सेक्स में ओर्गैज्म की प्राप्ति, सेक्स का पोजीशन या सेक्सुअलिटी की दृष्टि से उत्पीड़ित के भाव से मुक्ति जैसे मुद्दों से ज्यादा जरूरी मुद्दे जरूर हो सकते हैं मातृत्व मृत्यू दर का बढ़ना, स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव, भ्रूण ह्त्या, आनर कीलिंग, शिक्षा या जाति-वर्ग आधारित आधारित भेदभाव के मुद्दे, लेकिन इन चिंताओं से मुक्त एक समूह के लिए सेक्स में ओर्गैज्म की प्राप्ति, सेक्स का पोजीशन या सेक्सुअलिटी की दृष्टि से उत्पीड़ित के भाव से मुक्ति भी एक गहरा कंसर्न है और वह इस कंसर्न को जाहिर करने के अधिकार से वंचित नहीं हो सकता. और यह भी सच है कि यह कंसर्न जेंडर विभेद से पीड़ित हर स्त्री का होगा, जब विभेद और उत्पीडन के दूसरे मसले जब हल भी हो जायेंगे, क्योंकि सेक्सुअलिटी जेंडर भेद का मूल आधार है.
लक्ष्य समूह
ये बातें इसलिए कि पिछले दिनों नीलिमा चौहान की ‘वाणी प्रकाशन’ से आई किताब ‘पतनशील पत्नियों के नोट्स’ को लेकर एक समूह हाय-तौबा कर रहा है, वह इस किताब को साहित्य और विमर्श की अगंभीरता का एक नमूना मान रहा है. इसे सॉफ्ट पोर्न तक कहा जा रहा है, तो कई आलोचक प्रकारंतर से इसे स्त्री-विरोधी भी बता रहे हैं. ऐसा भी नहीं है कि प्रकाशन के बाद इस किताब ने सिर्फ तौबा-तौबा ही बटोरे हैं, बल्कि कई प्रशंसात्मक टिप्पणियाँ और आलोचना मेरी नजरों से भी गुजरे. किताब का आक्रामक प्रचार भी किया प्रकाशकों ने. इस दोहरे वातावरण में मैं यह किताब पढ़ रहा हूँ. हालांकि पूर्व की टिप्पणियाँ या आलोचनायें पूर्वग्रह निर्माण के लिए काफी होती हैं, लेकिन आलोचना कर्म के लिए उनका अपना महत्व भी होता है.
उर्दू की रवानगी वाली हिन्दुस्तानी भाषा( हिन्दी नहीं) का मिजाज आपको यदि बाँध लेता हो, इश्मत चुगताई के कहन का चुटीलापन यदि आपको प्रिय रहा हो और 19वीं सदी की कुछ महत्पूर्ण किताबों, मसलन सीमंतनी उपदेश और स्त्री-पुरुष तुलना की शैली, उसके विमर्श के विषय पुरुषवादी जड़ता को तोड़ने और स्त्रियों के मन-परत पर बैठे अनुकूलन से उन्हें सहज मुक्त करने की दिशा में कारगर लगते हों, तो यह किताब आपको उसी कड़ी में दिखेगी- उसका आधुनिक वर्जन. इस किताब का लक्ष्य समूह मध्यवर्गीय स्त्रियाँ हैं, इसलिए इससे कुछ अधिक की अपेक्षा रखना किताब के साथ ज्यादती होगी.
मातृसत्तातमक व्यवस्था स्त्रीवादियों का लक्ष्य नहीं है : संजीव चंदन
अनुकूलन पर प्रहार
यह किताब सबसे पहले तो अनुकूलन पर प्रहार करती है- मध्यवर्गीय विवाहिता स्त्री के अनुकूलन पर. अनुकूलन का परिवेश, क्षेत्र रसोई घर से लेकर फेसबुक पर उपस्थिति तक में है- जहां, स्त्रियाँ, पत्नियां पति या पुरुष के आईने से अपना स्व निर्धारित कर रही हैं. हिन्दी साहित्य में जैनेन्द्र की पत्नी से लेकर प्रेमचंद की बड़े घर की बेटियों का बड़ा दबदबा रहा है- ‘पतनशील पत्नियों के नोट्स’, इस दबदबा को अतिक्रमित कर रही है-किताब में शामिल नोट्स सचेत करते हैं कि इन पत्नियों और बड़े घर की बेटियों के मोहल्ले में ही ‘हाडा रानी’ भी रहती है-जो लड़ाई के मैदान में जाते अपने पति को अपना सिर अर्पित कर देती है कि कहीं मोहपाश उन्हें हरा न दे. किताब में पहला ही शीर्षक नोट है ‘बीबी हूँ जी, हॉर्नी हसीना नहीं.’ घर-गृहस्थी में कैद स्त्री से पति चंचल और उन्मुख देह की चाह भी रखता है, मसालों के गंध और गृहस्थी की चिंताओं से थोड़ा अलग होकर जबतक की हॉर्नी हसीना की भूमिका में वह आती है, पति संतुष्ट हो चुका होता है. पत्नी के भीतर सुप्त स्त्री जाग्रत होकर फिर हताश हो जाती है: ‘हाय, हर बार ठीक उस वक्त, जब तुम किला फतह कर रहे होते हो, मैं बाँध के परे रह गई कसमसाती, प्यासी, मुरझाई नदी बनकर रह जाती हूँ. यह लो, एकबार फिर इस बेमकसद कवायद में हारी हुई हताश बीबी रह गई है और एक जमकर बरसा हुआ जिस्म दोबारा पति में तब्दील होकर, पीठ घुमाकर बेखबर पड़ा सोया है. उफ्फ, कैसी जहरीली नागन सी है ये रात, कितनी आवारा, कितनी बदचलन, कितनी खार खाई सी.’
पत्नी और स्त्री के दो राहे से गुजरती स्त्री ही अपनी कामनाओं के साथ ‘पतनशील पत्नी’ है. कामनाओं को मारकर वह मसालों का गंध समेटे पत्नी है और पतनशील होते ही वह स्त्री हो जाती है. ऐसा भी नहीं है कि कामनाओं और वासनाओं की अभियक्ति किसी नीलिमा चौहान का एकांगी स्वर भर है, या बाजार की मांग के पूर्ती के लिए किसी व्यापारी लेखिका का टूल भर( जैसा कि कुछ आलोचनाएँ कहने का प्रयास करती दिखी) . कामनाओं की सहज अभिव्यक्ति 19वीं सदी में समता का संघर्ष करती, लड़कियों के लिए स्कूल खोती, पठन-पाठन में लगी, प्लेग के बीमारों की सुश्रूषा करती सावित्रीबाई फुले के यहाँ भी है, यानी मुद्दों का चुनाव अनिवार्य रूप से मुक्ति संघर्ष को एकहरा नहीं करता. सावित्रीबाई फुले की एक श्रृंगार कविता पढी जा सकती है:
कितनी स्त्रीवादी होती हैं विवाहेत्तर संबंधों पर टिप्पणियाँ और सोच (!)
सुनहरी चंपा
जैसे मदन करता है आकर्षित अपनी प्रियतमा रति को,
वैसे ही चंपा जगाती है कवि की संवेदनाएं,
…वह देती है आनंद और ऐन्द्रिक सुख,
पारखी को करती है प्रसन्न और फिर नष्ट हो जाती है।
और यह भी
जाई फूल
…एकदम शुभ्र, नशीली खुशबू से लबरेज़,
वह अपनी कोमल चमक से करता है मुझे प्रफुल्लित।
उसकी मीठी मुस्कुराहट और शर्मीली नज़र,
मेरे दिमाग को ले जाती है किसी दूसरी दुनिया में।
अनुकूलन का एक दूसरा प्रसंग भी है-खुद को पुरुषों की नजर से देखना- आत्मसात किये जा चुके मेल गेज की जद्द में जीना और नियन्त्रण की लाठी को अपने सर पर लटकाये चलना: ‘जान लीजिये कि लडकी कभी अकेली नहीं होती, अपने गुसलखाने में भी नहीं, अपने कमरे के अपने बिस्तर पर भी नहीं, अपने घर से बाहर तो कभी भी नहीं. उसके भगवान, उसके बड़े-बुजूर्ग, उसके वहम, उसके सबक, उसकी फितरत, उसका आगा-पीछा हमेशा उसके साथ हुआ करता है.’
हमबिस्तर नहीं, हमदिवार
कई-कई नोट्स में लेखिका स्त्री-पुरुष के साझेपन के स्वांग की बखिया उधेड़ती जाती है. स्पष्ट करती है कि पति और पत्नी दो दुनिया हैं, एक से दिखते हुए- एक होने का स्वांग रचते हुए. स्वांग से अपने स्व को स्त्री तभी देख सकती है, जब वह आरोपित पत्नीत्व से पतित होती है- पतनशील होती है-अपनी इच्छाओं, वासनाओं, कामुकता, स्वप्नों और सहजताओं के पूरे पॅकेज के साथ पतनशील
स्व की पहचान, और अपनी एजेंसी का निर्माण
इस किताब के लेखन में कोई ख़ास योजना नहीं दिखती- प्रसंगवश लिखे गये छोटे नोट्स से यह किताब शक्ल लेती है. इस किताब के मूल में सोशल मीडिया का प्रभाव भी कहा जा सकता है, जिसके प्रभाव में लप्रेक नामक विधा में किताब लिखी गई और चर्चित हुई तो छः शब्दों में या ट्वीटर की शब्द संख्या में कहानियां लिखी गई. सोशल मीडिया ने गद्य लेखन की क्षणिकाओं, हाइकुओं को जन्म दिया. किताब में शामिल नोट्स भी सोशल मीडिया, खासकर फेसबुक के स्टेटस से पैदा हुए हैं. फिर भी एक ख़ास किस्म की सरोकारी योजना है किताब में शामिल नोट्स की, वह है स्त्रियों के अपने कर्तापन को पुख्ता करना-उत्पीड़ित भाव से मुक्ति का आयोजन करना. इस प्रक्रम में छेड़ी जाती स्त्री भी छेड़ने वाले के मर्दाने आनंद को रफूचक्कर कर देती है या रेडलाईट पर घूरती स्नेहिल आँखों को स्नेहिल प्रत्युत्तर दे देती है. नोट्स में स्त्री अपने ऊपर हर प्रकार के आरोपण को खारिज कर देती है, निर्मित छवि, स्टीरियोटाइप या वस्त्र से लेकर चाल-चलन, देह और देह के बाहर हर अभिव्यक्ति के लिए निर्धारित स्टीरियोटाइप को नकार देती है.
इस किताब के अपने मायने हैं, एक ख़ास पाठक वर्ग के लिए इसका व्यापक सन्दर्भ है. यह बोरियत भरी गद्यात्मकता से मुक्त होने के कारण रचनात्मक लेखन की किताब है और रचनात्मकता के लिए अनिवार्य कल्पनाशीलता या गल्पात्मकता की सीमा से थोड़ी दूरी पर ठहरकर ललित टिप्पणियों की किताब है- ऐसी ललित टिप्पणियाँ- जो पूरा-पूरा विमर्श रचती हैं.
इस किताब को इसलिए कभी न पढ़ें कि आपको इसमें घरेलूं हिंसा की जानकारियाँ देते लेख मिलेंगे या उससे संघर्ष के दास्तान, या यौन हिंसा के खिलाफ महिलाओं के संघर्ष का इतिहास मिलेगा या बस्तर से लेकर नंदीग्राम और मणिपुर संघर्ष करती स्त्रियों की कहानियां, या जाति उत्पीडन के हृदयविदारक प्रसंग. इसलिए भी कभी न पढ़ें कि यह आपको किसी किस्सागोई का आनंद देगी, या अच्छी कहानियां पढने की आपकी चाहत को पूरा करेगी, इस किताब को आप तब पढ़ें जब मध्यवर्गीय स्त्री के, जो रसोई घर में है, कालेजों में-विश्वविद्यालयों में पढ़ाती है, कॉर्पोरेट में या सरकारी संस्थानों में क्लर्की से लेकर अफसरी करती है- घर गृहस्थी संभालती है और फेसबुक ट्वीटर पर विचरण भी करती है-जिसका एक पति है और एक दोस्त, सिर्फ एक पति, या एक पति और प्रेमी भी, या सिर्फ एक प्रेमी, स्वत्व को समझना चाहते हों- बिना बोझिल विश्लेषणों के. और हाँ, अपराजिता शर्मा के द्वारा आवरण और इलस्ट्रेशन इस किताब की प्रस्तुति की एक ख़ास उपलब्धि है .
संजीव चंदन स्त्रीकाल के संपादक हैं
संपर्क :8130284314
स्त्रीकाल का संचालन ‘द मार्जिनलाइज्ड’ , ऐन इंस्टिट्यूट फॉर अल्टरनेटिव रिसर्च एंड मीडिया स्टडीज के द्वारा होता है . इसके प्रकशन विभाग द्वारा प्रकाशित किताबें ऑनलाइन खरीदें :
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