कोई भी रचना-खासकर कहानी और उपन्यास-एक ऐसी खुली संरचना होती है (होनी चाहिए) जिसमें पाठक, चाहे तो, कहीं से भी प्रवेश कर सके। पाठक के लिए रचना का पाठ ही महत्वपूर्ण होता है। इधर आलोचना में पाठ की सत्ता और महत्ता को नये से परिभाषित किया जा रहा है-खासकर विसंरचनावाद में। जैक डेरिडा के प्रभाव से ‘पाठ‘ का पठन न केवल महत्वपूर्ण हो गया हेै वरन यह भी माना जा रहा हेै कि रचना का अर्थ ‘पाठ‘ में पहले से विद्यमान या अवस्थित नहीं होता, वह तो ‘पठन‘ से उत्पन्न होता है और लगभग हर पाठक के लिए एकाधिक अर्थ की सम्भावनायें अन्तर्निहित होती हैं। आखिरकार हर पाठक किसी रचना को ‘अपने लिए‘ और ‘अपनी नज़र‘ से ही पढ़ता है। बकौल एफ.आर.लीविस ‘आलोचक का काम यह है कि वह ‘पाठ‘ पर अपना ध्यान केंद्रित करे और उससे महज अपनी सहानभूति के प्राप्त अनुक्रिया या प्रतिक्रिया व्यक्त करने की बजाय कृति की भाषिक संरचना के गहन अध्ययन से, उसे एक जीवित माध्यम की तरह अनुभूत करे और अपने परिपक्व प्रतिबोध से उसकी ‘पुनर्रचना करे‘। हिलिस मिलर ‘पाठ‘ के रूप और संरचना तक सीमित न रह कर ‘अनु-भव‘ से ‘अर्थ ‘ तक पहुँचने और फिर उसकी पुनर्रचना की वकालत करता है तो ज्योफ हार्टमैन शेक्सपीयर के हेमलेट के संवाद से अपनी बात कहता है-’पाठ उस भूत की तरह होता है जो पाठक को चुनौती देता है कि वह उसे समझे’।….
इस पसमंजर में रेखा कस्तवार की पुस्तक-’किरदार ज़िन्दा है’ का पाठ-प्रक्रिया और कथाआलोचना दोनों-दृष्टियों से एक खास महत्व है। यह अड़तीस कथाकारों की चालीस रचनाओं के किरदारों को सम्भावना के नाम से लिखे गए ऐसे आत्मीय पत्रो का संकलन है, जिन्हें सही पतों की तलाश है।’सम्भवना’ और ’तलाश’ दोनों ऐसे अल्फाज़ है जिनमें खुले दिलो दिमाग के नुकूश हैं। रेखा चर्चित कहानी या उपन्यास में किरदार के दरीचे से दाखिल होती हैं और उन्हीं के निगाहे-ओ-नजरिए कहानी, उपन्यास के मूल कथ्य और सार से आत्मीय साक्षात्कार करती-करवाती हैं।
रेखा कस्तवार |
कथा में किरदार की अहमियत पर हम अपनी कथा-आलोचना की पुस्तक-त्रयी की पहली पुस्तक कहानी का रचना शास्त्र में विस्तार से लिख चुके हैं। यहाॅं प्रसंग वश संक्षेप मेंः हमने देखा है कि किसी भी कहानी (या उपन्यास में भी) उसके परिवेश और अनुभव संसार और फिर दोनो की अंतर्क्रिया से जो भावबोध रूपायित होता है उसकी अभिव्यक्ति के मूर्तरूप होते हैं-वे मनुष्य, वे चरित्र, जिनके जीवन और संघर्ष में हमारी आपकी दिलचस्पी होती है। उन्हीं में हम अपने और व्यापक मनुष्य के जीवन और संघर्ष की छाया देखते हैं। इस दुनिया की कोई भी स्थिति घटना इसलिए महत्वपूर्ण होती है कि उसके केन्द्र में मनुष्य होता है, वह मनुष्य से सम्बद्ध होती है या मनुष्य पर उसका असर होता है। आप गौर करें तो अन्तर्बाबाह्य जीवन और जगत से व्यक्ति की अन्तःक्रिया के नतीजतन जो अनुभव होते है, वही रचना के मानव बिम्बों में रूपायित होते हैं, और मुख़्तलिफ किरदारों में ढ़लकर रचनाकार के अनुभव-संसार की समृद्धि और विविधता के प्रतीक और प्रतिनिधि हो जाते हैं। हम देखना चाहते हैं कि कहानी और उपन्यास में-से उभरने वाला किरदार, उसके क्रिया-कलाप, उसकी गतिविधियाॅं, उसका सोच विचार, उसका आचरण-व्यवहार कितना यथार्थ, वास्तविक और आश्वस्तकारी है। अपनी सामाजिक परिवेश और स्थिति, भावबोध और अनुभव संसार से वह कितना संगत या असंगत है। वह हमारे जीवन जगत, देश-काल के केन्द्रीय मनुष्य से कितना समरस है। वह अपने युग-समाज-वर्ग और स्तर का कैसा-कितना प्रतिनिधि है। जिस वर्ग और स्तर से वह आता है उससे वह किस हद तक , कितनी प्रमाणिकता से रूपायित और कितना प्रासंगिक है?
इन पत्रालेखों में रेखा चर्चित क़हानियों और उन्यासों के स्त्रीपात्रों से ही मुखातिब हैं। उनकी शोधपरक पुस्तक -‘स्त्री चिंतन की चुनौतियों’ के बाद स्त्री से संवाद केंन्द्रित इस पुस्तक के पत्रालेख एक दैनिक समाचार पत्र में धारावाहिक प्रकाशित हुए थे। वे सीधे आम आदमियों से सम्प्रेषित हैं-उनकी सक्रिय भागीदारी के साथ। उनका सही पता वे कथाकार भी हैं जिन्होंने इन किरदारों की रचना की है। चूंकि बकौल एफ.आर.लीविस ’एक सच्ची साहित्यक रूचि’मनुष्य, समाज, सभ्यता और संस्कृतिक रूचि’ होती है, चुनांचे ये पत्रालेख हमारी पूरी सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक व्यवस्था से कर्णधारों और बुद्धिजीवियों को भी सम्प्रेषित हैं।
इन पत्रालेखों में रेखा की चिंता का केन्द्र है-‘पूर्ण व्यक्ति की तरह निश्शंक कैसे जिए स्त्री ?….‘माइ लाइफ’ की इज़ाडोरा डंकन से वे कहती हैं-‘इज़ाडोरा तुम्हारे जीवन मेें कीमत थी जीने के ललक की, जिसे तुमने नृत्य,इतिहास, दर्शन, अध्ययन, पर्यटन, मित्रता, पे्रम के माध्यम से पाने की कोशिश की (लेकिन) लोगों को याद रहे तुम्हारे प्रेम प्रसंग। तुम्हारे देश (अमेरिका) और तुम्हारे काल (1878-1927)के तुम्हारे प्रश्न तब भी वक्त के आगे के प्रश्न थे, आज वक्त के आगे के प्रश्न हैं।’और ठीक वज़ह है कि यह पूरी पुस्तक ही प्रश्नों का एक अन्तहीन सिलसिला बन जाती है-प्रश्न जो वेदव्यास के ‘महाभारत’ की द्रोपदी से शुरू होकर सोना चैधरी की ‘पायदान’ की कशिश उर्फ आॅंचल तक अनवरत पूछे जा रहे हैं और कदाचित पूछे जाते रहेंगे। प्रतिभा राय की ‘याज्ञसेनी’ में द्रौपदी के चीर हरण पर रेखा पूछती हैं-‘एक जिज्ञासा और है द्रौपदी ! जुए में दाॅव पर लगाने क्या उस वक़्त युधिष्ठिर के पास कोई और भी पत्नी थी जिसे दाॅव पर लगाना ‘प्रतिष्ठा का विषय था युधिष्ठिर के लिए ?…(याद करें पाॅंचों पाण्डवों की द्रौपदी के अलावा भी अपनी-अपनी पत्नी बल्कि पत्नियाॅं और उनसे संतानें भी थीं-जिनका कुछ व्यौरा रेखा ने दिया भी है) फिर तुम्हीं क्यों? और परिणाम में तुम्हें मिला चीर हरण!… राज्य सभा में बैठे -बिके हुए-सत्ता से डरे हुए नपुंसक! द्रौपदी! तुम्हें आश्चर्य होगा, उनमें से आज तक एक भी मरा नहीं है। सब जीवित हैं द्रोपदी ! मैं शर्मिन्दा हूॅं और बहुत दुखी भी बावजूद इसके कि तुम्हारा प्रतिरोध और नकार भारतीय साहि़त्य में औरत की पहली चीख की तरह दर्ज है।.”.. यह पवित्र क्रोध, यह शर्मिन्दगी और इतनाऽऽऽ दुख अकेली रेखा का नहीं है, हम सबका है (होना चाहिए)और द्रौपदी की चीख के पहले हमें रामराज्य की सीता की चीख भी याद करनी चाहिए जो उसने धरती में समाते हुए लगायी थी। ..”फिर महाप्रयाण के समय जब तुम धराशायी हो गईं थीं, युधिष्ठिर स्थिर स्वर मे(कैसे) कह सके-”द्रौपदी अपने पतन के लिए स्वयं(उत्तर)दायी है। अर्जुन को वह अधिक चाहती थी। यही उसका पाप था।?…यह कैसा अनर्थ द्रौपदी! तुम पत्नी तो वस्तुतः अर्जुन की ही थीं। और फिर अध्यादेश-पीछे मुड़कर मत देखो”।..पितृ सत्ता के एजेन्ट की शक्ल क्या इससे भिन्न होगी?” और रेखा का फिर यह प्रश्न-(मिर्जाहादी रुस्वा के ‘उमराव जान अदा’ की अमीरन के सन्दर्भ में)” परिवारों की प्रतिस्पर्धा, प्रतिष्ठा, और प्रतिरोध के दंगल में दाॅव पर बेटियाॅं ही क्यों लगती हैं ?”…प्रभा खेतान की ‘छिन्न मस्ता’ में ‘प्रिया’ से वे पूछती हैं-”परिवार को बनाने, सॅवारने का महती उद्देश्य क्या स्त्री के हार जाने, रुक जाने की कीमत पर ही सम्भव है?”
विवाह संस्था पर भी उनका प्रश्न उतना ही पुराना है, जितनी यह संस्था!-”द्रौपदी ! तुमसे मिलकर जाना कि तुम उनके लिए थीं, वे तुम्हारे लिए नहीं ! फिर जो सबकी होती उसका कौन होता है?” या हमारे जमाने में भी ” विवाह संस्था के बाहर खड़ी स्त्री आज भी प्रश्नचिह्न और असम्मानजनक क्यों है ?”..”स्त्री के पुनर्विवाह का प्रश्न (यदि उसके बच्चे भी हैं तब) पुरुष के पुनर्विवाह सा सहज क्यों नहीं होता ?इससे भी आगे-”पुरुष के विवाहेतर सम्बन्धों में जितनी सरलता और दम्भ होता है उतनी ही सहजता स्त्री के लिए क्यों वर्जित है?”या ”पति द्वारा परित्यक्ता स्त्री समाज के कानून को रद्द करे यह कैसे सम्भव है?”या अविवाहित दैहिक सम्बन्धों की जैसी आज़ादी पुरुष को है, वही स्त्री के लिए ‘पाप’क्यों है ?”प्रश्न विकराल हो जाता है जब ”ज़िन्दा रहना और ‘सतीत्व’बचाना (में से)कोई एक विकल्प चुनना ज़िन्दगी की शर्त बन जाए तब किस पगडंडी को पकड़े स्त्री ?”और सर्वाेपरि इस पितृ सत्तात्मक समाज व्यवस्था में ‘स्त्री का घर’ कहाॅं है ?”बचपन में ‘पिता का घर’ और विवाह के बाद ‘पति का घर’ और बुढ़ापे में ‘बेटे-बहू’ का घर। मायके में भी स्त्री का घर कहाॅं बचा रहता है ?रेखा की शदीद तकलीफ है-”जन्म जात ‘बेघर स्त्री’ बेघर होने का संताप झेलती रहती है और बेघर कर दिए जाने के डर में ही जीती हैं।” वर्जीनिया वुल्फ का ‘अपने कमरे का प्रश्न आज भी जिन्दा है-मेरा घर कहाॅं है?या स्त्री का अपना घर क्यों होना चाहिए।”
हमारे मौज़ूदा पुरुष प्रधान समाज में स्त्री भी ज़र और ज़मीन की तरह एक ‘ सम्पत्ति’ है जिस पर पुरुष का अधिपत्य और एकाधिकार है। उसके ‘मेलशावनीज्म’ की शुरूआत होती है स्त्री की यौन शुचिता से। विवाह के तुरन्त बाद ‘स्त्री कौमार्य’के मिथक और ग्रन्थि की जड़ें कितनी गहरी हैं और फिर ‘हनीमून की प्रथा ताकि ‘अपने बच्चों ’के बारे में निश्चिन्त हुआ जा सके। रेखा का प्रश्न है कि ”निष्ठा क्यों यौन शुचिता” से निर्धारित होती है?फिर हमारी व्यवस्था में नपंुसक होकर भी पुरुष मर्द बना रहता है और सारे लांछन स्त्री के हिस्से में क्यांे आते हैं? ”क्यों कुल की सरदारी बेटियों को नहीं जाती?” इससे भी आगे-”अतिथि के शयन कक्ष में जाने का यदि पत्नी का मन न होता हो या पति से मन न लगे, मन में परझाईं-सा कोई झांकता हो तो क्या करती होगी स्त्री ?” या ”पति बाहर के रिश्तों के बाद घर में स्फूर्ति क्यों महसूस करता है” और मंजुल भगत की ‘अनारो’से एक सवाल -‘फिर क्या हुआ अनारेा! कि तुम्हारे अंदर यह आकांक्षा जागी रही कि गंजी का बाप तुम्हारे बराबर आकर खड़ा भी हो जाय? क्या औरों की तरह ही पति को परमेश्वर समझती हो?”..बजरिए सआदत हसन मंटो की इनायत उर्फ नीति-‘तुमने फिर मनमर्जी की । किसी मर्द से आसरा मांगने से इंकार किया। अपने जीवन की बागडोर खुद अपने हाथों में थाम ली। नकेल अपने हाथों में रखनं वाले (मर्द) कैसे बरदाश्त करते ? औरत की पहचान मर्द से उसके रिश्ते के अनुपात से तय होती है। ख़ुदमुख़्तार औरत (किसी केा) नहीं चाहिए। ’’अरुण प्रकाश की अच्छी लड़़की/बहुत अच्छी लड़की की ‘अनिता राव’ के बारे में यह फबती कितना कुछ कहती है-”यार मुझे तो इस कन्या पर तरस आता है। अरे यहाॅं बैठकर कुर्सी तोड़ती रहती है, बेकार दफतर दफतर जाकर खून सुखाती है। मिसेज राव कुछ भी कर ले -जींस की पेेन्ट पहन ले, सिगरेट पी ले लेकिन मर्द कैसे बन सकेगी? ”इसी से जुड़ा है सोना चैधरी के ‘पायदान’की कशिश उर्फ आॅचल का यह प्रश्न-”बाहर के मर्द से असुरक्षा और घर के मर्द से अपमान जनक में कम दमघोंटू क्या है?”
औरत के नुक्त -ए-नजरिए से देखिये तो ये पूरी समाज व्यवस्था कितनी इंसानी और बराबरी पर टिकी है। बकौल रेखा ”क्यों दोहरा-तिहरा अभिशाप झेलती हैं स्त्रियाॅं ? कभी नस्ल, कभी जाति, कभी वर्ग और अक्सर लिंग भेद के कारण?” या फिर औरतें जो कभी तन के कपड़े, कभी स्तन के दूध, कभी वापस घर लौटने के लिए ट्रेन के टिकट के लिए बार-बार भोगी जाती हैं, उनकी अपनी कितनी मर्जी होती होगी वहाॅं ?”यही नहीं रेखा की चिंता यह भी है -”सुबह से शाम तक हाड़ तोड़ मेहतन और बदले में पेट की आग के लिए कुछ समिधा। इतना मुश्किल जीवन क्यो है? नींद भर सो लेना या थोड़ी देर सुस्ता लेना जहाँ अपराध हो जाता है, ऐसे अन्तहीन अनंन्त श्रम में जीवन धॅसाती पहाड़ी स्त्रियों के जीवन मेें कैसे कुछ बदलाव आए?”
मौजूदा लगातार विकराल होती जा रही हमारी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में रेखा का मौज़ू प्रश्न है-”चीजों का बाहुल्य, फिर भी मोहताजी ! जब खाना इतना मौजूद है तो लोग भूखे क्यों मरते हैं?जब ज्ञान इतना मौजूद है तो वे जाहिल क्यों रहते हैं?” इसीलिए रेखा का जे़हनी सरोकार यह भी है-”कामकाजी स्त्री जगत की ‘फिगर’, वक्त ओर कैरियर’ के बहाने निर्धन लड़कियों की कोख की तलाशें जाने (हमें) किस गंतव्य तक पहुँचायेगी?”या ”बिना शिक्षा, हुनर और पैसे वाली स्त्री के लिए ज़िन्दा रहने की लड़ाई इतना मुश्किल क्यों है?”उस पर धर्म की वह व्यवस्था जिसकी आधार शिला ‘अहिंसा’ कही जाती है लेकिन जो स्त्री से उसका बचपन भी छीन लेती है। ”साढ़े पाॅंच बरस की उम्र में साध्वी बनने का निर्णय! क्या तुम सक्षम थीं?” सारी दुनिया का कानून आत्मनिर्णय के अधिकार की बात करता है। यहाॅं धर्म की जय जयकार के नीचे कितनी सिसकियाॅं दबी पड़ी हैं ? दीक्षा के इस संसार में पुरुषों के अनुपात में स्त्रियाॅं इतनी अधिक क्यों हैं?”
इसी से लगा-लिपटा सवाल हमारी न्याय व्यवस्था का है-”उबाऊ, थकाऊ और बिकाऊ न्याय व्यवस्था क्यों जीवन के कितने ही महत्वपूर्ण वर्ष खा जाती है?…”कवि लीलाधर मण्डलोई ’की दो कविताएॅं बेेसाख्ता याद आ गईं ”मेहर की प्रथा/क्रांतिकारी विचार है/कहा-उन्होंने/आह!यहनहीं लौटाता बीती हुई जवानी/अम्मी ने कहा।” और ”रोने की वजह तलाक़ नहीें/इसमें लग गया इतना समय/ कि शुरु न हो सका दूसरा जीवन।”इसीलिए रेखा का सवाल है-”यह न्याय इतना बर्बर क्यों है? औरत को रोंदने वाले दहाइयों में होते हैं, दर्शक सैकड़ों में, विचारक हजारों में, पाठक लाखों में पर गवाह एक भी क्यों नहीं होता?” रेखा को हैरत है कि ”ये पढ़ी लिखी पैसा कमाती लड़कियाॅं घर में हिंसा का शिकार होने से बच क्यों नहीं पातीं? ” माॅं की घुट्टी में मिले संस्कार जिस मानस का निर्माण करते हैं- क्या वह कोई विकल्प सौंप सकता है?” उनकी यह टिप्पणी कितनी सटीक है-”धरती और स्त्री एक साथ रौंदते-भोगते हैे।-सत्ताधीश।”
यह कितनी बड़ी विडम्बनाा है कि रिश्तों की सारी त्रासदियाॅं भी स्त्री के हिससे मेें ही आती हैं। अरुण प्रकाश की ‘नीलम’ से रेखा कहती है -”तुम उनके (माता-पिता-भाई) रोजी रोटी, ब्रेड-बटर कमाने की अच्छी मशीन (क्यों) बनी रहो?” सवाल सिर्फ रिश्तों के दोहन का भर नहीं है उससे भी अधिक विचलित कर देने वाला सवाल है-”प्रिया ! कैसे झेल पाईं तुम अपने किशोर होते शरीर पर सगे भाई की नोंच-खसोट”? और कितनी बड़़ी बदकारी से जुड़ा यह सवाल -”बचपन का साथ, बाप-बेटी का रिश्ता गोश्त गर्म होते ही बदल क्यों जाता है” सच कहती हैं रेखा कि ”बचपन से बलात्कार सिर्फ हादसा ही नहीं, वह स्त्री के व्यक्तित्व को निर्धारित करने वाला हो जाता है” ”इसलिए उनका सवाल है-”हादसों की हालात का शिकार औरतों को क्या सजा ही मिलती रहेगी? जिस वक्त उन्हें मानसिक संबल की ज़रूरत होती है क्या उस वक़्त उन्हें निहत्था छोड़ा जाता रहेगा?”
लगभग पूरा समकालीन स्त्री विमर्श स्त्री की देह पर एकाग्र है। रेखा का सवाल भी है-”कामनाओं का केन्द्र क्या देह होती है ? क्या सारा आनंन्द, आनन्द की कामना देह की ही है ”? और ‘देह का प्रश्न पेट के प्रश्न से कितना बड़ा है”? या कि कैसे ”औरत का चारा बड़े-बड़े काम साधता है?” फिर स्त्री स्वातंत्र्य की चर्चा अक्सर देह की स्वतंत्रता से शुरू होती है, यहीं आकर रुक जाती है। स्त्री के हित में कितनी दूर तक साथ दे पाती है यह?” सितम तो यह की ”यह देह भी समूची देह-सी कहाॅं स्वीकारी जाती है? स्त्री सिर्फ दो-तीन अंगो से ही परिभाषित क्यों होती है? क्यों छली जाती है” इस हद तक कि आसरा देनेवाला देह का मालिक क्यों है? पनाह देने वालों के एहसान का मुआवजा स्त्री देह की शक्ल मेें क्यों लिया जाता है? पाकिस्तान की युवा शायरा सारा शगुफ़्ता शायद इसीलिए कहती हैं-”औरत का बदन ही उसका वतन नहीं होता। वह कुछ और भी है।” इन हालात में एक ‘स्वतंत्र स्त्री’ क्या इतनी ही नामुमकिन है? मन्नूभंडारी (आपका बंटी) की शकुन से रेखा का प्रश्न है-” विवाह से इतर भी ज़िन्दगी हो सकती है क्या विचार करना चाहोगी? कुछ कहोगी शकुन?” दूसरा सवाल-”माॅ, बेटी, बहन पत्नी के अलावा ‘स्त्री’ के रूप में पहचाने जाने की कामना हर बार गाली की भाषा में परिभाषित क्यों होती है?”या ”स्त्री की जिजिविषा की परिणति (हमेशा त्रासद) क्यों होती है? क्यों उसकी महत्वाकांक्षा गाली होती है?” और ‘शिखर तलाशती लड़की (समाज को) क्यों खतरनाक लगती है” ? व्यवस्था को-हमें-आपको?” अरविन्द जैन की ‘मर्यादा’ के प्रसंग में रेखा का सवाल है-”घर से बाहर निकली, अपने लिए जगह बनाती, संघर्ष करती स्त्री को आवारा, बदचलन, लफंगी, बेलगाम घोड़़ी, कुलटा जाने कैसी-कैसी उपाधियोेेें से क्यों नवाज़ा जाता है?”फिर सफलता अभिमुख हमारे मौजूदा समाज मे खुद स्त्री से भी रेखा का सवाल है-”सफल औरत और ज्यादा सफल होने में ही अपनी मुक्ति की तलाश क्यों करती है?.”..
प्रश्न और प्रश्न ही नहीं हैं, इस स्त्री चिंता में। अब तक की चर्चा से लग सकता है कि रेखा ने स्त्री के प्रसंग मे सिर्फ ऋणात्मक-नकारात्मक पहलुओं को ही उभारा है। …नहीं, उन्होंने उन किरदारों को भी रौशन किया है जो स्त्री के सकारात्मक आयामों को उजागार करते हैं मसलन विद्यासागर नौटियाल की ‘रूपसा’ से वे कहती हैं -”तुमने जीवन का विकल्प स्वीकार किया। तुम्हें सलाम करती हूॅं-उस जिजिविषा को भी जिसके लिए नियम-कानून बनते- बिगड़ते हैं।” ”चन्द्रधर शर्मा” गुलेरी की (उसने कहा था की) सूबेदारनी की तारीफ में उनके वक्तव्य से तथाकथित स्त्री विमर्श के प्रायोजक-सम्पादक का नक़ाब ही उलट जाता है-ऐेसे समय में राजेन्द्र यादव हर नारी कथा को अन्ततः सेक्स कथा ही मानते हैं, तुम्हारा रिश्ता उनके वक्तव्य पर प्रश्न चिन्ह लगाता है। देह में लिथड़े हमारे वक्त पर ओस का फाहा रखता है।” रांगेय राघव की ‘गदल’ उन्हें ”हठ इंकार का सिरतान आत्मनिर्णय की ताकत से लैस” लगती है। उनका निष्कर्ष है कि ”निर्णय का विवेक जागृत हो जाय तो सही-ग़लत का विवेक भी देर-सबेर आ ही जाता है। अमरबेल-सी परोपजीविता में बंधी औरतों को संवाद के लिए बुलाती” लगती है गदल। वे उसे ”औरत की खुद्दारी की मिसाल” मानती हैं। प्रेमचंद के ‘गबन’ की ‘जालपा’ से तो ”स्त्री अधिकारों के प्रति सजग स्त्री” उनके भीतर जागती है। वह उन्हें ”विकट व्यक्तित्व की स्वामिनी” लगती है, जबकि ”विकट बहुएॅं लोक में आज भी जालपा के नाम से जानी जाती हैं”.।…मैत्रेयी पुष्पा की ‘झूलानट’ की शीलो उन्हें इस नतीजे तक ले जाती है कि ”देह, परिवार पर सम्पूर्ण स्वामित्व और नियंत्रण ताकतवर बनाता है” स्त्री को। वह उन्हें ”ठूंठ सी जि़न्दगी को लहलहाते पेड़ में बदलने की ताकत” लगती है। गीतांजली श्री की ‘माई उन्हें-”आजादी के बाद भी औपनिवेशिक मूल्यों के तहत पनपते मध्यवर्गीय जीवन, उसके सुख-दुख और सबसे अधिक औरत की ज़िन्दगी में परम्परा और नैतिकता के मध्य स्त्री की तलाश” लगती है। उसे वे ”अफवाहों के बादलों में घिरी, अपनी मीठी यादों में मस्त मुक्त स्त्री की जीती जागती प्रतिमा कहती हैं”। मदन दीक्षित की ‘मंगिया’, अनामिका की ‘रमाबाई पंडिता’ सुरेन्द्र वर्मा की ‘वर्षा वशिष्ठ’ और अरविन्द जैन की ‘मर्यादा’ भी उन्हें स्त्री की सकारात्मक सो और सशक्त व्यक्तित्व की धनी लगतीं हैं।
दरअसल रेखा ने इन किरदारों का,(कहनी और उपन्यास के ‘कल्पना – संसार’ तक सीमित न रखकर उन्हें ज़िन्दा और स्पन्दित इंसान की तरह) स्वात्मीकरण किया है। उनसे सहानुभूति और समानुभूति ही नहीं, अन्तरानुभूति (‘फीलिंग विद के साथ फीलिंग इन द कैरेक्टर) के धरातल पर संवाद किया है। वे यहॅंा न केवल रचनाकारों की सहयात्री हैं वरन उनके द्वारा रचे गए किरदारों की संगिनी, सहयोगी और सहभोगी भी हैं। ठीक उसी तरह उन्होंने उनकी काया में प्रवेश किया है, उनके स्पन्दित हृदय का संवेदन महसूस किया है जैसे उनके, रचनाकारों ने उनकी रचना के दौरान महसूस किया होगा।
चूंकि रेखा स्वयं एक जागरूक रचनाकार हैं इसलिए उन्होनें किरदारों के बारे में उभरते सवालों और स्त्रीवाद के नारों, वायदों पर फिर से गौर करने की ज़रूरत के साथ रचनाकारों से भी कुछ सवाल किए हैं। मसलन् मन्नूभंडारी (‘आपका बंटी’) की ‘शकुन’ के साथ प्रभा खेतान(‘पीली आॅंधी) की सोमा के प्रसंग में यह सवाल-”क्या इन रचनाकारों को स्त्री के ‘सुनहरे सालों ’के व्यर्थ हो जाने का भय है, इसलिए यह ‘शुतुमुर्गी चाल’?या कानूनी सलाह का अभाव।” उन्हें अचरज होता है कि ”आवाॅं(चित्रा मुदगल) की मां, पति को मुखाग्निी देने के लिए बेटे जनने का गर्व मनाती है और ‘त्रिशंकु’(मन्नूभण्डारी )की आधुनिका मां (जो व्यवस्था से लड़कर अपने लिए युवावस्था में रास्ते निकाल पाई थी) युवा बेटी की मां बनते ही जाने कैसे अपने पिता की भाषा बोलने लग गई।” मैत्रेयी पुष्पा से वे पूछती हैं -”इन््नमम की मंदा ग्राम सुधार का लक्ष्य अपने दम प्राप्त करके भी प्रतीक्षा अपने ‘प्रिय’ की क्यों करती है?”या चाक’ में वे क्यों कहती हैं-”स्त्री के पास एहसान चुकाने के लिए देह के अलावा और कुछ नहीं होता”?….हम समझ सकते हैं कि मैत्रेयी पुष्पा द्वारा ‘लुगाइयों के लंहगों की चैकीदारी’ के प्रयोग पर उन्हें माफी माॅगने की जरूरत क्यों पड़ी!…भगवती चरण वर्मा की ‘रेखा’के प्रसंग में उनका यह वक्तव्य कितना कुछ उजागर करता है-”तुम्हारे रचनाकार का मंेटल मेकअप तुम्हारे दिनों में जैसा था आज का सर्जक भी वही जमीन पकड़े रुका है। पढ़ लो -‘मित्रो मरजानी (कृष्णा सोबती) ‘माॅडर्न गर्ल’(बलवंत गार्गी) या ‘नदी को याद नहीं’(सत्येन कुमार)।”..उन्हें उचित ही लगता है कि मंजूल भगत ने तुम्हें(‘अनारो को ) इतना ताकतवर बनने ही नहीं दिया कि तुम स्वीकार कर सको कि पति के बिना तुमने ज़िन्दगी की, गृहस्थी की गाड़ी खींची है?” ‘सुनीता’ से उनका यह सवाल भी काबिले गौर है -”क्या तुम्हें माल्ूाम है कि तुम्हारे सृष्टा जैनेन्द्र कुमार से प्रेरणा लेकर यशपाल ने ‘दादा कामरेड़्’ मं हरीश की मुक्ति को शैल के अनावृत देह के दर्शन में खोजा है” असंख्य लोगों की तरह रेखा तो जैनेन्द्र कुमार की इस मान्यता -”स्त्री की सार्थकता मातृत्व में है” पर भी प्रश्न चिन्ह लगाती हैं यही नहीं ”टालस्टाय” की ‘अन्ना कारेनिना’, डी.एच लारेंस की ‘लेडी चैटरलीज़ लव्हर’, फ्लावेयर की ‘मेडम बोवेरी’, टेैगोर की ‘घरे बाहिरे’, कृष्णा सोबती की ‘मित्रो मरजानी’ क प्रसंग में उनका सवाल काबिले एहतिराम है-”घर से निकली स्त्री की नियति, दाने-दाने की मोहताजी़, भय, आतंक, कलंक और मृत्यु के अतिरिक्त (क्यों) कुछ नहीं सोचते इनके रचनाकार?”
देवीलाल पाटीदार, विनोद कुमार शुक्ल, मंज़ूर एहतेशाम, रेखा कस्तवार |
सवाल-दर-सवाल इस फ़िक्रे-निसवाॅं की अहमियत इसलिए भी है कि यह एक स्त्री का, स्त्री के लिए, स्त्री के बारे में ऐसा विचार विमर्श है जो प्रासंगिक ही नहीं प्रमाणिक भी है। यही विमर्श यदि एक पुरुष (लेखक) के द्वारा किया गया होता तो मुमकिन है उस पर ‘पुरुष अहं’ और पूर्वग्रह की तोहमत लग जाती। एक निरपेक्ष और निद्र्वन्द्व वक्तव्य का खतरा उठा कर भी कहा जा सकता है और सच भी यही है कि स्त्री की व्यथा और त्रासदी एक स्त्री से बेहतर कोई नहीं जान सकता और न महसूस कर सकता। वह तुलसीदास हों या कालिदास, वेदव्यास हों या बाल्मीकि, स्त्री की तकलीफ महज़ उनकी कल्पना, उद्भावना या अधिक-से-अधिक करुणा हो सकती है, भोगा हुआ यथार्थ और प्रमाणिक अनुभूति नहीं। रेखा ने समकालीन स्त्री विमर्श के लगभग सभी मुद्दों पर अपनी बेबाक, बेलाग और दो टूक बातें कहीं हैं- साथ ही उसके छद्म को भी निर्भीक साहस के साथ बेपर्दा किया है। यहाॅं वे न तो बड़े-से-बड़े रचनाकार तक को बख्शती हैं और न नये-से-नये का वे वजह बचाव करती हैं। यह किसी सम्पादक द्वारा प्रायोजित स्त्री विमर्श भी नहीं है और न आत्ममुग्ध, सम्पादक द्वारा पैम्पर्ड, देहराग आलापती ऐसी बिन्दास लेखिकाआंे और कवयित्रियांे का स्त्री विमर्श है जो रचनाओं में और स्वच्छन्दता के नाम पर सेक्स परोसने पर भरोसा करती हैं। इसमें रचना के मर्म को समझने और उसे उजागर करने वाली आलोचना-दृष्टि भी है जो एक बेहतर रचना और उच्चतर मानवीय संस्कृति के रूपायन की प्रेरणा से उद्दीप्त है।
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
प्रकाशित वर्ष : 2010
आईएसबीएन : 9788126718979 मुखपृष्ठ : सजिल्द
पृष्ठ :172
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दलित स्त्रीवाद किताब ‘द मार्जिनलाइज्ड’ से खरीदने पर विद्यार्थियों के लिए 200 रूपये में उपलब्ध कराई जायेगी.विद्यार्थियों को अपने शिक्षण संस्थान के आईकार्ड की कॉपी आर्डर के साथ उपलब्ध करानी होगी. अन्य किताबें भी ‘द मार्जिनलाइज्ड’ से संपर्क कर खरीदी जा सकती हैं.
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com