इस पाठशाला में पुरुषों को मर्द बनाने के लिए, मर्दानगी की दौड़ में दौड़ने के लिए तैयार किया जाता है। सोचने की बात तो ये है कि इस दौड़ के अंतिम चरण का कोई एक पैमाना नहीं है, जिसको हासिल करके पुरुष अपनी मर्दानगी को साबित कर पाए। ये पैमाने स्थान, समय, सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के हिसाब से बदलते रहते हैं। शारीरिक तो कहीं यौनिक, जाति तो कहीं वर्ग के हिसाब से इसके पैमाने बन जाते हैं। मर्दानगी के पैमानों को बनाने में अहम भूमिका सामाजिक, सांस्कृतिक मान्यताएं और मीडिया बख़ूबी निभा रहे हैं।अगर हम अपने बचपन की बात करें तो जब एक लड़का रोता है तो उसे ये कहकर चुप कर दिया जाता है कि तुम तो शेर बेटे हो, तुम मर्द हो और मर्द कभी रोते नहीं। बार-बार इस पाठ को दोहराया जाता है ताकि उसे ये पाठ याद हो जाए। फिर सिखाया जाता है कि अपनी बहनों की सुरक्षा करो, चाहे बहन उम्र में या कद काठी में बड़ी ही क्यूं ना हो।
हमें हमेशा निडर ओर कठोर बनना सिखाया जाता है। हम ये कभी नहीं कह पाते कि मुझे भी डर लगता है और मुझे भी सुरक्षा की ज़रूरत है। यौनिकता (सेक्शुएलिटी) को लेकर ऐसे पाठ सिखाया जाता है कि यौनिकता को भी हिंसात्मक रूप से देखने और समझने लगते है। इस सब के चलते यौनिकता एक कठिन लड़ाई जैसी लगने लगती है। इतना ही नहीं ज़िंदगी भर असली मर्द बनाने के लिए कुछ पुरुषों को मर्दानगी का मानक बनाकर एक उदाहरण के रूप में पेश किया जाता है। अगर कोई उस पैमाने तक पहुंच जाए तो ठीक, नहीं तो ‘नामर्द’ का टैग लगा दिया जाता है।
‘नामर्द’ के इस टैग से बचाने का दावा करने वाले अनेक विज्ञापन हम हर जगह देखते हैं। चाहे सड़क के निकट ‘मर्दाना ताकत’ के नाम से बने दवाखाने हो या लिंग के साइज को बढ़ाने संबंधी सार्वजनिक स्थलों पर लगे पोस्टर। मीडिया में रोज़ाना हम देखते हैं कि मर्दानगी को जोखिम और हिंसा रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। विज्ञापनों में हम देख रहे है कि मार्केटिंग के लिए जोखिम भरे तरीकों से असली मर्द की परिभाषा तय की जा रही है और चिंता की बात तो ये है कि ये तरीके दिन-प्रतिदिन और कठिन बनते जा रहे हैं। एक तरफ तो हमारी फिल्में पुरुषों के लिए मर्दानगी के उदाहरण बनाती हैं वहीं दूसरी ओर उत्पादन को बढ़ाने के लिए कंपनियां ऐसे विज्ञापन देती हैं जैसे उनके प्रॉडक्ट को इस्तेमाल किए बिना पुरुषों की मर्दानगी अधूरी है। फिर चाहे तेज़ रफ्तार से बाइक चलाना हो या परफ्यूम लगाते ही कुछ भी कर जाने का जोखिम उठाना हो। भला एक परफ्यूम कैसे मर्दानगी का मानक बन सकता है? सत्ता के इस खेल में ये समझना बहुत ज़रूरी है कि मर्दानगी की इस पाठशाला से फायदा और नुकसान किसे हो रहा है।
सही बात तो यही है कि पितृसत्ता के अलावा किसी को इसमें कोई फायदा नहीं है। मर्दानगी पितृसत्ता की जड़ों को मजबूत करने में सहायक है। मर्दानगी की वजह से लड़कियों और महिलाओं को एक चीज़ की तरह दिखाया जा रहा है और साथ ही हिंसा भी लगातार बढ़ती जा रही है। लेकिन ताज्जुब की बात तो ये है कि जिस मर्दानगी की दौड़ में पुरूष दौड़ रहे है, वो मर्दानगी पुरुषों को भी प्रभावित कर रही है। इस दौड़ में आगे रहने का दवाब पुरुषों को हीन भावना का शिकार बना रहा है। पुरुषों में भावनात्मक पहलू खत्म हो रहा है, सिर्फ हिंसा और नफ़रत को बढ़ावा मिल रहा है। मर्दानगी की ये पाठशाला पूरे विश्व के लिए बहुत बड़ा खतरा बनती जा रही है। प्यार, शांति और इंसानियत के लिए ये ज़रूरी है कि हम ऐसी पाठशालाओं को बंद कर दें।
यूथ की आवाज और थंबनेल से साभार
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