मुकेश कुमार
आज जहां मुस्लिम स्त्रियों के बुर्के और तीन तलाक संघियों का प्रिय मुद्दा बना हुआ है, वहीं हिन्दू स्त्रियों के जिंस-पैंट अथवा अन्य फैशनेबल ड्रेस भी इनके निशाने पर रहते हैं. स्त्रियों के बदन पर ज्यादा और कम कपड़े-दोनों संघियों को परेशान करते हैं. कौन क्या खाये-क्या पहने, यह तय करते हुए पितृसत्तात्मक हिंदुत्ववादी मूल्यों की ये पताका फहरा देना चाहते हैं. कुल मिलाकर स्त्रियों को लेकर इनके ख्यालात परस्पर अंतर्विरोधी ही कहे जाएंगे. सच्चाई तो यह है कि बुर्का -हिजाब और तीन तलाक का मुद्दा ये इसलिए उठाते हैं क्योंकि इस बहाने इन्हें मुसलमानों और इस्लाम पर हमला करने का अवसर मिल जाता है. इनकी वास्तविक चिंता में स्त्रियों की मुक्ति का एजेंडा न तो पहले कभी रहा है और न ही इस बार भी है. उनका मकसद स्त्रियों को औजार के रूप में इस्तेमाल करने का ही रहा है.
स्त्रियां कैसे ज्यादा से ज्यादा शिक्षित हों, इसकी चिंता इन्हें नहीं रहती है. इसके बजाय शिक्षा का निजीकरण व भगवाकरण करने को लेकर ही ये चिंतित रहते हैं और उसी दिशा में इनके कदम बढ़ते हैं. स्त्रियों के नौकरी व अन्य रोजगार में जाने और आर्थिक तौर पर स्वावलंबी बनने को ये हमेशा हिकारत की नजर से देखते हैं. इस मामले में ये आज भी मनुस्मृति को ही अपना प्रेरणा स्रोत मानते हैं. इनके लिए स्त्री के दो रूप हैं- स्त्री या तो देवी है या फिर चाहरदीवारी में कैद मध्ययुगीन भोग की वस्तु. बच्चे पैदा करने की मशीन. इसलिए ये बीच-बीच मे मुसलमानों का खतरा बताकर हिंदुओं से 4 और दस बच्चे पैदा करने की भी अपील करते ही रहते हैं. स्त्रियों को लेकर इनका यह दो अतिवादी नजरिया है. यानी स्त्रियां इनकी नजर में ‘मनुष्य’ कभी नहीं हैं.
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यही वजह है कि संघ में आज भी स्त्रियों का प्रवेश वर्जित है. अंतिम निष्कर्ष में ये स्त्रियों को पुरुषों के बराबर मानने के बजाय पुरुषों के मातहत ही रखना चाहते हैं. अपना गणवेश तय करने में ये एकदम आधुनिक हो उठते हैं और ‘हाफ’ से लेकर ‘फुल’ पैंट तक पहुंच जाते हैं. उस वक्त इन्हें अपनी परंपरा-संस्कृति का वस्त्र धोती-कुर्ता और भगवा वस्त्र याद नहीं आता है, किन्तु स्त्रियों को ये साड़ी-ब्लाउज में ही देखना पसंद करते हैं. स्त्रियों के स्वतंत्र निर्णयों को ये गुंडा वाहिनी और खाप पंचायत बनाकर भी कुचल देने पर आमादा रहते हैं. लव जिहाद के नाम पर ये साम्प्रदायिक नफरत फैलाने के साथ-साथ स्त्रियों को अपने काबू में ही रखने की ही कोशिश करते हैं.
दरअसल संघ-बीजेपी आज भी राष्ट्रीय आंदोलन की उसी समाजसुधार विरोधी-स्त्रीविरोधी धारा का प्रतिनिधित्व करता है, जिसके आक्रामक अगुआ तिलक और थोड़े लिबरल अगुआ मालवीय थे. यह अकारण नहीं है कि सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने मालवीय को भारत रत्न के सम्मान से नवाजा. तिलक ने अपने दौर में बालिका विवाह पर रोक लगाने का तीखा विरोध किया था और कांग्रेस अधिवेशन के मंच से सामाजिक सम्मेलन की चली आ रही परम्परा पर उग्र विरोध के जरिये समाप्त कराया था.
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सूक्ष्मता से संघ-बीजेपी के चाल-चरित्र को देखें तो स्त्रियों को लेकर इनका अप्रोच खुलकर सामने आ जाता है. स्त्रियों की मुक्ति से इनका दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है. हिन्दू स्त्रियों की हजारों वर्षों की पितृसत्तात्मक गुलामी के खात्मे के लिए इनके पास न तो कोई सकारात्मक एजेंडा है और न ही कोई कार्यक्रम. मुस्लिम स्त्रियों का बुर्का अगर उनके विकास में बाधक और गुलामी का प्रतीक है तो हिन्दू स्त्रियों का घूंघट, सिंदूर, चूड़ी और अन्य आभूषण कौन सा हिन्दू स्त्रियों की मुक्ति में सहायक है! लेकिन हिन्दू स्त्रियों को इससे मुक्ति मिले- इसपर ये कभी कुछ नहीं बोलेंगे, उलटे वे इन चीजों की तरफदारी ही करते दिख जाएंगे. विधवा प्रथा, सती प्रथा से लेकर बाल विवाह तक के पक्ष में आज भी ये कुतर्क करते और उसे महिमामंडित करते हुए आसानी से देखे जा सकते हैं. भारत में चिंताजनक ढंग से बढ़ती बालिका भ्रूण हत्या और स्त्री-पुरुष लिंगानुपात में गिरावट इनके चिंता का विषय बनते कभी किसी ने नहीं देखा होगा. बलात्कार की घटनाओं पर इनके नेताओं की स्त्रीविरोधी शर्मनाक पितृसत्तात्मक प्रतिक्रिया तो जगजाहिर ही है. बलात्कारी के बजाय बलत्कृत स्त्री में ही सारा दोष ढूंढते हुए ये बलात्कारी का बचाव करते हुए देखे जा सकते हैं. इसलिए स्त्रीविरोधी आचरण करने वाले तथा बलात्कार के आरोपी को अपनी पार्टी में शामिल करने में इन्हें कभी कोई नैतिक परेशानी नहीं होती. संघ-बीजेपी के इस मंसूबे को समझना जरूरी है. और स्त्री प्रश्न को पितृसत्तात्मक व धार्मिक दायरे में हल करने के बजाय स्त्री-पुरुष बराबरी की दिशा में निरंतर बहस व संघर्ष को आगे बढ़ाने की जरूरत है. स्त्री के बहाने एक धर्म विशेष को टारगेट करने के इस षड्यंत्र के खिलाफ सही पोजीशन सामने लाना होगा, अन्यथा आरएसएस-बीजेपी इस मुद्दे के आधार पर हमेशा नफरत की राजनीति करता रहेगा. जब बाबासाहेब डा. आंबेडकर हिन्दू कोड बिल के लिए संघर्ष कर रहे थे, जिसके तहत हिन्दू सवर्ण महिलाओं की जिन्दगी बेहतर बनाने की दूर-दृष्टि काम कर रही थी, तब संघ और उसकी विचारधारा के लोग उसका विरोध कर रहे थे. आज मुस्लिम स्त्रियों के मसले पर वे अतिसक्रिय हैं
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