिन्हें उनके बच्चों ने पैदा किया है, इस पूरी त्रासदी का ग्रीक कोरस हैं.सरकार के गुलाबी महल के सामने वे उस चीज़ का चक्कर लगाया करती हैं, जो गायब हुए उनके अपनों की फोटो से भरकर पिरामिड जैसी ऊँची हो चुकी है. यह वे उसी जिद के साथ करती हैं जिसके साथ वे सेना की बैरकों, पुलिस थानों और चर्चों के भीतरी कमरे तक चढ़ आया करती हैं. रो-रोकर सूख चुकी हैं वे. और उनकी राह देख-देखकर बेहाल, जो कल तक थे और आज नहीं हैं, या जो शायद आज भी हैं. या फिर कौन जाने:-मैं उठती हूँ और यह महसूस करती हूँ की वह ज़िंदा है- एक कहती है, सभी कहती हैं.
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दिन जैसे-जैसे चढ़ता है मेरा दिल डूबता चला जाता है. आधा दिन होते-होते वह मर जाता है. शाम में वह फिर से जी उठता है. तब मुझे फिर से लगने लगता है कि वह आएगा और मैं उसके लिए खाना रखती हूँ. वह दुबारा मर जाता है और रात मैं नाउम्मीद होकर बिस्तर पर गिर पड़ती हूँ. उठती हूँ और महसूस करती हूँ कि वह ज़िंदा है…
सभी उन्हें पागल बुलाते हैं. आम तौर पर उनके बारे में कोई बात नहीं करता. इस आम तौर वाली ‘सामान्य’ स्थिति में दुःख की कीमत सस्ती है. और कुछ लोगों की भी. पागल कवि मौत की तरफ बढ़ते हैं और ‘सामान्य’ कवि सत्ता की तलवार चूमकर उसके कसीदे तथा अपनी चुप्पी गढ़ते हैं. इस बिल्कुल ‘सामान्य’ स्थिति में देश के वित्त मंत्री अफ्रीका के जंगलों में शेरों और जिराफों का तथा सेना के जनरल ब्यूनस आयर्स की बस्तियों में मजदूरों का शिकार खेलते हैं. भाषा के नए कायदे यह हुक्म सुनाते हैं कि सैनिक तानाशाही को अब राष्ट्र के पुनर्निर्माण की प्रक्रिया कहा जाए!
जश्न दोस्ती का
ख्वान खेलमान ने यह बताया था कि कैसे एक बुजुर्ग महिला पेरिस की एक भीड़-भाड़ वाली सड़क पर मजदूरों की पूरी बटालियन से छाता लेकर भिड़ गई थीं. नगरपालिका के ये मजदूर कबूतरों को पकड़ने के काम में लगे हुए थे जब ये मोहतरमा वहाँ प्रकट हुई थीं. आगे से रोबीली मूछों वाले चेहरे जैसी दिखती उनकी शानदार मोटरकार वही वाली फोर्ड थी जिसे एक बाहरी हैंडल से स्टार्ट किया जाता था और जो अब संग्रहालयों में दिखा करती है. तो ये मोहतरमा उस मोटरकार से उतरीं और छाता चमकाते हुए अपने हमले में जुट गईं.
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वे दोनों हाथों से भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़ी थीं. बिल्कुल वहीं के वहीं न्याय करने के अंदाज़ में चल रहे उनके छाते ने वे सारे जाल तोड़ दिए थे जिसमें कबूतरों को पकड़ा गया था. और जब सारे कबूतर हवा में सफ़ेद बवंडर बनाते हुए फुर्र हो रहे थे तब वे मजदूरों पर अपना छाता लेकर टूट पड़ी थीं.
हाथों से जैसे भी हो सका खुद को बचाने के अलावा मजदूरों ने कोई और विरोध नहीं किया था. वे अपना गुस्सा कुछ बड़बड़ाते हुए जाहिर कर रहे थे, जो वो सुन नहीं रही थीं: श्रीमती जी, थोड़ा आराम से, कृपा करें हम काम कर रहें हैं, ये ऊपर का हुक्म है देवी जी, आप मेयर साहब को क्यूँ नहीं पीटतीं, इन्हें ये क्या हो गया है, किस कीड़े ने काट लिया है, पागल हो गई है यह औरत…जब गुस्से से बेकाबू उनके हाथ दुखने लगे और वह थोड़ा सांस लेने एक दीवार का सहारा लेकर खड़ी हुईं तब मजदूरों ने उनसे इस पूरे हंगामे की वजह माँगी.
एक लंबी खामोशी के बाद उन्होंने कहा: – मेरा बेटा मर गया.
मजदूरों ने कहा कि उन्हें इसका बहुत अफ़सोस है लेकिन इसमें उनका कोई कसूर नहीं है. यह भी कि उस सुबह बहुत सारा काम बाकी पड़ा था, कि वो मेहरबानी करके ये समझें.
-मेरा बेटा मर गया-उन्होंने फिर कहा.
उन्होंने कहा कि हाँ, कि वे उनका दर्द बिलकुल समझते हैं लेकिन वे भी सिर्फ अपनी रोजी-रोटी कमा रहे हैं, कि पूरे पेरिस में कितने ही लाख कबूतर मंडराते फिर रहे हैं, कि बेड़ा गर्क हो इन इन कबूतरों का जिन्होंने शहर का सत्यानाश कर रखा है.
–कमअक्लों!- वे उनपर गुस्से से फट पड़ी थीं
फिर मजदूरों से दूर, बाकी लोगो से दूर जाते हुए कहा:-मेरा बेटा मर गया और एक कबूतर बन गया.
सारे मजदूर चुप हो गए और एक पल के लिए कुछ सोचने लगे थे. फिर आखिरकार आसमान, छतों और गलियों में मंडरा रहे कबूतरों को दिखाते हुए कहा:-देवी जी, आप इन कबूतरों को क्यों नहीं ले जातीं और हमें शांति से काम करने देतीं?
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अपनी काली हैट ठीक करते हुए उन्होंने कहा:-ये! नहीं! ये बिलकुल नहीं!
फिर मजदूरों को कुछ ऐसे देखते हुए मानो वे उनके आर-पार देख रही हों, बड़ी ही तसल्ली से कहा:-मुझें नहीं पता इनमें से कौन सा कबूतर मेरा बेटा है. और अगर मैं जानती होती तब भी मैं उसे ले नहीं जाती. क्यूंकि मुझे क्या हक़ है कि मैं अपने बेटे को उसके दोस्तों से जुदा करूँ!
बिन बुलाए आ धमकी औरतें एक अनुष्ठान की शान्ति तोड़ती हैं
1979: माद्रीद.
माद्रीद के बहुत बड़े गिरजाघर में, एक विशेष मास या प्रार्थना सभा में अर्जेंटीना की आज़ादी की वर्षगाँठ मनाई जा रही है. उद्योगपति, अलग-अलग दूतावासों तथा सेना के लोग जनरल लेआन्द्रो आनाया के बुलावे पर तशरीफ़ लाए हैं. जनरल साहब उस तानाशाह निज़ाम के राजदूत हैं, जो दूर वहाँ अर्जेंटीना में राष्ट्र की विरासत, धर्म और बाकी कीमती चीजों का ‘ख्याल’ रखने में जुटी हुई है. देवियों और सज्जनों के चेहरे और कपडे सुन्दर बल्बों की रोशनी में चमक रहे हैं.
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रविवार और इसमें भी इस तरह का रविवार चुप्पियों के बीच ईश्वर को अपने किए में शरीक कर लेने का दिन होता है. बहुत मुश्किल से सुनाई पड़ती खाँसी की कोई छिटपुट आवाज इस सन्नाटे को सजा रही है. इस बीच मुख्य पुरोहित अनुष्ठान पूरा करवा रहे हैं. अब सब लोग मौन हैं, अनंतकाल की शांति. ‘ईश्वर के चुने हुए’ लोगों का अनंतकाल!
कंम्युनियन (communion) यानी ईश्वर का प्रसाद लेने का वक़्त हो गया है. अंगरक्षकों से घिरे राजदूत महोदय ऑल्टर (alter) या पूजा की वेदी की और बढ़ते हैं. वे घुटनों के बल बैठ, आँखें बंद कर अपना मुंह खोलते हैं. लेकिन तभी हवा में सफेद रुमाल लहराने लगते हैं. इन रूमालों को सभा-स्थल के बीच और दोनों किनारों से आगे बढ़ रही औरतों ने अपने माथे पर बाँध लिया है: अपने पैरों के हलके शोर के साथ आगे बढ़ते हुए प्लाज़ा दे मायो की माऐं राजदूत को घेरे हुए अंगरक्षकों को घेर रही हैं. अब वे सीधा राजदूत को देखती हैं. वे सिर्फ उनकी ओर सीधे देख रही हैं. राजदूत आँखें खोलते हैं, अपनी तरफ बिना पलक झुकाए देख रही इन सारी औरतों को देखते हैं और थूक गटकते हैं. इस बीच पुरोहित का आगे बढ़ा हाथ प्रसाद के गोल टुकड़े को अपनी उँगलियों में फँसाए हवा में ही ठहर कर रह गया है.
पूरा चर्च इन औरतों से भर गया है. अचानक यहां न तो संत दिखते है और न व्यापारी. यहां कुछ भी नहीं है सिवाय बिन बुलाए आ धमकी औरतों के इस झुण्ड के. काली पोशाकों और सफेद रूमालों वाली. सब चुप, सब खड़ी.
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लेखक के बारे में
एदुआर्दो गालेआनो (3 सितंबर, 1940-13 अप्रैल, 2015, उरुग्वे) अभी के सबसे पढ़े जाने वाले लातीनी अमरीकी लेखकों में शुमार किये जाते हैं। साप्ताहिक समाजवादी अखबार एल सोल (सूर्य) के लिये कार्टून बनाने से शुरु हुआ उनका लेखन अपने देश के समाजवादी युवा संगठन से गहरे जुड़ाव के साथ-साथ चला। राजनीतिक संगठन से इतर भी कायम संवाद से विविध जनसरोकारों को उजागर करना उनके लेखन की खास विशेषता रही है। यह 1971 में आई उनकी किताब लास बेनास आबिएर्तास दे अमेरिका लातिना (लातीनी अमरीका की खुली धमनियां) से सबसे पहली बार जाहिर हुआ। यह किताब कोलंबस के वंशजों की ‘नई दुनिया’ में चले दमन, लूट और विनाश का बेबाक खुलासा है। साथ ही,18 वीं सदी की शुरुआत में यहां बने ‘आज़ाद’ देशों में भी जारी रहे इस सिलसिले का दस्तावेज़ भी। खुशहाली के सपने का पीछा करते-करते क्रुरतम तानाशाहीयों के चपेट में आया तब का लातीनी अमरीका ‘लास बेनास..’ में खुद को देख रहा था। यह अकारण नहीं है कि 1973 में उरुग्वे और 1976 में अर्जेंटीना में काबिज हुई सैन्य तानाशाहीयों ने इसे प्रतिबंधित करने के साथ-साथ गालेआनो को ‘खतरनाक’ लोगों की फेहरिस्त में रखा था। लेखन और व्यापक जनसरोकारों के संवाद के अपने अनुभव को साझा करते गालेआनो इस बात पर जोर देते हैं कि “लिखना यूं ही नहीं होता बल्कि इसने कईयों को बहुत गहरे प्रभावित किया है”।
अनुवादक का परिचय : पी. कुमार. मंगलम जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय से लातिनी अमरीकी साहित्य में रिसर्च कर रहे हैं .
क्रमशः