समकालीन समाज भूमंडलीकरण के प्रभाव में पल बढ़ रहा है। इसी कारण इसके सरोकार बदल गए हैं। इसे मूल्य-परिवर्तन भी कहा जा सकता है। परंपरागत मूल्यों से आज के मूल्य एकदम बदले हुए हैं। भाव-बोध बदल गया है। जाहिर है कि जब भाव बदला है तो भाषा भी बदलेगी। व्यक्ति और समाज के इस बदलते भाव-बोध को उसकी (साहित्यिक-भाषिक) अभिव्यक्ति से समझा जा सकता है।
जब हम समकालीन कहानी कर बात करते हैं तो उसका कथा-पटल बेहद विस्तृत मिलता है। उसमें स्त्री, दलित, आदिवासी और अन्य अस्मिताओं को स्थान मिल रहा है। बात जब आलोच्य कथाकार उदय प्रकाश की आती है तो उनके लेखन में भूमंडलीकरण से उपजी स्थितियो को बखूबी देखा जा सकता है।
आज का समय बड़ी तेज़ी से बदल रहा है। समाज में हो रहे परिवर्तन को साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत किया जा रहा है। आज हम भूमंडलीकरण के दौर में हैं। जिसके कारण विज्ञान और प्रौधोगिकी के क्षेत्र में नए-नए आविष्कार हो रहे हैं। दुनिया में हो रही घटनाओं का ब्यौरा जल्द ही हम तक पहुँच जाता है। साहित्य भी इन बदलावों से अछूता नहीं रहा है। साहित्यिक विधाओं में व्यक्त संवेदना से यह बदलाव नज़र आ जाता है। जिसका श्रेय सूचना तंत्र को जाता है। इन सब बातों की गहन पड़ताल हमे उदय प्रकाश की कहानियों में भी मिलती है।
उदय प्रकाश की कहानियों का विषय विविध रहा है। उनकी कहानियों को पढ़ते हुए एक ’सस्पेंस’ बना रहता है। अपनी कहानियों में वह हाशिये के लोगों से लेकर पूंजीपति वर्ग की बात करते हैं। उन्होंने हिन्दी कहानी के नैरेटिव स्ट्रक्चर (कथ्य संरचना) और सरोकारों को बदल दिया है। उनकी कहानियों में पात्र खुद ही संवाद करता है और कहानीकार कम ही दिखाई पड़ता है। जबकि पहले की कहानियों में कहानीकार ज्यादा मौजूद रहते थे और पात्र कम संवाद करते थे। उनके नैरेशन से पाठक उद्वेलित हो जाता है। जैसे: ’हीरालाल का भूत’, ’और अंत में प्रार्थना’, ’छप्पन तोले का करधन’, ’पॉल गोमरा का स्कूटर’, ’दिल्ली की दीवार’ और मैंगोसिल आदि उदय प्रकाश के विषय में कहा भी गया है कि “सरोकारो का अलग होना किसी अलग दुनिया से साक्षात्कार कराने से नहीं है बल्कि अलग तरीके से हाशिये की दुनिया की तकलीफ़ो को समझने से है। भ्रष्टाचार के बारे में हम जानते हैं पर उसके स्वरूप और प्रक्रिया को नहीं पहचान पाते जिसके चलते भ्रष्टाचार की जड़े समाज में इतनी गहरी हैं।’’ दरअसल वैश्वीकरण के दौर में घूस लेने-देने में फर्क नहीं आया है बल्कि ’ब्लैक मनी’ (अन-अकाउंटेड मनी) के इस्तेमाल में भी फर्क नहीं आया है। इसका उदाहरण ’दिल्ली की दीवार’ कहानी है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय समाज निरंतर परिवर्तनशील रहा है। परंपरागत भारतीय समाज में राजनीतिक-सामाजिक संस्कृति की रचना हुई थी। लेकिन 1990 के दौर में यह राजनीतिक और सामाजिक संस्कृति बदल गई है। “चार दशक से ज्यादा की अवधि में जिस राष्ट्रीय राजनीतिक-सामाजिक संस्कृति की रचना हुई थी, एक पल में उसकी बागडोर ऐसे हाथों में चली गयी जो शुद्ध रूप से भारतीय हाथ नहीं थे। यह भारत के ग्लोबलाइज़ेशन यानी भूमंडलीकरण की शुरुआत थी।’’
देखा जाए तो भूमंडलीकरण और वैश्वीकरण नाम ज्यादा चर्चित हैं। डॉ. अमरनाथ ने भूमंडलीकरण की प्रक्रिया के पीछे अमेरिका का हाथ माना है। उनके अनुसार “यह शब्द बीसवीं सदी के अंतिम दशक में व्यापक रूप में प्रयोग में आया 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद जब दुनिया एक ध्रुवीय हो गयी और अमेरिका के नेतृत्व में बहुराष्ट्रीय कंपनियो ने दुनिया के, खासतौर पर तीसरी दुनिया के बाज़ार पर कब्ज़ा जमाना शुरू किया तो इसे न्याय संगत ठहराने के लिए भूमंडलीकरण जैसा आकर्षक नाम दिया गया।’’ भूमंडलीकरण का अर्थ है कि विश्व की सभी अर्थव्यवस्थाओं को जोड़ देना और एक नई भूमंडलीय अर्थव्यवस्था और संस्कृति का निर्माण करना। इससे उपभोक्तावादी संस्कृति और मूल्यो का जन्म हुआ।
1990 के बाद विश्व में अनेक घटनाएँ घटी। जिसमे एक मुख्य सोवियत संघ का पतन होना भी था। विचारों, सोच, रिश्तों, पहनावे तक में बदलाव दिखाई देने लगे। आस-पास के परिवर्तन का असर भाषा पर भी पड़ा। भाषा में से शिष्टता धीरे-धीरे गायब होने लगी। मुश्किल से प्रयोग होने वाले शब्द अब रोज़मर्रा की ज़िंदगी में प्रयोग होने लगे।
वैश्वीकरण के दौर में ‘भाषा’ का संकट गहराता जा रहा है। साहित्य, आम-बोलचाल की भाषा और समाचार पत्रों की भाषा बदलती जा रही है। जहाँ शुद्ध हिन्दी या फिर अंग्रेजी का इस्तेमाल होता था। आज उसकी जगह ‘हिंगलिश’ ने ले ली है। प्रत्येक भाषा का मर्म, अपनत्व खोता जा रहा है। पुष्पपाल सिंह का मत है कि ‘‘भाषाई परिनिष्ठता, शुचिता का प्रश्न यहाँ बेमानी हो गया है, भाषाई शुचिता की दीवारें तेजी से गिरती जा रही हैं। यहाँ यह विचारणीय नहीं है कि बाज़ार की शक्तियों ने हिन्दी को कितना ऊर्जावान और सक्षम-सशक्त किया है, चिंता का विषय यह है कि भूमंडलीकरण की इस प्रक्रिया ने जनभाषाओं और बोलियों को हाशिए पर डालकर उन्हें विलुप्ति की ओर अग्रसर किया है। प्रांतीय भाषाओं की भी स्थिति यही है, उनका अधिकाधिक अंग्रेजीकरण हो रहा है। हिन्दी और शेष प्रांतीय भाषाओं की जातीय अस्मिता और चरित्र की निजता विलुप्ति की प्रक्रिया में है।’’ हाल के दिनों में आदिवासी बहुल क्षेत्रों से किसी भाषा-भाषी के मरने के साथ उसकी भाषा के भी मर जाने की खबरें आई हैं। यह भूमंडलीकरण का ही प्रभाव है कि हम भाषा-भाषी को भी लाभ व उपयोगितावादी नजरिये से देखते हैं। इस बदलाव को आज के साहित्य में देखा जा सकता है। ऐसा नहीं है कि यह भाषागत बदलाव सिर्फ उदय प्रकाश के यहाँ दिखाई देते हैं, अन्य कथाकारों के यहाँ भी दिखाई देते हैं – मनोहर श्याम जोशी, काशीनाथ सिंह, अलका सरावगी, प्रभा खेतान, सुरेन्द्र वर्मा, अखिलेश, संजीव आदि। लेकिन उदय प्रकाश इन सबसे अलग अपनी छवि निर्मित करते हैं। हाशिए के लोगों के जीवन को उनकी शैली में ही अभिव्यक्त करते हैं। ऐसा लगता है कि आम और खास आदमी उन सब को अपनी आँखों से देख पा रहा है, समझ पा रहा है।
उदय प्रकाश की कहानियों में भूमंडलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण, बाज़ारवाद, उपभोक्तावाद और सूचना-तंत्र से उपजी स्थिति और उसके प्रभावों को केंद्र में रखा जाता रहा है। पर उन्होंने हाशिये के लोगों का नारकीय जीवन भी प्रस्तुत किया है। समाज के ठेकेदारों ने गरीब लोगों का जमकर शोषण किया। इस शोषण का शिकार अलग से बनती है ‘स्त्री’। ऐसा ही कुछ उनकी कहानी ‘मैंगोसिल’ में दिखाई देता है। अमानवीय स्थितियों, व्यक्ति विरोधी व्यवस्था के वीभत्स जंजाल में से कुछ मानवीय, कुछ सुंदर, कुछ जीवनपरक खोजने का प्रयास मैंगोसिल कहानी में दिखाई पड़ता है।
मैंगोसिल, महाराष्ट्र के दलित चन्द्रकान्त थोराट की कहानी है। चन्द्रकान्त, 55 साल के बिल्डर के यहाँ गाड़ी चलाता है। दरोगा के कहने पर बिल्डर, शोभा के घर उसे अपनी हवस का शिकार बनाने के लिए जाता है। चन्द्रकान्त को इस बात का अंदाजा ही नहीं है कि उसके (शोभा) साथ क्या क्या होता है? शोभा अपने पति के साथ सारणी में रहती थी। रमाकांत (शोभा का पहला पति) इतना नीच आदमी था कि अपनी पत्नी शोभा के लिए दलाल ढूंढता था। अपनी पत्नी की दलाली करने से उसे कुछ रुपये और शराब पीने को मिल जाती थी। पुलिस के दरोगा की नजर शोभा पर पड़ गई। जिसके बाद शोभा कि जिंदगी नरक से भी भयावह बन गई। हर रोज शोभा के साथ बलात्कार होता, जिसमें उसका पति भी शामिल होता। एक दिन दरोगा अपने साथ अधेड़ बिल्डर को शोभा के घर लाता है। वह रात शोभा के लिए भयावह और यंत्रणादायक होती है। इन सब से परेशान होकर शोभा, बिल्डर के ड्राइवर चन्द्रकान्त के साथ भाग जाती है।
कहानी में नया मोड़ आता है। शोभा, चन्द्रकान्त की पत्नी बनकर उसके साथ रहती है। भयावह और यंत्रणा से भरी जिंदगी जीने के बाद, वह माँ बनने का सुख बहुत देर से पाती है। शोभा को दो बच्चे सूर्यकांत और अमरकान्त होते हैं। कहानी के अंत में मैंगोसिल नाम की बीमारी के कारण परेशान होकर सूर्यकांत आत्महत्या कर लेता है।
स्त्री के शोषण की इतनी वीभत्स कहानी, बहुत कम ही दिखाई पड़ती है। शोभा के साथ जो दुर्व्यवहार किया जाता है वह उपभोक्तावादी संस्कृति का चरम रूप है। जहाँ स्त्री एक वस्तु है। ‘जिसका इस्तेमाल करो और नष्ट कर दो।’ शोभा की स्थिति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है ‘‘मैली-गँधाती बनियान से मटके की तरह बाहर निकली दरोगा की रोयेंदार रीछ जैसी तोंद और पसीने तथा मैल से चीकट हो चुके उसके जांघिये के बीच धंसा हुआ शोभा का सिर। शोभा की हर सांस के साथ मोहल्ले की नालियों से भी विकट बदबू अंदर जाती और वह बहुत मुश्किल से वहीं, दरोगा की जांघ पर, उल्टी करने से खुद को रोकती। दरोगा दारू पीता हुआ उसके बालों को सहलाता जाता और मुंह से ऐसी आवाज निकालता जैसे उसे नींबू की खटास और हरी मिर्च के तितास का स्वाद एक साथ मिल रहा हो। घर का दरवाजा खुला रहता था और देर रात बाहर गली में निकलने वाले अक्सर यह दृश्य देखते। बल्कि घर के सामने खाली पड़ी जगह, जहाँ लोग दिशा – फरागत के लिए जाया करते थे, वहाँ अंधेरे में, पुलिस के दलाल रमाकांत के घर पर, आधी रात चलने वाली इस जिंदा ब्लू फिल्म को देखने वाले कम उम्र शोहदों की भीड़ लग जाती।’’ दरोगा, बिल्डर, रमाकांत द्वारा शोभा का शोषण पहली, दूसरी दुनिया का शोषणकारी द्वन्द्व और उससे पैदा हुई तीसरी दुनिया (सूर्यकांत $ मैंगोसिल) को प्रतीकात्मक रूप में देखा जा सकता है। यहाँ तीसरी दुनिया के निर्माण की प्रक्रिया को भी समझा जा सकता है कि किस प्रकार शोषण से शोभा और सूर्यकांत की दुर्गति होती है ऐसा एक बहुत बड़ा वर्ग हमारे समाज में पनपता व बढ़ता जा रहा है।
भूमंडलीकरण के कारण नैतिकताएँ, मर्यादाएँ टूट रही हैं। जहाँ सिर्फ स्वार्थ, लाभ और भ्रष्टाचार का ही घिनौना रूप दिखाई देता है। जिस समाज में पति ही पत्नी के लिए दलाल ढूंढ रहा हो, वह समाज क्या नवयुवकों को शिक्षा देगा? जहाँ रक्षक (पुलिस) ही भक्षक हो, वहाँ स्त्री कैसे अपने वजूद की रक्षा कर पाएगी? उसकी अस्मिता और पहचान पर लगातार खतरा मंडराता रहता है। ‘‘भूमंडलीकरण वस्तुतः आर्थिक जगत में पनपने वाला जंगल राज है। यह समाज में आर्थिक स्वरूप के अनुरूप वर्गभेद, विषमता, वर्ग-संघर्ष, कटुता, शत्रुता पैदा कर रहा है। भौतिकतावादी सभ्यता का विकास कर रहा है। इसका मुख्य लक्ष्य ही भौतिक सुख का भोग है।’
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उदय प्रकाश समाज का ऐसा घिनौना चेहरा हमारे सामने लाते हैं, जो पाठक के अन्तर्मन को झकझोर के रख देता है। भूमंडलीय यथार्थ एवं भाषा का एक सशक्त उदाहरण कहानी में इस प्रकार हैं बिल्डर और दरोगा ने शोभा के साथ अप्राकृतिक काम किया और बिल्डर ने उसके रेक्टम में बियर की बोतल घुसेड़ दी। दरोगा ने हंसते हुए पूछा – ‘ये क्या कर रहे हो?’ तो बिल्डर ने कहा था – ‘अरे यार पीछे ड्रिल करके जरा बोर बड़ा कर लेने दे, तभी तो नीचे मोटर फिट होगा! साला मेरा बीस हॉर्सपावर का जेनुइन क्रांपटन का मोटर है।’ और ठहाके मार कर हंसने लगा था। शोभा की सांसे रुक चुकीं थीं, वह लहूलुहान थी। कमरे के फर्श पर उसका खून फैल गया था, दरी भीग गई थी और मानिटर पर ब्लू-फिल्म चल रही थी। बेहोशी ने शोभा को उन पीड़ाओं के अनुभव से बचाया, जिनसे होश में रहने पर उसे गुजरना पड़ता। उस रात जब दरोगा और बिल्डर गये, तब सुबह के चार बजने वाले थे। असहनीय दर्द के बीच, बेहोशी टूटने पर शोभा ने जब अपने कपड़े पहनने और अपनी देह में लिपटा खून और वीर्य धोने के लिए उठना चाहा, तो उसने पाया कि रमाकांत उसके ऊपर चढ़ा हुआ है।’’ कहानी का यह प्रसंग हमें भूमंडलीय यथार्थ से रूबरू कराता है। जिसमें इसका साथ ‘भाषा’ देती हैं। जैसे-थूक, लार, वीर्य, खून, ब्लू-फिल्म आदि जैसी शब्दावली जो अब तक की हिन्दी कहानी में वर्जित मानी जाती थी। ‘‘भाषा केवल विचार, भावना, इच्छा एक दूसरे को विदित कराने का व्यावहारिक स्तर का संज्ञापन साधन नहीं। भाषा केवल अपनी-अपनी छोटी बड़ी अस्मिता जतन करने का सामाजिक प्रतीक नहीं। (मैं महाराष्ट्रीयन हूँ ऐसी छोटी-बड़ी अस्मिताएँ हो सकती हैं।) भाषा तो इन सबसे बढ़कर और अधिक कुछ है। भाषा मानव की काव्यात्मक, आध्यात्मिक, वैचारिक सर्जनशीलता को खिलाने का माध्यम भी है। भाषा के वैश्विकीकरण की क्रिया में यह महत्त्वपूर्ण बोध खोना नहीं चाहिए।’’ अशोक केलकर जी ने अपने लेख ‘भाषा का वैश्विकीकरण और वैश्विकीकरण की भाषा’ में ठीक कहा है, लेकिन भूमंडलीकरण के दौर में भाषा का बोध खत्म होता जा रहा है। जहाँ सिर्फ भाषा को ईजी और फूहड़ बनाने की प्रक्रिया जारी है। समाज में ऐसी घटनाएँ होती रहती हैं। आए दिन अखबारों, टी.वी. चैनलों पर बलात्कार की खबरें आती हैं। कहानीकार अपने समय और समाज को संबोधित, रचनाक्रम करता है। जिसमें उदय प्रकाश काफी हद तक सफल होते हैं।
भूमंडलीय दृष्टिकोण को जयनन्दन की कहानी ‘विश्व बाज़ार का ऊँट’ से भी समझा जा सकता है। जहाँ उसके भाषाई पहलू खुलकर सामने आते हैं। किस तरह भूमंडलीकरण के कारण समाज का दोहन हुआ है और हो रहा है। जहाँ अब पीढ़ी-दर-पीढ़ी अंतर नहीं दिखाई देता, बल्कि कुछ सालों के फासले ही इस अंतर को बढ़ा देते हैं। युवा पीढ़ी पर उपभोक्तावादी समाज और बाज़ार का विशेष प्रभाव पड़ा है। आज कोई भी सूचना आप को तुरंत मिल जाएगी। जिसके कारण आज जैसे बच्चों का बचपन खोता जा रहा है। पहचान का संकट और भाषाई अस्मिता आज खतरे में दिखाई देती है। ‘पॉल गोमरा का स्कूटर’ में भाषाई अस्मिता को बखूबी देखा जा सकता है। भूमंडलीय यथार्थ को समझने के लिए उसी भाषा का प्रयोग किया जाना चाहिए, जो वर्तमान दौर में बोली जा रही है। ‘मैंगोसिल’ कहानी में लेखक ने उसी यथार्थ को पकड़ने की कोशिश की है। कहा जा सकता है कि ‘‘ ‘वारेन हेस्टिंग का साँड’, ‘पॉल गोमरा का स्कूटर’, ‘और अंत में प्रार्थना’, ‘मैंगोसिल’, ‘मोहनदास’ और ‘पीली छतरी वाली लड़की’ ये कहानियाँ साहित्य में नव औपनिवेशिक परिवेश, पात्र, अस्मिता और आत्मनिर्वासन का द्वंद, इतिहास और आख्यान का जटिल तनाव, संप्रेषणीयता और वाक्य संरचना, यथार्थ कल्पना और फैंटेसी, आख्यान के पारंपरिक स्वरूप तथा बदलते यथार्थ के संदर्भ में नयी संरचना की चुनौतियाँ, भाषा में परिवर्तन के साथ ही नये संदर्भों की बहुलार्थी भाषा को लेकर हमारे समय के यथार्थ को पकड़ती है, अभिव्यक्ति करती है, खंडित करती है, और उसे गढ़ती भी है।’’
इस प्रकार हम कह सकते है कि भूमण्डलीकरण ने हमारे भाव, भाषा और बोली को भी बदल कर रख दिया है। बाज़ार ने ‘भाषा’ रूपी संस्कार को बुरी तरह बदल दिया हैं। बाज़ार ने जिस नई भाषा को गढ़ा है, उसका असर समाज पर भी पड़ा है, उसे कथा साहित्य के माध्यम से बखूबी समझा जा सकता है। कथाकार उदय प्रकाश ने अपने कथा साहित्य में उस बदलती हुई भाषा पर फोकस किया है तथा भूमण्डलीय यथार्थ से हमारा परिचय रचनात्मक स्तर पर करवाया है।
संदर्भ:
1शीतलवाणी, त्रैमासिक पत्रिका, संपादक-डॉ. वीरेंद्र आज़म, अगस्त-अक्टूबर 2012, सहारनपुर, पृ. 22.
2भारत का भूमंडलीकरण, संपादक-अभय कुमार दुबे, वाणी प्रकाशन, संस्करण-2008, पृ. 21.
3हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, डॉ. अमरनाथ, राजकमल प्रकाशन, पहला संस्करण-2009, पृ. 372.
4भूमंडलीकरण और हिन्दी उपन्यास, पुष्पपाल सिंह, राधाकृष्ण प्रकाशन, पहला संस्करण-2012, पृ. 72- 73.
5मैंगोसिल कहानी संग्रह, उदय प्रकाश, पृ. 91.
6 अक्षर पर्व, साहित्यिक-वैचारिक मासिक पत्रिका, संपादक-सर्वमित्रा सुरजन, दिसम्बर-2014, पृ. 66.
7मैंगोसिल कहानी संग्रह, उदय प्रकाश, पृ. 92.
8आलोचना, त्रैमासिक पत्रिका, प्रधान संपादक-नामवर सिंह, संपादक-परमानंद श्रीवास्तव, अप्रैल-जून 2002, पृ. 89.
9सृजनात्मकता के आयाम, उदय प्रकाश पर एकाग्र, संपादक-ज्योतिष जोशी, नयी किताब प्रकाशन, प्रथम संस्करण-2013, पृ. 87.
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