गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय में शोधरत है. . संपर्क: vikalpatel786@gmail.com मो: 07897551642
आदिवासी स्त्री
“वह सभ्य समाज की जड़ता को
सिंचित करती नक्कासी में,
न धर्म-भेद का ज्ञान उसे
न जाती मथुरा काशी में !
रहती सदैव वह कर्मरत
नक्कासी, शिल्प में हस्तरत,
मुख पे मनुष्यत्व का तेज लिए
रहती सदैव संघर्षरत !”
हिंदी साहित्य में आदिवासी स्त्री का सवाल
आदिवासी विकास का अद्वैत प्लम्बन
ऐसा क्यों है कि
हमारी बस्तियाँ
तुम्हारी आँख की किरकिरी
बनती जा रही हैं ?
हर ज़ानिब1
हमारे ही घर क्यों
दीखते हैं तुम्हें ?
तुमने जो विकास का
खाका तैयार किया है,
उसमें हमारा विकास
तो नदारद है ।
गर कुछ है तो
हमारे बीवी, बच्चों
की चीखें और
हमारी उम्मीदों का
टूटना है ।
तुम जानते हो
कि इन उम्मीदों और सपनों के
सिवा कुछ भी तो नहीं है
हमारे पास खोने को !
ये पहाड़, ये झरने
ये प्रकृति ही हमारी
धरोहर है !
क्या तुम इसे भी
छीन लेना चाहते हो ?
नहीं ! नहीं ! साहब !
यदि विकास हमारी
बस्तियों का उजड़ना है
तो नहीं चाहिए
हमें ये विकास !
क्योंकि इन बस्तियों
का उजड़ना
हमारी अस्मिता,
सभ्यता और
संस्कृति का उजड़ना है हम प्रकृति की
गोद में रहते आये हैं,
ये झरने ये पहाड़
हमें अत्यधिक प्यारे हैं ।
हमें अपने हाल
पे छोंड दीजिए साहब !
जाइए पहले विकास का
अद्वैत2 प्लम्बन3 तैयार कीजिए,
जिसमें विकास मुख्य धारा के
लोगों का नहीं, बल्कि हमारा हो
हमारी संस्कृति मरे नहीं,
हमारे बच्चे चीखें नहीं,
और हम
प्रकृति की गोद में मुस्कराएँ !”
1. दिशा 2. भेद रहित 3. तरीका
मैं स्त्री हूँ, जरा गौर से देखना मुझे
“मैं स्त्री हूँ,
जरा गौर से देखना मुझे…
देखना तुम
मेरे माथे की बिन्दिया को
जो मेरी है पर चमकती
किसी और के लिए !
मैं स्त्री हूँ,
जरा गौर से देखना मुझे…
देखना तुम
मेरे सिन्दूर को
जो मेरा है पर नाम उस पर किसी
और का है !
मैं स्त्री हूँ,
जरा गौर से देखना मुझे…
देखना तुम
मेरे नाम को
जिस पर अधिकार
किसी और का है !
मैं स्त्री हूँ,
जरा गौर से देखना मुझे…
मेरा सब कुछ किसी
और का है,
बताओ मुझे, मुझ में
मेरा क्या है ?”
एक स्त्री की व्यथा
“मैं एक ऐसी वस्तु बना दी गई
जिसे जैसा चाहा इस्तेमाल किया जाता रहा ।
वस्तु, जिसका कोई मूल्य नहीं
कोई नाम नहीं
कोई जाति नहीं
कोई धर्म नहीं
जब जिसे जैसी जरूरत हुई,
इस्तेमाल किया मुझे !
लगातार मुझे हाशिए की ओर
ढ़केले जाते हुए भी
मैं कभी टूटी नहीं, हमेशा
हाशिए को ही हथियार बनाने की
कोशिश में जुटी रहती हूँ ।
कभी मेरे शरीर को आंटे की
लोथी सा मसला गया,
तो कभी देह पर पड़े निशान
कई दिनों तक
याद दिलाते रहे मुझे, उस
निरीह अवस्था को !
क्या मैं इतनी कमज़ोर हूँ कि
इसका प्रतिकार तक न कर सकी,
या निर्मित किया गया है मुझे
कुछ ऐसा ही !
क्यों बचपन से मुझे
कम बोलने, कम खाने, तेज न दौड़ने जैसे
संस्कारों में ढ़ाला गया ?
शायद इसलिए कि मैं
इसका प्रतिकार ना कर सकूँ !”
खुदमुख्तार स्त्रियों का कथा -वितान: अन्हियारे तलछट में चमका
आधुनिकता का आइना
“शहर से गर्मियों की छुट्टियों में
आना होता था जब गाँव
गाँव आते ही सुखिया चाचा
दौड़कर आते
और
पूछते मेरी राजी ख़ुशी !
बातों ही बातों में
पूरे गाँव का हाल बता देते वो
यूँ उम्र में वो पचास के पार होंगे
पर चेहरे में बुढ़ापे की एक झलक भी न थी
कोसों दूर पैदल चले जाते
पर वो तो सुखिया चाचा थे
जो बुढ़ापे में भी जवानी का दम रखते थे
अब तो रामू, शिवबरन और माधव
जवानी में भी बूढ़े नज़र आते हैं
सुना है रामू बहुत तेज कार चलाता है
वक़्त की रफ़्तार से भी आगे
निकलना चाहता है शायद !”
टूटते सपने
“आम जन में एक आह है,
एक टीस है
उन सपनों के न पूरे होने की,
जिन्हें वह पालता है,
पोषता है,
अपनी खुशियों के लिए,
अपने विकास के लिए
पर वही सपने एक दिन बिखर जाते हैं
मुट्ठी में आई हुई रेत की तरह !
क्यों उनके सपने संवरने से
पहले बिखर जाते हैं ?
क्यों आर्थिक तंगी उन्हें,
दिनों-दिन
खोखला कर रही है ?
क्या यह सारी सुख-सुविधाएँ
बस चन्द लोगों के लिए हैं ?
जो संसद पर बैठे हैं और
सारे ऐशो-आराम भोगते हैं ।
तब क्या धूमिल का कहना
न्याय संगत है,
कि क्या आज़ादी सिर्फ़
तीन थके हुए रंगों का नाम है,
जिसे एक पहिया ढ़ोता है ?
यह पहिया है मध्यवर्ग,
जो आज़ादी के पूर्व से अब तक
गतिशील है,
उसका लगातार घूमना
उसके संघर्ष का प्रतीक है ।
कभी तो उसका संघर्ष ख़त्म होगा,
कभी तो उसके सपने पूरे होंगे,
कभी तो वह सही मायने में
स्वतंत्र होगा,
बस इसी उम्मीद के साथ
आज आम जन जिन्दा है ।”
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