सौम्या दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी की शोधार्थी हैं.नाटक के एक समूह ‘अनुकृति’ से जुड़ी हैं. संपर्क : ई मेल-worldpeace241993@gmail.com
“If sexuality is one dimension of our ability to live passionately then in cutting off our sexual feelings, we diminish our overall power to feel” By Judith Plaskow
जूडिथ प्लास्कों की कामुकता पर गई यह टिपण्णी मनुष्य के जीवन में कामुकता की ज़रूरत को स्पष्ट करती है। कामुकता मनुष्य को मानसिक एवं शारीरिक बल प्रदान करती है। ऐसे में जाहिर है कि लैंगिक आधार पर कामुकता का विभाजन नहीं किया जा सकता लेकिन फिर भी विश्व के लगभग सभी देशों में स्त्री की कामुकता का दमन किया गया है। यहाँ तक भी तर्क दिए गए कि स्त्री में कामेच्छा होती ही नहीं है। स्त्री की कामेच्छा को ‘हिस्टीरिया’ नाम देकर उसे मनोरोगों तक की श्रेणी में रख दिया गया। स्त्री की कामुकता को स्वीकार करना पितृसत्तात्मक समाज के ठेकेदारों को कभी भी स्वीकार्य नहीं रहा। स्त्री की कामुकता को पुरुषों ने अपने आनंद का एक माध्यम बना लिया। पुरुष ने कभी उसकी देह को अपनी यौन संतुष्टि के लिए नो चा तो कभी स्त्री की प्रजनन क्षमता का दोहन अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिए किया। यदि कभी किसी स्त्री ने समाज की इन चिरपरिचित मान्यताओं को ठुकराकर अपनी कामुकता पर अपना अधिकार जाताना चाहा तो समाज ने उसे चरित्रहीनता का तमगा पहनाकर वेश्या की श्रेणी में रख दिया। यही कारण रहा कि जब-जब सिनेमा में स्त्री की कामुकता को स्वायत्तता प्रदान करने की कोशिश की गयी तो कभी सेंसर बोर्ड या कभी समाज ने उसका विरोध किया गया।
जिस हिंदी सिनेमा में हमेशा से बलात्कार और छेड़खानी के दृश्यों की भरमार रही है। कभी जमींदार तो कभी साहूकार तो कभी पिता, भाई या पति के दुश्मन सभी के निशाने पर हमेशा स्त्री की देह रही और स्त्री सुनहले कहे जाने वाले पर्दे पर बलात्कृत होती रही। समाज में छेड़खानी की जिन घटनाओं पर खूनखराबे हो जाते हैं। फिल्मों में अक्सर हीरो ने कभी हिरोइन का दुपट्टा खींचा तो कभी हाथ पकड़ा लेकिन छेड़खानी की इन हरकतों और बलात्कार के दृश्यों पर न तो कभी सेंसर बोर्ड ने प्रतिबंध लगाए और न ही मर्दानगी के इस ओछे प्रदर्शन पर तथाकथित भारतीय संस्कृति के संरक्षकों ने परदे पर दिखाए जाने का विरोध किया। इसी सिनेमा में स्त्री की कामुकता के स्वायत्त प्रदर्शन पर इतना बवाल होना स्त्री के प्रति समाज का दोहरे मापदंड नहीं तो और क्या है ? सोनाली बोस की सितम्बर 2014 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘मार्गरीटा विथ अ स्ट्रॉ’ कई कारणों से महत्वपूर्ण है। यह फिल्म एक विकलांग स्त्री की सेक्सुअलिटी को तो सेलिब्रेट करती ही है साथ ही लैंगिक अल्पसंख्यकों को लेकर हो रही बहसों और आन्दोलनों को सकारात्मक रूप में हमारे सामने रखती है।
बोस की फिल्म को हिंदी सिनेमा में स्त्री कामुकता के इतिहास में मील के पत्थर के रूप में देखा जा सकता है। जिसकी मुख्य नायिका लायला(कल्कि कोचीन) अपनी कामुकता के हर अँधेरे कोने में झाँकना चाहती है, अपनी कामुकता का आनंद उत्सव मनाना चाहती है और यह करने के लिए वह समाज की सारी मर्यादाओं को बेख़ौफ़ होकर लांघती है। वह जानती है कि उसकी कामुकता उसकी निजी संपत्ति है जिसमें वह अपनी माँ तक का दखल नहीं चाहती तभी तो जब उसकी माँ उसके पोर्न देखने पर सवाल उठाती हैं तो वह साफ़ शब्दों में कह देती है कि यह उसका निजी मसला है। लायला दिल्ली महानगर के एक एकल मध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखती है। घर में लायला की माँ (रेवती) पिता (कुलजीत) और एक छोटा भाई है। लायला के परिवार में उसकी माँ प्रधान भूमिका में है। इसीलिए कहा जा सकता है कि बोस ने परिवार का सेटअप मातृसत्तात्मक रखने की कोशिश की है। लायला मस्तिष्क पक्षाघात से ग्रस्त है जिसके कारण वह ठीक ढंग से बोल नहीं पाती, किसी भी चीज़ को अच्छे से पकड़ नहीं पाती और पूरा समय व्हील चेयर पर रहती है। लेकिन फिल्म का केन्द्रीय विषय लायला की इन मुश्किलों पर प्रकाश डालना नहीं लगता। कम से कम फिल्म के आरम्भ में तो कतई नहीं। लायला सत्रह-अठारह साल की है और अपनी उम्र के किसी भी लड़के-लड़की की तरह एकदम सामान्य है। वह देश के प्रतिष्ठित दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ती है। वह कुशाग्र बुद्धि की लड़की है और अपने कॉलेज के म्यूजिक बैण्ड के लिए गाने भी लिखती है। वहीं उसका दिल बैंड के मुख्य गायक नीमा पर आ जाता है। वह नीमा को अपने प्रति आकर्षित करना चाहती है। इसीलिए उसे प्रभावित करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ना चाहती। तभी तो वह घर आते ही फेसबुक पर नीमा को खोजती है और अपनी व्हीलचेयर वाली तस्वीर से व्हीलचेयर को काट-छाँट कर उसे अपनी प्रोफाइल पिक्चर बनाती है। फिल्म के इस दृश्य में स्त्री कामुकता के महत्वपूर्ण पक्ष देह छवि(बॉडी इमेज) का विश्लेषण किया जा सकता है। देह छवि मनुष्य की कामुकता का एक प्रमुख घटक है। एक कामुक मनुष्य के रूप में हमारा अस्तित्व बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम अपने शरीर को कैसे देखते हैं और हमारे शरीर की यौन इच्छाओं और यौन संतुष्टि आदि से जुड़े अनुभव कैसे हैं। कामुकता और देह छवि के सम्बन्ध को लेकर किये गए शोधों की एक लम्बी श्रृंखला मौजूद है। देह छवि स्त्री कामुकता के सन्दर्भ में और भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योकि हमेशा से ही पुरुषों की अपेक्षा स्त्री का आंकलन उनकी देह के आधार पर किया जाता है। इस विषय पर किये गए शोधों के परिणामों से यह बात सामने आई है कि नकारात्मक देह छवि वाली स्त्री अपनी कामुकता को भी प्राय: नकारात्मक रूप में ही देखती है। साथ ही नकारात्मक देह छवि के चलते यौन संतुष्टि का स्तर भी प्रभवित होता है। अपनी देह को लेकर स्त्री के मन में एक हीनता बोध घर कर लेता है जिसके चलते वह स्त्री कामुक क्रियाओं में खुलकर भाग नहीं ले पाती।
व्हीलचेयर लायला की देह छवि का ऐसा ही एक नकारात्मक पहलू है जिसे वह काट-छाँट कर स्वयं से अलग कर देती है। वह अपने शरीर के हर हिस्से को बेहतर बनाना चाहती है ताकि वह नीमा को आकर्षित कर सके। इसके लिए वह लिपस्टिक लगाकर खुद को आईने में निहारती है। वह अपनी आई(माँ) से उसके बालों को हर दिन धोने की जिद करती है। नीमा के आते ही लायला के बाह्य व्यक्तित्व में आने वाले ये सारे बदलाव उसकी कामुकता का ही एक पहलू है।
लायला अपनी स्वाभाविक यौन इच्छाओं को संतुष्ट करने में झिझकती नहीं है। वह उसकी ही तरह व्हीलचेयर पर रहने वाले अपने दोस्त ध्रुव को कोने में ले जाकर किस करने की पहल करती है। उसका यह पहल करना उसे हिंदी सिनेमा की उन स्टीरियोटाइप अभिनेत्रियों की छवि से अलगाता है जो हमेशा अपनी यौन इच्छाओं को संतुष्ट करने के लिए अभिनेता के ग्रीन सिग्नल देने का इंतजार करती हैं। नीमा के प्रति आकर्षित होने पर अपने भीतर उठी कामेच्छाओं को शांत करने के लिए लायला पोर्न देखती है और हस्तमैथुन करती है। हिंदी सिनेमा के इतिहास में पहली बार परदे पर किसी स्त्री की यौनिकता को इतनी स्वाभाविकता और बहादुरी के साथ फिल्माया गया है। जिस समाज में पोर्न जैसी सामग्रियों को सिर्फ पुरुषों की कामुकता को संतुष्ट या उत्तेजित करने वाले माध्यम के रूप में देखा जाता है उसी समाज की किसी स्त्री को परदे पर पोर्न देखते दिखाया जाना वाकई स्त्रियों की कामुकता पर लगायी गयी पितृसत्तात्मक समाज की तमाम पाबंदियों को ध्वस्त करना ही है। ऐसा करने में बोस निसंदेह सफल रही हैं। हस्तमैथुन की क्रिया की यदि बात की जाए तो यौन संतुष्टि प्राप्त करने के लिए किये जाने वाली इस क्रिया को लगभग हर सभ्यता और समाज में हेय और घृणित कर्म के रूप में देखा जाता रहा है। कई समाजों में तो हस्तमैथुन को मनोरोग की श्रेणी में रखा जाता है बल्कि चिकित्सा विज्ञान और मनोविज्ञान इसके एक स्वाभाविक यौन क्रिया होने के प्रमाण तक दे चुके हैं। स्वयं स्त्रियाँ भी हस्तमैथुन को एक मानसिक विकार के रूप में देखती हैं और इसे अपनी काम-कुंठा का नतीजा मानती है। लगभग सभी स्त्रियाँ अपने जीवन में कभी न कभी हस्तमैथुन करती है लेकिन समाज के द्वारा इसे एक टैबू की श्रेणी में रखे जाने के कारण किसी के सामने यह स्वीकारने में शर्म महसूस करती है कि हाँ हमने अपनी यौन संतुष्टि के लिए हस्तमैथुन जैसी स्वाभाविक क्रिया की है। चूँकि फिल्म की मुख्य किरदार लायला विकलांग भी है तो यहाँ मुझे एक वाकया याद आ रहा है कि एक विकलांग लड़की की कामुकता को लेकर पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ तक कितनी असंवेदनशील हो सकती हैं। यह घटना कुछ चार-पांच साल पहले की है जब मै अपनी बीए की पढाई के लिए देश के प्रतिष्ठित कॉलेज माने जाने वाले मिरांडा हाउस के हॉस्टल में रह रही थी। जहाँ कुछ दृष्टिबाधित छात्राएं भी रहती थीं। तभी हॉस्टल में एक विडियो की चर्चा सुनी, देखा तो पता चला कि यह विडियो एक सामान्य छात्रा ने अपनी दृष्टिबाधित रूम मेट का बनाया है जब वह अपने को कमरे में अकेला समझकर हस्तमैथुन कर रही थी। उस विकलांग छात्रा के अन्तरंग पलों के विडियो का मजाक यह कहकर उड़ाया जा रहा था कि अरे! ये लोग भी ऐसे काम करते हैं। विडियो बनाने वाली लड़कियां खुद को नारीवादी कहते नहीं थकती थी और अपने कामुक अनुभवों के किस्से दंभ भरकर सुनाती थीं। इन लड़कियों के द्वारा एक विकलांग लड़की के नितांत निजी पलों में की गई कामुक अभिव्यक्ति का मखौल उड़ाने की धृष्टता हमारे समाज के तथाकथित प्रगतिशील लोगों की संकीर्ण और असंवेदनशील सोच के सच को हमारे सामने खोल कर रखती है। लेकिन बोस की फिल्म का हस्तमैथुन की इस स्वाभाविक क्रिया के साथ किया गया ट्रीटमेंट बेहद स्वाभाविक है। फिल्म यह दृश्य रात के वक़्त का है। जब लायला के सभी घरवाले सो जाते है तो वह पोर्न देखती है और उसके पश्चात् की कामोत्तेजना को शांत करने के लिए कैमरे से पीठ फेरकर खिड़की की तरफ मुँह करके हस्तमैथुन करती है। बोस ने इतने चुनौतीपूर्ण दृश्य को भी बखूबी फिल्माया है और लायला की बॉडी लैंग्वेज ही है जो इस दृश्य में संवादों की भूमिका निभा रही है।
इसके बाद के एक दृश्य में लायला अपनी एक महिला मित्र के साथ होलसेल की एक दुकान पर वाईब्रेटर खरीदने जाती है। दुकान का मालिक पूजा-पाठ में लगा होता है जब लायला उसे कहती है कि उसे वाईब्रेटर चाहिए तो वह समझता है कि लायला को मोबाइल फ़ोन चाहिए जिनको वाईब्रेशन पर करने की सुविधा हो और कहता है कि आजकल तो सभी फ़ोन में होता है और हँसते हुए आगे कहता है कि “मैंने तो अपनी वाइफ को भी वाईब्रेटर पे डाल रखा है।” जिसपर लायला की विदग्ध हँसी ने पूरे दृश्य को और भी अर्थपूर्ण बना दिया है। दरअसल लायला सिर्फ दुकानदार पर ही नहीं हँसती बल्कि पूरे समाज की उस मानसिकता पर हँसती है जिसके लिए स्त्री के मुँह से कामुकता शब्द भी सुनना अप्रत्याशित है। इस दृश्य को बोस ने एक हास्य व्यग्य के अंदाज में फिल्माया है, व्यंग्य उस देश की स्थिति पर जिस देश में लड़कियों को सैनेट्री पैड्स तक खरीदने से पहले दस बार सोचना पड़ता है और कंडोम खरीदना हो तो हज़ार बार क्योकि उनके बेधड़क होकर पैड्स और कंडोम मांगने से आजू-बाजु खड़े लोग के द्वारा उनके चरित्र पर सवालिया निशान लगाये जाते हो ऐसे समाज में एक लड़की का सेक्स टॉय मांगना दुकानदार को अप्रत्याशित लगेगा ही।
लायला अपने कॉलेज के बैंड के लिए गीत लिखती और कंपोज़ करती है। एक प्रतियोगिता में उसके कॉलेज के बैंड को पहला पुरस्कार मिलता है। प्रतियोगिता की होस्ट पुरस्कार की घोषणा करते हुए कहती है कि “जब हमें पता चला की इस गाने के लिरिक्स एक विकलांग लड़की ने लिखे है तो हमें ये अवार्ड इसी ग्रुप को देना पड़ा। लायला, आपकी प्रोब्लेम्स बाकि लोगों से अलग रही होगी। विल यू प्लीज़ शेयर योर एक्सपीरियंस विथ अस?’’ इसके जवाब में गुस्साई लायला उसे मिडिल फिंगर दिखाकर वहाँ से चली जाती है क्योकि लायला को सहानुभूति नहीं चाहिए। वह बाकि लोगों से अलग नहीं होना या दिखना चाहती और फिर लायला के व्यक्तित्व की जिंदादिली इस बात का सबूत भी है कि वह किसी भी लिहाज़ से किसी से कम नहीं है। इस वाकये के बाद लायला नीमा के गले लगकर रोती है लेकिन जैसे ही वह नीमा को कहती है कि मुझे सिर्फ तुम चाहिए तो एक आधी-अधूरी लड़की के इस प्रोपोज़ल को वह अस्वीकार कर देता है क्योकि लायला समाज के द्वारा द्वारा गढ़े गए सम्पूर्ण नारी के मानकों पर खरी नहीं उतरती और इसी कारण सामान्य लोगों से प्यार करने या प्यार पाने का अधिकार यह समाज उसे नहीं देता। इसीलिए नीमा, लायला के प्रति अगर कुछ रख सकता है तो सिर्फ सहानुभूति रख सकता है, प्रेम नहीं। पहले तो प्रेम निमंत्रण देने का हक़ हमारे समाज ने सिर्फ पुरुषों को दिया है। एक आदर्श नारी से सिर्फ गर्दन हिलाने और मुस्कुराने भर की अपेक्षा की जाती है ऐसे में एक लड़की, वह भी विकलांग लड़की के द्वारा अपने प्रेम का इज़हार करना तो पितृसत्तात्मक समाज के पुरुष को अटपटा लगेगा।
फिल्म की निर्देशक सोनाली बोस ने यह फिल्म अपनी चचेरी बहन मालिनी चिब जोकि खुद भी मस्तिष्क पक्षाघात से ग्रस्त है के जीवन से प्रेरित होकर बनाई है। जिस घटना ने उन्हें यह फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया उसका ज़िक्र करते हुए बोस कहती है कि एक बार मालिनी के चालीसवें जन्मदिन की पार्टी में उन्होंने मालिनी से पूछा कि उन्हें इस जन्मदिन पर क्या गिफ्ट चाहिए तो मालिनी के जवाब ने उन्हें चौका दिया। बोस याद करते हुए कहती है कि उसने बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘वह सेक्स करना चाहती है।’ इस जवाब पर बोस इसलिए नहीं चौकी कि अच्छी भारतीय लडकियां ऐसी बाते नहीं करती बल्कि इसलिए चौंकी कि मालिनी पूरी तरह मस्तिष्क पक्षाघात से ग्रस्त है और हमारा समाज कभी भी विकलांगता और कामुकता को एक साथ नहीं देखता, न ही हम इस बारे में बात करते हैं और न सोचते हैं क्योकि हमें ऐसा करना ज़रूरी नहीं लगता। मालिनी की तरह ही लायला भी इसी बीमारी से ग्रसित है। ऐसे में लायला के द्वारा अपनी कामुकता का ऐसा खुला प्रदर्शन समाज को अखरेगा ही।
जिस समाज में स्त्री की कामुकता पर बात करना ही एक टैबू हो उसमें एक विकलांग स्त्री की कामुकता पर समाज के विचारों का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है। हमारे समाज में विकलांग व्यक्ति को एसेक्सुअल माना जाता है यानि कि समाज ऐसे व्यक्ति की सेक्स सम्बन्धी ज़रूरतों को ही ख़ारिज कर देता है। समाज की इसी सोच के कारण विकलांग व्यक्ति अपनी कामेच्छा को अपने भीतर ही दबाता रहता है जोकि एक समय के बाद मानसिक कुंठा का रूप धारण कर लेती है। विकलांग लोगों की कामुकता को नकारने वाले लोगों को अमेरिका के NCBI में प्रकशित एक शोध को पढ़ना चाहिए जिसके अनुसार “The period between 12 and 25 years of age is essential for human sexual development: physical changes, masturbation, dating, beginning intimate relationships and sexual experiences। This applies to people with and without physical disabilities or chronic illnesses।” स्पष्ट है कि कामुकता हर मनुष्य के जीवन का एक अभिन्न अंग है और किसी भी आधार पर मनुष्य को इससे अलग नहीं किया जा सकता। मस्तिष्क पक्षाघात से ग्रस्त लोगों की कामुकता को लेकर उनसे की गयी चर्चा में यह तथ्य सामने आये हंक कि “Seventy-six percent of the participants had experience with masturbation। Most young adults with CP had reached one or more sexual milestones; 78% had experience with French kissing, 70% with caressing under clothing, 65% with cuddling nude and 54% with sexual intercourse। Twenty percent had no sexual experience with a partner।” यह आंकड़े बताते हैं कि किसी भी सामान्य मनुष्य की तरह ज्यादा नहीं तो कम पर इन लोगों की भी अपनी सेक्स सम्बन्धी ज़रूरतें होती हैं।
एक विकलांग बच्चे को उसकी कामुकता से परिचित करवाने में माता-पिता या संरक्षकों की बहुत ही अहम भूमिका हो सकती है। इसका प्राय: समाज में अभाव देखा जाता है। माता-पिता अक्सर इस बात को नज़रंदाज़ कर देते हैं कि उनका बच्चा एक कामुक प्राणी भी है। प्राय: उनको यह अहसास नहीं होता कि एक सकारात्मक देह छवि (बॉडी इमेज) का विकास होना कितना ज़रूरी है और उनकों अपने बच्चे की कामुक भावनाओं का भी ख्याल रखना चाहिए। फिल्म में लायला की माँ लायला के साथ हमेशा हर परिस्थिति में उसकी हिम्मत बनकर उसके साथ खड़ी रहती है। वह अपनी बेटी की हर ज़रूरत, हर अहसास को समझती है लेकिन जब उसे यह पता चलता है कि लायला अपने लैपटॉप में पोर्न देखती है तो वह असहज हो जाती है। ऐसी है असहजता तब भी उसके चेहरे पर झलकती है जब लायला यह बताती है कि कॉलेज के एक लड़का उसे बहुत पसंद है। यह असहजता एक असुरक्षा और अज्ञानता के भाव से जन्मी है। वह समझती है कि लायला की विकलांगता के कारण ये सारी बातें व्यर्थ है और इसीलिए वह लायला की कामुकता को कभी समझने की कोशिश ही नहीं करती। समाज के अन्य लोगों की तरह वह भी यही सोचती है कि एक विकलांग स्त्री की कामेच्छायें नहीं होती।
लायला को न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी में दाखिला मिल जाने के बाद बोस ने भारत और अमेरिका का एक तुलनात्मक सेटअप हमारे सामने रखा है। बोस ने ऐसा सोच समझ कर किया है ताकि वह भारत और पश्चिम के विकलांगता और कामुकता के साथ किये जाने वाले ट्रीटमेंट का तुलनात्मक नज़ारा दर्शकों के सामने रख पाए। बोस के द्वारा दिखाई गई घटनाओं का मकसद यह दिखाना लगता है कि पश्चिम में विकलांग लोगो की जिंदगी बहुत ही ज्यादा आसान और सुविधाजनक है। हाँ, इस बात को मानने से कोई इंकार नहीं कर सकता कि भारत की अपेक्षा पश्चिम में विकलांग लोगों के लिए अधिक सुविधाएँ हैं। चाहे वह सडकों इमारतों और सार्वजनिक परिवहन में व्हील चेयर के लिए बने रैंप हो या फिर बस के संचालक से लेकर क्लास में अध्यापक का व्यवहार, वहीं इसके उलट भारत में विकलांग नागरिक बुनयादी सुविधाओं से भी वंचित है। हमारा इन्फ्रास्ट्रक्चर केवल सामान्य लोगों को ध्यान में रखकर बनाया जाता है उसमे विकलांग लोगों के लिए कोई सुविधा मुहैया नहीं कराई जाती। इसीलिए लायला के लिए न्यूयॉर्क में सब कुछ भारत से अधिक सामान्य और सहज है। लेकिन क्या विकलांग व्यक्ति की कामुकता के प्रति भी पश्चिम इतना सामान्य है जितना बोस दिखाना चाहती हैं। अपने जीवन का अधिकतर समय पश्चिम के देशों में बिताने वाली सोनाली बोस की बहन मालिनी चिब के एक कथन से इस सवाल का उत्तर मिल जाता है जिसमे वह कहती है कि “I am 45 year old female। Above average (double MA) attractive, witty। Yet I have never had a romantic relationship। I want to be touched। I want to be loved romantically। I want to experience my sexuality। But I can’t। Because I am disabled।” वह आगे कहती है कि “Even in the West, which is far more advanced in terms of access and facilities — sexuality is still a taboo।”
मालिनी की शिकायत से यह स्पष्ट है कि एक विकलांग व्यक्ति के लिए अपनी कामेच्छाओं को संतुष्ट करना जितना मुश्किल भारत में है उतना ही मुश्किल पश्चिम में भी क्योकि वहाँ लोग आपकी कामेच्छाओं को लेकर सहज हो सकते हैं उस पर बात कर सकते हैं लेकिन वहां भी लोग एक विकलांग व्यक्ति को अपना साथी बनाना पसंद नहीं करते। इसी सम्बन्ध में मालिनी आगे कहती हैं कि “I have had a few close relationships with men where we discussed everything from my body, to disabled people having sex। But when it came to having sex with me, they quickly changed the topic by declaring, “You are not my type”। Of course, deep down I feel rejected।”
लेकिन फिर भी न्यू यॉर्क जाने के बाद लायला के पास अपनी यौनेच्छा को शांत करने के अनेकों मौके आते हैं। चाहे वह अपने सहायक सहपाठी को किस करना हो उसके साथ सेक्स करना हो या फिर खानुम के आने से अपनी कामुकता के एक नए पहलू से परिचित होना। वहाँ जाकर लायला को अपनी अधूरी कामेच्छाओं को पूरा करने, अपने शरीर को महसूस करने और अपनी अव्यक्त कामुकता और अस्मिता के एक नए पहलू को जीने का भरपूर मौका मिलता है। मार्गरीटा पीने के बाद जोकि लायला की कामुकता के लिए उत्प्रेरक का काम करती है, लायला खानुम के स्पर्श को महसूस करती है और खानुम के प्रति आकर्षित होती है। खानुम के साथ अन्तरंग पल बिताने के बाद लायला को अपने समलिंगी होने का अहसास होता। दोनों एक विश्वास के बंधन में बंध तो जाते है। लेकिन फिर भी विश्वास, सच्चे प्यार या फिर केवल फायदे के लिए बनाये गए सम्बन्ध की यह कशमकश जारी रहती है। शायद इसीलिए खानुम के साथ सम्बन्ध में रहते हुए भी लायला मौका पाते ही अपने सहपाठी टाइपिस्ट जार्ड(विललियन मोसेले) के साथ हमबिस्तर हो जाती है। लायला को तभी यह भी पता चलता है कि वह केवल लेस्बियन नहीं है। लायला समाज में इतरलिंगी संबंधो की वैधता को अपनी कामुकता के एक नए आयाम के बूते पर चुनौती देती है। लायला अपनी कामुकता का भरपूर आनंद लेती है। खानुम से मिलने के बाद लायला को अहसास होता है की उसे न केवल अपनी शारीरिक अवस्था से संघर्ष करना है बल्कि अपनी सेक्सुअल आइडेंटिटी के लिए भी खुद से और समाज से संघर्ष करना है, जैसे खानुम कर रही है। खानुम पाकिस्तानी-बंगलादेशी मूल की लड़की है और भिन्न यौनिक उन्मुखीकरण यानि की लेस्बियन होने के कारण वह अपने परिवार और समाज से निरंतर लड़ाई लड़ रही है। अपने लेस्बियन होने की बात को अपने परिवार वालों पर जाहिर होने की घटना को याद करते हुए खानुम लायला को बताती है कि ‘अम्मी मुझे डॉक्टर के पास ले गई जैसे तो मुझे कोई मर्ज़ है जिसका इलाज हकीम करते हैं।’ इस पर लायला का यह कहना कि ‘मेरी आई को तो हार्ट अटैक आ जाएगा।’ विभिन्न देशों और समाजों की समलैंगिकता के प्रति सोच को बताते हैं। आज भी इतरलिंगी लोगों से भिन्न उन्मुखीकरण वाले लोगों को समाज मनोरोग से ग्रस्त मानता है। इस दृश्य के बाद के दृश्य में लायला लाइब्रेरी की सेल्फ से ‘अ वीमेन लाइक दैट’ किताब पढ़ने के लिए उठाती है। जिसका इस्तेमाल बोस ने लायला को अपनी कामुकता के नए आयाम को समझने के लिए किया है। इसके बाद की फिल्म में लायला पर इस किताब का प्रभाव साफ़ नज़र आता है। जॉन लारकिन द्वारा सम्पादित इस किताब में विभिन्न लेस्बियन और बाईसेक्सुअल लेखकों ने अपने जीवन के अनुभवों को साझा किया है। इसी कारण लायला के लिए खानुम के साथ रहते हुए भी जेफ्फेरी के साथ सम्बन्ध बनाना कामुक प्रयोगों की दृष्टि से स्वाभाविक होता है।
सोनाली बोस ने खानुम और लायला के समलैंगिक सम्बन्ध का ट्रीटमेंट किसी भी सामान्य इतरलैंगिक सम्बन्ध की तरह ही किया है। जिसमे प्रेम में उन्मत्त दो प्रेमिकाएं है, आरोप-प्रत्यारोप है, आँसू है। हालाँकि फिल्म में समलैंगिक सम्बन्ध में रह रही दोनों औरते विकलांग हैं लेकिन फिर भी फिल्म इनके सम्बन्ध को असामान्य की श्रेणी में नहीं रखती बल्कि अन्य फिल्मों द्वारा फिल्माए गए प्रेम संबंधों की तरह ही इसे फिल्माती हैं।
ऐसे तो बोस की यह फिल्म समलैंगिक संबंधों को दर्शाने वाली हिंदी सिनेमा की पहली फिल्म नहीं है लेकिन फिर भी समलैंगिकता के साथ अपने ट्रीटमेंट की वज़ह से यह फिल्म महत्वपूर्ण ज़रूर है। वैश्वीकरण के प्रभाव और लैंगिक अल्पसंख्यकों के द्वारा लगातार अपने अधिकारों के लिए किये जा रहे संघर्ष के फलस्वरूप हिंदी सिनेमा में नब्बे के दशक में प्रत्यक्ष नैरेटिव के रूप में समलैंगिकता का चित्रण होना आरम्भ हुआ। समलैंगिकता को अपना विषय बनाने वाली फिल्मों में दीपा मेहता की ‘फायर’(1998), करन राजदान की ‘गर्लफ्रेंड’(2004), मधुर भंडारकर की ‘पेज थ्री’(2005), मधुर भंडारकर की ‘फैशन’(2008), अनुराग बसु की ‘लाइफ इन अ मेट्रो’(2007), श्याम बेनेगल की ‘वेलकम टू सज्जनपुर’(2008), रीमा कागती की ‘हनीमून ट्रेवल्स प्रा।लि।’(2007), पार्वती बाल गोपालन की ’प्यार का सुपरहिट फार्मूला’(2003), दीपा मेहता की ‘वाटर’(2005), संजय शर्मा की ‘न जाने क्यूँ’(2010), जोया अख्तर की ‘लक बाय चांस(2009)’, अपर्णा सान्याल और अरुणिमा शंकर की ‘टेढ़ी लकीर’(2004), नागेस कुकुनूर की ‘तीन दीवारें’(2003), तरुण मनसुखानी की ‘दोस्ताना’(2008), ओनिर की ‘माय ब्रदर निखिल’(2005) और ‘आइ ऍम’(2010) आदि प्रमुख हैं। लेकिन इनमे से कुछेक फिल्मों को छोड़कर सिनेमा में समलैंगिकता की एक स्टीरियोटाइप छवि को ही दर्शकों के सामने परोसा गया। ‘दोस्ताना’ और ‘कल हो न हो’ जैसी फिल्मों में जहाँ कहानी में हास्य पैदा करने के लिए ऐसे संबंधों का प्रयोग किया गया तो वहीं ‘गर्लफ्रेंड’ जैसी फिल्मों में समलैंगिकों को हिंसक और मनोरोगियों के रूप में दिखाया गया। जबकि बोस की फिल्म समलैंगिकता और द्विलैंगिकता को एक सामान्य व्यवहार के रूप में हमारे सामने रखने के कारण महत्वपूर्ण हो जाती है। वह अपने कलाकारों को हिंसक नहीं बनाती, उनका मखौल नहीं उड़ाती और न ही उनके प्रेम को इतरलिंगीयों के प्यार से हेय बनाकर प्रस्तुत करती हैं। दीपा मेहता की ‘फायर’ में दिखाई गयी समलैंगिकता भी परिस्थितिजन्य है जोकि पतियों के द्वारा उपेक्षा करने पर पनपती है लेकिन बोस के यहाँ ऐसा नहीं है। लायला का लेस्बियन होने का चुनाव किसी परिस्थिति के दबाव में लिया गया चुनाव न होकर एक स्वतंत्र और सोचा समझा चुनाव है तो वही खानुम का यौनिक उन्मुखीकरण भी स्वाभाविक है। अक्सर समलैंगिक संबंधों को केवल शरीर की आवश्यकता से जोड़कर दिखाया जाता है लेकिन लायला और खानुम का सम्बन्ध किसी भी इतरलिंगी सम्बन्ध की तरह ही सामान्य है।
जैसे-जैसे समाज में विभिन्न सेक्सुअल पहचानों ने अपने अधिकारों को लेकर आवाज़ उठानी शुरू की वैसे ही सिनेमा आदि माध्यमों ने भी उन पर बात करनी शुरू कर दी है। अब भी देश में समलैंगिकता को अवैध माना जाता है। हमारा दंड संहिता समलैंगिक संबंधों को अप्राकृतिक कहकर स्वीकार नहीं करता है। ऐसे में सिनेमा आदि माध्यमों पर यह जिम्मेदारी आ जाती है कि उनके द्वारा इन सेक्सुअल पहचानों के चित्रण में लापरवाही न बरती जाए। फिल्म के निर्माता निर्देशकों को ओनिर और सोनाली बोस जैसे निर्देशकों से प्रेरणा लेनी चाहिए और सीखना चाहिए कि समलैंगिकता जैसे नाज़ुक मुद्दों पर किस तरह से काम किया जाये। लेकिन बोस का मुख्य लक्ष्य कोई समलैंगिक फिल्म बनाना न होकर एक स्त्री की कामुकता के विविध आयामों को आकार देना है। फिल्म की बनावट पर बात की जाये तो फिल्म के अन्तराल के पहले हिस्से का प्रयोग बोस ने अपने किरदारों और वातावरण को स्थापित करने के लिए किया है जिसे वह अन्तराल के बाद भी थोडा सा खींचती है ताकि फिल्म में तारतम्यता बनी रहे। जोकि कुछ हद तक उचित भी लगत्ता है लेकिन लायला की जिंदगी में और नयी घटनाएँ घटित करने के चक्कर में बोस ने कथानक में ज़रूरत से ज्यादा संघर्षों और युक्तियों का प्रयोग कर दिया है जोकि फिल्म को त्रासद बना रहा है। शायद यही कारण रहा कि फिल्म का दूसरा हिस्सा घटनाओं की अधिकता और संवादों में एक तरह की एकरेखीयता के कारण प्रशंसा पाने में असफल रहा। जैसे लायला की माँ रेवती को कैंसर होना, उस पर लायला की खुद की विकलांगता और सेक्सुअल आइडेंटिटी के लिए निरंतर संघर्ष और फिर लायला को उसकी कामुकता के एक और आयाम से परिचित करवाने वाली उसकी समलैंगिक साथी खानुम का पाकिस्तानी-बंगलादेशी मूल का होने के बाद अँधा भी होना। दरअसल फिल्म के दूसरे हिस्से में एक के बाद एक ऐसी घटनाओं की धका-पेल से फिल्म अपने मुद्दे से भटकती सी लगती है और जाहिर है इससे फिल्म का वज़न भी कुछ कम ही हुआ है।
फिल्म के दूसरे हिस्से में एक के बाद एक त्रासद घटनाओं का यह सारा ताना-बाना कई बार ऐसा संकेत करता है जैसे कि फिल्म बनाने वाले दर्शकों से अपने किरदारों के लिए सांत्वना जुटाने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते जबकि फिल्म के आरम्भ में स्थिति इसके बिलकुल उलट थी। अच्छे से बोल और चल न सकने वाले मुख्य किरदार के बावजूद भी फिल्म में जीवन्तता थी जिसका फिल्म के आखिरी हिस्से में पूरा अभाव दीखता है। ऐसे में केवल कल्कि ने फिल्म को भटकने से बचाने की कोशिश की है जिसमे वह काफी हद तक सफल भी हुई है। इन त्रासद घटना चक्रों के बीच अपनी कामुकता के संबध में अडिग और निडरता के साथ विभिन्न आयामों को खोजने वाली लड़की के महत्वपूर्ण और संवेदनशील चित्रण के माध्यम से दर्शकों को फिल्म के साथ जोड़े रखा है। कल्कि ने लायला के किरदार को जिया है और यही कारण है कि दर्शक लायला की कहानी में यकीन कर पायें।
लायला को अपनी कामुकता को अभिव्यक्त करने पर अपनी माँ तक से नकार मिलती है। एक समेस्टर ख़त्म हो जाने के बाद जब लायला खानुम को लेकर अपने घर दिल्ली आती है जो वहां आकर परिवार का एक हिस्सा बन जाती है। लायला उसके हर फैसले में उसका साथ देने वाली माँ को अपने और खानुम के सम्बन्ध के बारे में बताने की कोशिश करती है जो लायला की बात को किसी और ही अर्थ में ले लेती हैं। वैसे फिल्म में लायला के साथ यह कई बार होता है क्योंकि लायला लोगों को उनकी कल्पना के परे की बातें कहकर अक्सर झटका देती रहती है। लायला माँ से हिंदी और अंग्रेजी के मिले-जुले लहज़े में कहती है कि ‘माँ आइ एम बाई’ तो माँ ‘बाई’ का अर्थ काम वाली बाई समझकर मध्यवर्गीय भारतीय परिवार में घरेलू कामों में फंसी स्त्री के शोषण के अर्थ में लेकर इसका जवाब देती है कि ‘मै क्या कम बाई हूँ।’ यद्यपि ऐसे अप्रत्याशित मौके पर ऐसा प्रतीकात्मक हास्य पैदा करने का बोस का अंदाज़ और कल्कि और रेवती की बेहतरीन अदाकारी वाकई काबिल-ए-तारीफ है।
लायला जब खानुम के समक्ष यह स्वीकारती है कि उसके साथ होते हुए भी उसने एक दूसरे लड़के के साथ सम्बन्ध बनाये और खानुम को धोखा दिया तो दोनों का सम्बन्ध हमेशा के लिए ख़त्म हो जाता है। लेकिन इस घटना से लायला को यह सीख मिलती है कि जीवन का सच्चा सार हमारे भीतर ज्ञान की रौशनी के होने में ही है। हमें ज़रूरत है तो बस इस रौशनी को अपने बाह्य जीवन और आसपास के लोगों में प्रसारित करने की। फिल्म लायला के कामुकता के विविध आयामों को खोजने के साथ-साथ आत्म अन्वेषण के बारे में भी है। फिल्म का आखिरी दृश्य इसलिए और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है जब वह अपनी माँ के देहांत और खानुम के द्वारा छोड़े जाने पर अकेले बाहर निकल जाती है मार्गरीटा पीने क्योकि अब उसे खुद को सम्पूर्ण बनाने के लिए किसी सहारे की आवश्यकता नहीं रहती। लायला का सेल्फ उसके लिए सबसे ज़रूरी हो जाता है। यह फिल्म का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण दृश्य है लायला के लिए भी और दर्शकों के लिए भी। इससे बेहतर प्रतीकात्मक अंत शायद ही कुछ और होता।
लायला के किरदार पर उसके यौन उत्सुक मन एवं अति सक्रिय ‘लिबिडो’ के कारण यह भी आरोप लगाये गए कि लायला अपनी यौनिकता से आगे कुछ और क्यों नहीं सोच पाती? ऐसे लोगों को यह समझता होगा कि कामुकता एक मनुष्य के जीवन का अभिन्न अंग है जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। दरअसल कामुकता और कामुक प्रबोधन हमारी अस्मिता के अन्वेषण में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अपनी यौनिकता के विषय में जानने की उत्सुकता और शरीर से मिलने वाला कामुक आनंद हमारे विकास का एक महत्वपूर्ण पहलू है। इसलिए यदि लायला अपनी कामुकता को लेकर नित नए प्रयोग करती है तो किसी भी अन्य मनुष्य की तरह ऐसा करना सामान्य ही है। इसमें कुछ भी अटपटा नहीं है क्योकि आप विकलांग है तो इसका यह अर्थ तो कतई नहीं लिया जा सकता कि आपकी कामुकता भी विकलांग स्थिति में ही होगी। कई बार विकलांग लोगों को अपनी कामुकता को जानने समझने का मौका ऐसे नहीं मिल पाता जैसे एक सामान्य मनुष्य को मिलता है। वे लोग कामुक आनंद से वंचित रहते है इस कारण भी अक्सर इन लोगों में सेक्स को लेकर हताशा आ जाती है। ऐसा सामान्य लोगों के साथ भी संभव है। एक कहावत है कि ‘कला सुखद स्थिति को व्यथित कर देती है और व्यथित को शांतिप्रदान करती है।’ बोस की फिल्म इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। फिल्म उन सभी व्यथित विकलांगों को हौसला और हिम्मत देती है जिनकी कामुकता को समाज टैबू मानता आया है और शांतिप्रद जीवन जी रहे समाज के उन सभी लोगों को बैचैन करती है जिनके लिए स्त्री और विकलांगों के द्वारा अपनी कामुकता की अभिव्यक्त करना और उससे आनंद प्राप्त करना एक असामान्य घटना हैं। भारत में कामुकता के इर्द गिर्द बनी फ़िज़ूल की मर्यादाओं के कारण स्त्रियाँ अपनी कामुकता को नकारती रहती हैं। इस नकार का सीधा सा अर्थ है कि यदि कोई स्त्री अपनी यौन संतुष्टि को पूरा करने के लिए साथी की तलाश करती है तो हमारे समाज में उसे चरित्रहीन और भौंडा समझा जाता है।
एक मनुष्य होने के कारण हमारी कामुकता बहुत ही जटिल रूप में हमारे सम्पूर्ण व्यक्तित्व, स्वास्थ्य और ख़ुशी से जुड़ी है। यदि व्यक्ति के जीवन में यौन संतुष्टि है तो इस बात से काफी हद तक उस व्यक्ति के जीवन से संतुष्ट होने का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। इसी कारण मानव जीवन के इस पहलू को पूरी तरह नकारा जाना व्यक्ति के भीतर एक कभी न भरे जाने वाला खालीपन पैदा कर देता है।
सिनेमा में अन्य सभी ललित कलाओं से अधिक जन के साथ संवाद स्थापित करने की क्षमता है। यह विचारधाराओं को जन मस्तिष्क में गढ़ने का काम भी करता है, सामाजिक बदलाव की मुहिम में सक्रिय भागीदार भी होता है। इसका स्पष्ट कारण है कि प्राय: लोग फ़िल्मी सितारों की हर बात का अनुकरण करते हैं। कई बार जहाँ कंपनियाँ अपने उत्पाद की बिक्री बढ़ाने के लिए फ़िल्मी सितारों से अपना विज्ञापन करवाकर लाभ कमाती हैं तो वही सरकार जनहित में जारी विज्ञापनों से भी इन फ़िल्मी हस्तियों को जोड़ती है ताकि लोग दिखाई जा रही बात पर अतिररिक्त ध्यान दे। कुछ अभिनेता जैसे आमिर खान स्वयं भी सामाजिक बदलाव के लिए आगे आ रहे हैं। स्टार प्लस पर दिखाया जाने वाला ‘सत्यमेव जयते’ आमिर का एक ऐसा ही सराहनीय प्रयास है। ऐसे में स्पष्ट है कि फिल्मों के माध्यम से स्त्री कामुकता का जैसा चित्रण किया जायेगा समाज में इनकी स्थिति में उसी के अनुरूप परिवर्तन आयेंगे।
‘मार्गरीटा विथ अ स्ट्रॉ’ की लायला हिंदी सिनेमा के लिए एक उदहारण है जो हमारे सिनेमा को यह सीखता है कि स्त्री की कामुकता को परदे पर कैसे फिल्माया जाए। साथ ही स्त्रियों को भी यह समझना होगा कि कहीं देह की स्वतंत्रता के नाम पर वह पुरुषवादी मानसिकता का शिकार तो नहीं हो रहीं हैं। मार्गरीता की तीनों मुख्य स्त्री पात्र लायला, लायला की माँ और खानुम, अपने व्यक्तित्व और कामुकता की खुद मालकिन हैं। यह फिल्म हमें एक स्त्री की कामुकता के हर संभव आयाम से परिचित करवाती है। स्त्री की कामुकता को सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक कारक प्रभावित करते है। सत्ता के केंद्र में बैठा पुरुष स्त्री की कामुकता को अपने नियंत्रण में रखना चाहता है ताकि वह सत्ता पर अपना अधिकार बनाये रख सके। फिल्म में लायला की कामुक अभिव्यक्ति और उसकी कामुक इच्छाओं के आड़े यह सारे तंत्र और ताकतें आती तो है लेकिन वह इन सबकों रौंदती हुई अपनी धुन में आगे बढ़ती चली जाती है। वह विभिन्न देशकालों में अपनी कामुकता के साथ बेख़ौफ़ होकर नए-नए प्रयोग करने से घबराती नहीं।
प्राय: ऐसी फ़िल्में व्यवसाय करने में उतनी सफल नहीं होती और उनकों बाकि मसाला फिल्मों जैसे दर्शक नहीं मिलते इसीलिए ऐसी फिल्मों पर बात करना और अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक इस प्रकार के सकारात्मक सिनेमा को पहुँचाया जा सके और स्त्री देह को वस्तु मानकर व्यवसायीकरण के लिए इस्तेमाल करने वाले निर्माता निर्देशकों को स्त्री कामुकता को सही मायनों में परदे पर दर्शाए जाने की प्रेरणा मिले। एक विकलांग स्त्री की कामुकता को भी कैसे इतने जीवंत तरीके से फिल्माया जा सकता है यह हमारी फिल्मों को ‘मार्गरीटा विथ अ स्ट्रॉ’ से सीखना चाहिए।
केवल भारतीय समाज ही नहीं बल्कि सदियों से दुनिया के हर समाज में स्त्रियाँ अपनी देह पर अपना अधिकार पाने के लिए संघर्षरत है। इसीलिए ‘मार्गरीटा विथ अ स्ट्रॉ’ जैसे फिल्मों के माध्यम से सिनेमा को इस संघर्ष में स्त्रियों का साथ देना चाहिए। साथ ही हिंदी सिनेमा की ऐसी पहलों का विरोध करने वाले पितृसत्तात्मक समाज के ठेकेदारों एवं स्वयं को भारतीय संस्कृति और हिन्दू संस्कृति का संरक्षक कहने वाले समूह और लोगों को यह समझना होगा कि इसी भारतीय हिन्दू धर्म की प्राचीन संस्कृति ने हमें हमारी कामना का उत्सव मानना सिखाया है। ऐसे में स्त्री की कामना को कैद कर अपने हितों के लिए प्रयोग करना सरासर गलत है।
1. Hysteria was the first mental disorder attributed to women (and only women) — a catch-all for symptoms including, but by no means limited to: nervousness, hallucinations, emotional outbursts and various urges of the sexual variety
2. http://www.ncbi.nlm.nih.gov/pmc/articles/PMC3093545/
3. http://www.ncbi.nlm.nih.gov/pmc/articles/PMC3093545/
4. http://femina.in/editors-blog/intimacy-for-the-differently-abled-2677.html
5. I’m single because of my body by Malini Chib
Mumbai Mirror | Nov 3, 2011
6. एक प्रकार का पेय पदार्थ ( लायला की पसंदीदा कॉकटेल ड्रिंक)
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