मृणाल वल्लरी
राष्ट्रगान के वक्त खड़े होने की ड्यूटी पूरी करने के बाद जब आप खींचती हुई एक खास जमीनी मंचीय आवाज के साथ दुष्यंत कुमार की पंक्तियों से रूबरू होते हैं, तभी एक सोंधी खुशबू से सराबोर सिनेमा का अंदाजा लगा लेना चाहिए। तो इसी के साथ खुश मेरा मन भी ढेर सारी उम्मीदों के साथ परदे पर टिक गया था। शुक्रवार को सिनेमा घरों में आने के बाद महज तीन दिनों के भीतर बहुत सारे लोगों ने इतना लिख दिया था कि शायद इससे पहले किसी फिल्म के साथ ऐसा नहीं हुआ हो। शुरुआती सीन पर्दे पर आने से पहले ही आंखों के सामने तैरने लगा। ‘अनारकली आॅफ आरा’ के प्रमोशन के वक्त से ही ‘मोहल्ला लाइव’ पर चला सिनेमा का डिबेट याद आ रहा था। अनुराग कश्यप की शैली और गालियों पर चला विमर्श। उसे याद करते हुए इस फिल्म के नाम और उसके कॉन्सेप्ट का अंदाजा लगा कर थोड़ा पूर्वग्रह से ग्रसित थी। लग रहा था कि अभी तक फेसबुक पर लिखा गया जो पढ़ा वह महज दोस्तों की हौसलाअफजाई तो नहीं थी। फिल्मों में अनुराग कश्यप किस हद तक स्त्री विरोधी दिखने लगते हैं, वह सोच रही थी।
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अनारकली की भूमिका: स्वरा भास्कर |
बल्कि ‘रिवोली’ में शो के लिए अंदर जाते वक्त भी पूर्वग्रह बरकरार था। इसके पहले ‘मिस टनकपुर हाजिर हो’ ने वैसे भी पत्रकारों पर संदेह पैदा कर दिया था कि भदेसपन के नाम पर खिलवाड़ करके खुद को बचा ले जाने और उसके जरिए एक व्यवस्था को आगे बढ़ा देने का खेल कैसे किया जाता है। दरअसल, जब आप पहले ही घेरने लायक, आलोचना करने लायक खोजने का मूड बना कर बैठ जाएं और बाद में जीवंत से सेट के साथ हर दृश्य पर मुग्ध होते जाएं तो क्या हालत होती है, मैं ‘अनारकली आॅफ आरा’ देखते हुए हर अगले मिनट महसूस कर रही थी। दुख हुआ जब बगल में बैठे दो लोग यह कह कर उठ कर चले गए कि ‘अरे… यह तो भोजपुरी फिल्म है!’ मन किया कि उनकी बांह पकड़ कर बैठा दूं कि भाई, थोड़ी देर बैठ जाओ!
इस फिल्म पर इतने सारे लोगों ने इतना कुछ लिख दिया है कि सोचती हूं कि अब मैं क्या लिखूं। यह क्या कम है कि अंदाज के उलट ‘अनारकली आॅफ आरा’ कहीं से भी स्त्री विरोधी नहीं होती है, बल्कि स्त्री की जिंदगी पर अपने हक के जयकारे के साथ खत्म कर होती है। फिल्म की शुरुआत का गाना जहां जिंदगी छीन लेता है तो इसका आखिरी गाना और उसका अंत अपनी जिंदगी पर अपने हक का दावा स्थापित करता है। ‘जन -गन- मन’ पर तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद से सभी खड़े होने ही लगे हैं, मेरे सामने की लाइन में जो छह-सात महिलाएं बैठी थीं, आखिरी सीन में अनारकली का लहंगा उड़ते ही वे सभी खड़े होकर देर तक ताली बजाती रहीं। फिल्म के साथ यह दृश्य मेरे लिए नहीं भुला सकने वाला दृश्य रहा। पूरी तरह कमर्शियल ‘चक दे इंडिया’ के बाद हॉल में मेरा इस तरह का यह दूसरा अनुभव था।
महानगरों के हिसाब से कम से कम गाने के सब-टाइटल दिए जाते तो अच्छा रहता। उन महिलाओं के बीच बातचीत से लग रहा था कि उन सबने ‘अब त गुलमिया के ना ना ना…’ को ठीक से नहीं समझा। और अगर ‘अपनी रे देहिया की हम महरनिया’ को नहीं समझा तो फिर उनके लिए यह क्लाइमेक्स तो आम हिंदी फिल्मों की तरह ही था। भोजपुरी के शब्दों के कारण बहुत से महानगरीय दर्शक इस गाने का असल संदेश नहीं समझ पाए। कुछ और भी जगह लोग शब्दों को लेकर उलझ रहे थे और एक-दूसरे से पूछ रहे थे। लेकिन अनारकली जो थी, उससे अलग शक्ल में उसे दिखाया भी कैसे जा सकता था!
बहरहाल, दुष्यंत कुमार की वे शुरुआती पंक्तियां और हीरामन। अनारकली से लेकर कोई और… दिल्ली से लेकर पटना और आरा तक। हर स्त्री को एक हीरामन जरूर मिलता है जो उसकी जिंदगी का सफर आसान करता है! और फिर हालात के सामने लाचारी की राह में वह छूट भी जाता है। यह हीरामन उसका प्रेमी या पति या हमेशा साथ रहने वाला दोस्त नहीं होता है। इस हालत को कौन और कब समझेगा कि इस हीरामन के नाम वह अपनी लिखी किताब समर्पित नहीं कर सकती है, सार्वजनिक मंच पर उसका नाम लेकर गीत नहीं गा सकती है, वाट्स ऐप या फेसबुक पर उसकी प्रोफाइल नहीं डाल सकती है… मोबाइल या किसी और पासवर्ड में उसके नाम के शब्द नहीं होते हैं…!
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नायिका स्वरा भास्कर और निदेशक अविनाश दास |
दरअसल, अनारकली अगर सामंती पितृसत्ता के खिलाफ जंग का चेहरा है तो हीरामन उस पुरुष का चेहरा है जिसमें स्त्री भी समाई होती है। पुलिस के सामने आत्मसमर्पण कर दिल्ली से वापस जाती अनारकली और छत पर रोता हुआ हीरामन। हीरामन के इसी आंसू को तो अनारकली अपनी जमा-पूंजी कहती है…‘आपके जइसा साधु इंसान मिला… यही हमरी जमा-पूंजी है!’ घर की दहलीज से बाहर निकली हर स्त्री के पास ऐसी एक जमा-पूंजी जरूर होती है। एक रोता हुआ हीरामन सामने वाली स्त्री को कितना मजबूत कर देता है! अनारकली के प्रतिरोध का स्वर का आग बन जाना हीरामन के आंसू के बिना अधूरा रहता!
सिनेमा हॉल में मौजूद अमूमन हर स्त्री की आंखें अपनी जिंदगी में कभी मौजूद रहे अपने-अपने हीरामन को याद कर जरूर गीली हुई होंगी। हमारे उस हीरामन को, जो कहीं छूट गया है, फिर से आंखों से निकालने के लिए थैंक्यू अविनाश दास। चुनावी नतीजों और पिछले कुछ समय से बने माहौल के कारण जो एक डिप्रेशन की स्थिति बनी थी, ‘मोरा पिया मतलब का यार…’ जैसे बड़े महत्त्व के गीतों से लैस ‘अनारकली आॅफ आरा’ देखने के बाद दिमाग उससे भी कुछ हल्का हुआ। हीरामन और अनारकली थोड़ी-सी जिंदगी की उम्मीद जगा गए, थोड़ा रुला कर बड़ा भरोसा पैदा कर गए…!
लेखिका पत्रकार हैं , जनसत्ता से संबद्ध . संम्पर्क : mrinaal.vallari@gmail.com
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