केजरीवाल सर, हिन्दी अकादमी में आपकी उपाध्यक्ष साहित्यिक झूठ खड़ा कर रही हैं? (मन्नू-मीता-मैत्रेयी के सच की खोज)

स्त्रीकाल डेस्क 


प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका समालोचन में मैत्रेयी पुष्पा की किताब ‘वह सफ़र था कि मुकाम था’ का एक अंश छपा. यह अंश हंस के संपादक और हमसब के प्रिय लेखक राजेंद्र यादव से लेखिका की घनिष्ठता की बानगी है. पाठकों के लिए इसमें भावनात्मक खुराक भी है- अपने प्रिय लेखक संपादक की प्रेमिका के एक इमेज से जुड़ने की. विवाहेत्तर प्रेम की यह ‘मीता’ साहित्य जगत की राधा है. शीर्षक भी बड़ा भावुक और सनसनी पैदा करने वाला, ‘ हाँ, मैंने मीता को देखा है.’ मानो लेखिका ही एक मात्र ऐसी स्रोत हैं, जो इस महान प्रेम की साक्षी है. इस प्रेम का रोमांच पाठक तबतक अनुभव नहीं करेगा जबतक इसका एक विलेन न हो. विवाहेत्तर प्रेम की सबसे उचित विलेन तो स्वाभाविक है कि पत्नी ही होगी. पत्नी यानी मन्नू भंडारी, कालजयी कथाकार! लेखिका खुद को कृष्ण की द्रौपदी की तरह पेश करना चाह रही हैं इस प्रसंग में,  राजेंद्र जी और उनकी मीता के लिए खूब निष्ठा, स्नेह और समर्पण के साथ. वे इस महान प्रेम की एकमात्र साक्षी भी हैं और उनके बीच का विश्वासी माध्यम भी.
लेकिन इस पूरी कथा को रचते हुए, आत्मकथा में काल्पनिक कहानी की छौक देते हुए, वे शायद भूल गईं की राजेंद्र जी अभी उतने अतीत भी नहीं हुए हैं. उनसे जुड़े लोग आज भी हैं, खुद ‘कथित खलनायिका’ मन्नू जी भी हैं. वे अकेली नहीं हैं, जिन्होंने मीता को देखा है. हां मीता यानी नगीना जैन, आगरा की एक प्रतिष्ठित महिला को साहित्य जगत की राधा होते देखने वालों में कई लोग अभी जीवित और सक्रिय हैं. खुद राजेंद्र जी ने उनका नाम इतना गुप्त नहीं रहने दिया था. तद्भव में वे बता चुके थे, मीता यानी ‘नगीना जैन’. 

हिन्दी अकादमी के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष

इतिहास को सही दर्ज करने के लिए जरूरी है कि उनके समकालीन बोलें अन्यथा पता नहीं किस विवशता या उद्देश्य से मैत्रेयी जी एक झूठा साहित्य-इतिहास अपनी आत्मकथा में दर्ज करना चाह रही हैं. हो सकता है इस कहानी के और भी पात्र जल्द बोलें, लेकिन फिलहाल मैत्रेयी जी की आत्मकथा का झूठ- सच स्पष्ट होना चाहिए. राजेंद्र जी जब एम्स में भर्ती थे तो उनके आस-पास और भी लोग थे,  उनके हवाले का सच कुछ और भी है. हमें यहाँ उनके हवाले का सच जानना चाहिए , फिर इसके और पात्र जब बोलें या राजेंद्र जी और मीता के और हमराज बोलें तो यह स्पष्ट हो सकेगा कि एक बड़ी उपन्यासकार और आजकल हिन्दी अकादमी, दिल्ली, की उपाध्यक्ष, को साहित्यिक इतिहास का इतना बड़ा झूठ रचने की जरूरत क्यों आन पडी.

एक साहित्यिक रपट के तौर पर इस पूरे प्रसंग को लेते हुए स्त्रीकाल ने इसके किरदारों से संपर्क किया. जब राजेंद्र जी एम्स में भर्ती थे तो उनके साथ हमेशा रहने वाले और खासकर रात में रहने वाले कहानीकार और ‘किस्सा’ के संपादक शिव कुमार शिव से भी संपर्क किया गया. उन सबके हवाले से जो सच-झूठ बनता है उसे हम सिलसिलेवार समझते हैं.

मैत्रेयी  का दावा: पूछ ही सकती हूँ कि अगर उनके टेस्ट नार्मल थे तो डॉक्टर साहब (मेरे पति) उनको लेकर एम्स क्यों गए थे? जल्दी से जल्दी कैज्युअलिटी में दाखिल क्यों कराया था?

राजेंद्र यादव और मैत्रेयी

सच: शिवकुमार जी और अन्य स्रोत बताते हैं कि टेस्ट तक तो डाक्टर साहब के हस्तक्षेप से ही हुआ था भर्ती होने के पहले, लेकिन ऐसा नहीं था कि राजेन्द्र जी को टेस्ट के बाद डाक्टर साहब यानी (मैत्रेयी के पति) उन्हें अस्पताल ले गये थे. अस्पताल दाखिल करवाया गया था उनके घर से. जब दाखिल करवाया गया तो आलोचक और दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर सुधीश पचौरी राजेंद्र जी के घर पर थे और उन्हें भर्ती करवाने वाला शख्स था, ‘औरत होने की सजा’ का लेखक और तबतक उनके प्रिय लोगों में से एक एवं हंस के तत्कालीन कानूनी सलाहकार अरविंद जैन. डाक्टर साहब और मैत्रेयी दूर-दूर तक नहीं थे. वहीं अरविंद जैन बताते हैं कि ‘‘उन्हें दाखिल करते वक्त फॉर्म भरने की जब बारी आई तो मैंने उनका अपने से रिश्ता लिखा, ‘ पिता.’’

मैत्रेयी का दावा: खैर, मन्नू दी तैयार हुईं. हमारी जान में जान आई कि जिन्दगी भर साथ निभाने के वादे पर विवाहिता होनेवाली पत्नी ने हमारी अरज सुन ली, इन अलगाव भरे दिनों में कड़वे अनुभवों से गुजरते हुए. मुश्किल लम्हे उनके लिए भी और हमारे लिए भी. सद्भाव ने मुश्किल हल कर दी.

सच: मन्नू भंडारी उनके एडमिट होने के दूसरे दिन सुबह आईं. उन्होंने वहाँ राजेंद्र जी के इलाज में हो रहे खर्च के बारे में पूछा और अरविंद जैन को उन्हें भर्ती कराने में हुए खर्च के पैसे दिये.

मैत्रेयी का दावा: अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद मन्नू जी ने अपने अलगाव को सुरक्षित रखा. आने-जाने की औपचारिकता या लोक-लाज अस्पताल  तक ही थी जहाँ तमाम साहित्यकार आते-जाते. वे इस नाजुक मौके की नब्ज पहचानती थी कि राजेन्द्र जी के आसपास दिखने में उनके बड़प्पन और पति की बेजा हरकतों के ग्राफ की नाप-तौल होगी और वे उत्तम कोटि नारी की उपमा बनेंगी.

सच: राजेंद्र जी के अस्पताल में दाखिल होने के दूसरे दिन ही शिव कुमार शिव दिल्ली आ गये थे. उनका समय ज्यादातर अस्पताल में ही बीतता था. उन्होंने बताया कि मन्नू जी का उनदिनों न सिर्फ नियमित आना होता था, बल्कि फोन पर भी वे खबर लेती थीं. शिव जी के अनुसार, जो अक्सर दिल्ली आने पर राजेंद्र जी के यहाँ रहते थे, मन्नू जी राजेंद्र जी को सुबह छः बजे नियमित फोन किया करती थीं, .

मन्नू भंडारी और राजेंद्र यादव

मैत्रेयी का दावा: उन्होंने मुझ नाम बताया लेकिन मैं यहाँ लिखूँगी नहीं क्योंकि उन्होंने हमेशा उनका नाम छिपाया और उनको मीता नाम से लिखा.

सच: राजेंद्र जी ने खुद तद्भव पत्रिका में उनके नाम का खुलासा किया था- नगीना जैन
उद्धरण ‘‘शायद मेरी इस मानसिक छटपटाहट को मन्नू समझ रही है । वह बैठ कर बातें करना चाहती है, और मैं टाल देता हूं । एक बार तो उसने कहा था कि अगर आपको लगता है कि इस जड़ता और अवरोध से आप यहां से बाहर जाकर निकल सकते हैं तो नगीना के साथ कुछ दिन रह लीजिए … दया और करुणा ही हुई सुन कर … यह बात उसने किस यातना बिन्दु पर पहुँचकर  कही होगी … । लगता है  मुझे भी है कि शायद इस अंधे कुंए से वही साथ निकाल सकता है, मगर हिम्मत नहीं पड़ी । मैं नगीना के साथ रहने दस दिनों को जाऊंगा यह कह कर मैं निकल सकता हूं ? चुपचाप चोरी छिपे जाऊं और भला मानुस बन कर लौट आऊं , यह तो हो सकता है । यही शायद होता भी रहा है । मगर कह कर खुलेआम जाना कैसा लगता है जाने … चला भी गया तो शायद लौटने का मुंह नहीं रहेगा । यहां भी सब चीजें , रहना – व्यवहार नार्मल नहीं रह पायेंगे … । ’’                                                   – तद्भव: 11 , पृष्ठ  – 181
:
दरअसल मैत्रेयी कुशल कहानीकार की तरह पाठकों की संवेदना और निजी में तांक-झाँक की उनकी इच्छा को सहला रही हैं: 


मैत्रेयी का दावा : उन्होंने मेरी ओर कागज की एक बहुत छोटी चिट बढ़ाई. हाथ काँप रहा था.
‘‘इसमें एक नम्बर लिखा है, टेलीफोन कर दो.’’
‘‘कहाँ करना है ? अच्छा, मैं घर से मोबाइल फोन ले आऊँगी, आप ही कर देना बिस्तर पर लेटे-लेटे.’’
‘‘आगरा करना है, लेकिन मैं नहीं करूँगा.’’
‘‘क्यों, आप क्यों नहीं ?’’
‘‘अरे यार, तुम भी! सारी बात पूछकर मानोगी. उसकी भाभी मेरी आवाज पहचानती है, उसे फोन नहीं देगी.’’
‘‘उसको किसको ?’’
उन्होंने मुझ नाम बताया लेकिन मैं यहाँ लिखूँगी नहीं क्योंकि उन्होंने हमेशा उनका नाम छिपाया और उनको मीता नाम से लिखा.

सच: कहानीकार कविता ने सटीक सवाल किये हैं अपनी टिप्पणी में कि राजेंद्र जी ने फिर कथित भाभी को खुद फोन क्यों नहीं किया, जब उन्हें नाम ही छिपाना था तो. राजेंद्र जी से जुड़े सारे लोग जानते हैं और बताते हैं कि जब नगीना आई थीं उन्के फ़्लैट पर रहने तो वे हंस के दफ्तर भी आती थीं, साहित्य की दुनिया उनसे इतना अपिरिचित भी नहीं है. दरअसल इस कहानी के किरदारों के अनुसार नगीना दो बार आई थीं एक बार इस बीमारी के बाद और एक बार इसके पहले जब वे कवि केदारनाथ सिंह के यहाँ किराये पर रहते थे.
स्रोत : समालोचन 

राजेंद्र जी साहित्यकारों के साथ


शिव कुमार शिव का फेसबुक पोस्ट: 
एक दिन बाद जब मै दिल्ली पहुंचा उस समय वह जेनरल वाड मे कमरे मे आ गए ये। उस समय जब मै वहाँ पहुँचा तब वहां  मैने देखा कि मन्नू जी हैं, महेश दर्पण है और अरविंद जैन हैं। 2 रातो तक उनकी देखभाल महेश दर्पण ने की थी और फिर मै वहाँ स्थाई रूप से रहने लगा । मैत्रेयी  जी का कहीं नामो निशान नही था । लगभग 5 दिन बाद शाम को 4 बजे मैत्री जी गुप्त रूप से राजेंद्र जी से मिलने पहुंची । जब वह कमरे में थी, तब मै चौकीदारी कर रहा था। उन्हे याद हो तो आधे घंटे के बाद मैंने उन्हे गाड़ी मे बिठा दिया था । यह कहना लाज़िमी होगा कि  उनकी देखभाल और संभाल का पूरा जिम्मा मन्नू जी का था । मैत्रीय को तो उनकी बिमारी का पता बहुत दिन बाद चला । हालांकि इस बीमारी के दौरान के कई प्रसंग है जो अद्भुत भी हैं और रोचक भी.  लेकिन वे कहीं  नही हैं,  जो इतना झूठा शोर मचा रही है । उनके जिंदा रहते तो आपने उनका लेखकीय शोषण किया अब मुर्दे को तो बख्श दो यार !

सवाल यही है कि हिन्दी अकादमी की उपाधयक्ष और हमसब की प्रिय कहानीकार को झूठ बोलने, झूठी  कहानी लिखने की जरूरत क्यों आन पड़ी. हमारी कोशिश होगी कि इस कुछ सच्ची-कुछ झूठी कहानी के अन्य किरदारों से भी उनका पक्ष लेकर आयें. ताकि इतिहास में कुछ गलत दर्ज न हो. अभी तक हमारे पास यही तथ्य है, हो सकता है सारे किरदारों के बोलते-बोलते इसमें कुछ जुड़े या घटे. 

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ISSN 2394-093X
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