जंग खोज निकालता है कोई और खूबसूरत सी चीज

हर्ष भारद्वाज

सरस्वती विद्या मंदिर, फ़ारबिसगंज के छात्र है.

यकीन नहीं होगा आपको कि ये दसवीं में पढ़ रहे एक किशोर की कविताएँ हैं. 


एक दूसरे से प्रेम करते हुए 


मैं चाहता हूँ
कि हम पकड़े जाएं
एक दूसरे से प्रेम करते हुए
और मार दिए जाएं
किसी बन्दूक की आवाज़ पर
या किसी छूरी की चमचमाहट से
या किसी रॉड के भार से।

मैं चाहता हूँ
हम मरने से पहले लिपट जाएं एक दूसरे से
और छू लें एक दूसरे की सांसों को,
पहली बार!
और हमारे बदन में बची थरथराहट
कोई कसर न छोडे
एक दूसरे के
अधमरे,
खूनसनी मरी देह को
पूरा मारने में!

मैं चाहता हूँ
की हम दफना दिए जाएं ,
मेरी देह के ऊपर देह,
उसी आम के बगीचे में
जहां हम छुप -छुप के मिलते थे
और साथ बैठकर बीड़ी पीते थे।

मैं चाहता हूँ
की हम मार दिए जाएं
बहुत चुपके से
बिना किसी शोर के
और फिर हमें कभी कोई खोजे ना।

मैं नहीं चाहता
कि हमारे दफ्न हड्डियों पर
आज से डेढ़ सौ साल बाद शोध हो।
मैं चाहता हूँ कि आज से डेढ़ सौ साल बाद
अगर कोई खोज निकाले हमारी कब्र
और खोदे उसे
तो मेरे छाती के एक हड्डी से लटक रहा हो तुम्हारे कानों का एक झुमका।

जंग खोज निकालता है कोई और खूबसूरत सी चीज 

तुम जानते हो,
मैं कश्मीर हूँ!
मेरे जिस्म पर बहुत उतार चढ़ाव हैं
मेरे जिस्म से फूटते हैं अनगिनत प्यासे झरने।
मैं बहुत खूबसूरत हूँ।

पर क्या देखा है कभी तुमने
मुझे रोते हुए?
और क्या देखा है तुमने कभी
मेरे कटे हुए स्तनों को?
(इन्हें किसने काटा?)
क्या तुम जानते हो
मेरी इस गोरी देह पर क्या जमा है?
यह लाल काला जमा हुआ पहाड़ नहीं
या कोई सूखा झरना नहीं,
या मेरी देह का मैल नहीं!
यह मेरे भीतर से बह रहा खून है
जो अभी भी लाल है
और जमकर काला सा है!
(मैं सोचती हूँ,
की कैसे बचा हुआ है
अभी भी मेरे अंदर खून
वह भी लाल!)

तुम जानते हो
मेरे दोनों हाथों में बारूद है
जो मैंने अपने ही खून से बनाया है,
जिसे मैं अपनी  ही देह पर
जलाती हूँ।
पर क्या करती मैं
खुद पर बम फोड़ने के सिवाय?
वर्षों से होता आया है मेरा बलात्कार
मेरे अपने हीं कहे जाने वाले घर में,
मेरे अपने घर के ही कहे जाने वाले सदस्यों के द्वारा,
मेरी सुरक्षा कर रहे जवानों के द्वारा!

तुमने कभी महसूस किया है,
कि कैसा लगता है जब
कोई बहुत बड़ा इंसानों का झुण्ड
कांधे पर बन्दूक लिये,
तुम्हारी जाँघों को कुचलता है,
अपने जूतों से,
और कुचलता हुआ,
देह के ऊपर चढ़ता है?
और कैसा लगता है
जब तुम्हारी छाती के किनारों पर छिड़ी हो जंग,
और तुम्हारी जिस्म के लिये हो वह जंग?

मैं तो पूरी नग्न हूं,
तुम देख सकते हो
मेरी देह के उतार चढ़ाव पर
खुनें खड्डे!
यह बम की आवाज से बने खड्डें,
मैंने खुद भी किये हैं,
और औरों को भी करने दिए हैं।

क्या तुम सोच सकते हो
की क्यूँ काट दिए मैंने अपने स्तन?
मैनें सोचा की मेरी खूबसूरती ही है
जंग की शुरुआत,
और जंग का अंत ही है मेरी आज़ादी!
पर वे नहीं रुके,
और नहीं रुके उनके हिलते जांघ,
मेरी जाँघों के बीच!

इसीलिए मैं मार रही हूँ खुद को,
अपने ही बनाए बम से
अपने ही धारदार नाखूनों से।
और मैं जानती हूँ
मेरा मरना घोषित किया जाएगा
आत्महत्या!
और बड़े ही आसानी से किया जाएगा ऐसा।

पर क्या कोई जंग कभी खत्म हो सकता है?
नहीं!
वह बस खोज निकालता है
कुछ और
बहुत हीं खूबसूरत चीज़!

आजादी 

हम बुन लेंगे आज़ादी,
सारी बेहूदगी के परे ,
नंगेपन के रेशों से
हम बुन लेंगे अपनी आज़ादी।

जिस तरह मर्द खोदते हैं खेत
हाथों में नसें उगाकर,
उसी तरह हम भी उगाएंगे नस,
अपने हाथों में
और नसों से बुनेंगे आज़ादी।

अब सूखे ख्वाबों और लिपस्टिक से हमारा पेट नहीं भरता है
अब हमें चबाना है आज़ादी।
पर किस तरह की आज़ादी पहनेंगे हम?

नंगेपन को अपना लिबास बना लें
पहनेंगे ऐसी आज़ादी!
मुंह में गाली भर जाए
घोटेंगे ऐसी आज़ादी!

अगर काट दिए जाए हमारे स्तन,
अगर फ़ाड़ दिए गए हमारे कपड़े,
तो हम बहुत से बहुत हाथ पैर मार सकते है,
और कुछ बेसी नहीं कर सकते।
(क्योंकि उनकी अपनी ऐसी भूख  है,
जिसे सिर्फ वे खुद मिटा सकते हैं और कोई नहीं)
लेकिन उन खून सने  स्तनों को लेकर हम,
घुस पाएं अपने ही घरों में
तो होंगे आज़ाद हम (और तुम भी)!
हमारा प्यार हमसे मुँह न फेर ले
हमारे फटे हुए स्लीव देखकर
तो होंगे आज़ाद हम (और तुम भी)!

हमें प्यार करने की आज़ादी हो ,
शादी करने की हो और उससे भी बेसी
तलाक लेने की हो आज़ादी हमें!
होगी ऐसी आज़ादी कि
छातियों पे मर्द उगाएंगे हम,
अनगिनत मर्द!

जिस तरह कुचलता आया है ,
हमारे समाज का ‘सुशील’ मर्द
अनगिनत औरतों के
गिने चुने अंग,
वैसी आज़ादी के साथ अब हम भी जिएंगे!
बहुत घिनौनी होगी , तुम्हारे लिए ऐसी आज़ादी
पर क्या कभी खुद को सूंघा है तुमने,
कि कितनी औरतों की बू आती है तुमसे?

हमें आज़ादी होगी अभद्रता की!
हमें फिक्र न होगी साइकिल चलाने में तब।
हमें शर्म ना आएगी, पेड़ों पर चढ़ने में तब।
कोई आगे से देखता है तो देखे
उसकी आँखें है ,
उसकी मर्ज़ी है।
हम आज़ादी छीनेंगे,
इज़्ज़त जैसे शब्द से!
और आज़ादी होगी हमें कविताएँ छानने की,
मनमर्ज़ी करने की,
आधी रात ट्रेन पकड़ने की!
हमारे काले या गोरे तन ,
किसी को चुभते हैं तो चुभे
इसमे हमारी क्या गलती है?

हम बरस जाएंगे,
बिजली की तरह
इस समाज पर
नंगे या ढके!
चाहे लोग हँसे या रोए,
पर अब हम घरो मे सहेज़ कर
नही रखने देंगे अपने यौवन को।

हमे नही चाहिए आज़ादी,
किसी की इच्छाओं को दबाने की
हमे नही चाहिए आज़ादी, रेप करने की
और नही चाहिए आज़ादी सड़क पर मूतने की!
किसी से डरकर नही चाहते हम रोड पर ना मूतना,
बल्कि इसलिए नही चाहते हम ऐसा करना कि हमें पता है,
कि दुर्गंध क्या होता है
और क्यों होता है!
(जो हमारे सुशील मर्दों को नही पता)

पर हमारी आज़ादी का दुश्मन  है कौन?
बस एक शब्द ही न
‘इज़्ज़त’!
हम जीत लेंगे उस पर,
ऐसी आज़ादी
कि वो शब्द फिर कभी नही दोहराया जाएगा!
उसके अक्षर
ब्लैक होल में दुबक जाएंगे!

स्त्रीकाल का संचालन ‘द मार्जिनलाइज्ड’ , ऐन इंस्टिट्यूट  फॉर  अल्टरनेटिव  रिसर्च  एंड  मीडिया  स्टडीज  के द्वारा होता  है .  इसके प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें : 

दलित स्त्रीवाद , मेरा कमराजाति के प्रश्न पर कबीर

अमेजन पर ऑनलाइन महिषासुर,बहुजन साहित्य,पेरियार के प्रतिनिधि विचार और चिंतन के जनसरोकार सहित अन्य 
सभी  किताबें  उपलब्ध हैं. फ्लिपकार्ट पर भी सारी किताबें उपलब्ध हैं.

दलित स्त्रीवाद किताब ‘द मार्जिनलाइज्ड’ से खरीदने पर विद्यार्थियों के लिए 200 रूपये में उपलब्ध कराई जायेगी.विद्यार्थियों को अपने शिक्षण संस्थान के आईकार्ड की कॉपी आर्डर के साथ उपलब्ध करानी होगी. अन्य किताबें भी ‘द मार्जिनलाइज्ड’ से संपर्क कर खरीदी जा सकती हैं. 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles