संध्या नवोदिता की कवितायें : जिस्म ही नहीं हूँ मैं और अन्य

संध्या नवोदिता

लेखिका युवा कवयित्री, स्वतंत्र रचनाकार, अनुवादक,व्यंग्य लेखक,पत्रकार,विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित हैं.संपर्क:navodiita@gmail.com

जब कोई स्त्री छोड़ती है पृथ्वी

उस पल जब कोई स्त्री गुजरती है तुम्हारे ठीक सामने से
क्या पढ़ पाते हो कि वह ज़िन्दगी के अंतिम छोर से गुजरी है
सीता ही नहीं थी अंतिम शिकार प्रेम का
सुना उसके बाद कोई द्रोपदी भी हुई,
फिर कोई मीरा भी
कुछ लहू के घूँट पीती रहीं
कुछ ने पिया विष का प्याला
कुछ गयीं पाताल
कुछ चढ़ गयीं सीधे स्वर्ग को उर्वशी की तरह
उस पल जब कोई स्त्री गुजरती है बिलकुल शांत
गहमागहमी में विचरती अपने ही भीतर
गहरी साँसे लेती ऐसे जैसे हवा हो ही न बिलकुल
कौन समझ ही पाता है
कि प्रेम की अंतिम परिणति बस अब आ ही चुकी है
गहरी स्त्री सलीके से छोड़ती है पृथ्वी
जैसे वह माँ का गर्भ का छोड़ती है
पृथ्वी ही कराहती है इस बार
स्त्री सौंप देती है अपना हृदय और आँखें
अपनी माँ को
अपनी बेटी को
और ज़िन्दगी के चाक से एक मूरत उतर जाती है

उदय प्रकाश की कवितायें


जिस्म ही नहीं हूँ मैं

जिस्म ही नहीं हूँ मैं
कि पिघल जाऊँ
तुम्हारी वासना की आग में
क्षणिक उत्तेजना के लाल डोरे
नहीं तैरते मेरी आँखों में
काव्यात्मक दग्धता ही नहीं मचलती
हर वक्त मेरे होंठों पर
बल्कि मेरे समय की सबसे मज़बूत माँग रहती है

NANA DOPADZE

मैं भी वाहक हूँ
उसी संघर्षमयी परम्परा की
जो रचती है इंसानियत की बुनियाद

मुझमें तलाश मत करो
एक आदर्श पत्नी
एक शरीर- बिस्तर के लिए
एक मशीन-वंशवृद्धि के लिए
एक गुलाम- परिवार के लिए

मैं तुम्हारी साथी हूँ
हर मोर्चे पर तुम्हारी संगिनी
शरीर के स्तर से उठकर
वैचारिक भूमि पर एक हों हम
हमारे बीच का मुद्दा हमारा स्पर्श ही नहीं
समाज पर बहस भी होगी

मैं कद्र करती हूँ संघर्ष में
तुम्हारी भागीदारी की
दुनिया के चंद ठेकेदारों को
बनाने वाली व्यवस्था की विद्रोही हूँ मैं
नारीत्व की बंदिशों का
कैदी नहीं व्यक्तित्व मेरा

इसीलिए मेरे दोस्त
खरी नहीं उतरती मैं
इन सामाजिक परिभाषाओं में

मैं आवाज़ हूँ- पीड़कों के खि़लाफ़
मैंने पकड़ा है तुम्हारा हाथ
कि और अधिक मज़बूत हों हम

आँखें भावुक प्रेम ही नहीं दर्शातीं
शोषण के विरुद्ध जंग की चिंगारियाँ
भी बरसाती हैं

होंठ प्रेमिका को चूमते ही नहीं
क्रान्ति गीत भी गाते हैं
युद्ध का बिगुल भी बजाते हैं
बाँहों में आलिंगन ही नहीं होता
दुश्मनों की हड्डियाँ भी चरमराती हैं

सीने में प्रेम का उफ़ान ही नहीं
विद्रोह का तूफ़ान भी उठता है

आओ हम लड़ें एक साथ
अपने दुश्मनों से
कि आगे से कभी लड़ाई न हो
एक साथ बढ़ें अपनी मंज़िल की ओर
जिस्म की शक्ल में नहीं
विचारधारा बनकर

LEYLA KAYA KUTLU

शैली किरण की कविताएँ

रानी कौवा हंकनी 

इन साठ दिनों के लिए
मेरे पास साठ कहानियाँ और कविताएँ हैं
कहानी खत्म करने को
जैसा आप सब जानते ही हैं
राजा रानी दोनों मरते हैं
पुरानी कहानी के राजा के पास बड़ी रानी थी
फिर मंझली
फिर कोई छोटी रानी
कोई रानी षड्यंत्र बुनती थी
कोई रानी कौआ हंकनी बनती थी।
इस बार किसी रानी को कौआ नहीं हाँकना
इस बार राज में दखल का मानपत्र लेकर आई है रानियाँ
रानियाँ अब कोप भवन में नहीं जातीं
तिरिया चरित्र नहीं रचतीं
वे अपने लिए महल नहीं चाहतीं
रानियाँ अब खुद भी युद्ध और कूटनीति सीखती हैं
इस बार रानियाँ पुत्र प्रसूताएं ही नहीं होंगी
वे जनेंगी संतान अपनी
इस बार देखते जाइये
राजा रानी को मरना नहीं होगा
राजा हज़ार बहाने बनाकर हरम नहीं भरेगा
इस बार कोई रानी कौआ हंकनी नहीं बनेगी
इस बार राजा खुद भगाएगा कौए
रानियाँ हंसेंगी राजा की लोलुपता पर
उसके षड्यंत्र खोलेंगी मिलकर
इस बार राज्य षड्यंत्र का नहीं
न्याय का साक्षी बनेगा।

कुमकुम में लिपटी औरते


आखेट पर बाश्शा 

हमला ज्ञान पर है
हमला तर्क पर है
हमला भविष्य पर है
आर पार की लड़ाई है
जवाब बताएगा कि भविष्य शून्य होगा या सैकड़ा
साजिश अमावस्या की रात से भी गहरी है हत्यारे कत्ल का हर सामान ले आए हैं
वे रौशनी के हर जुगनू तक को कुचल देने का मनसूबा लिए खतरनाक तरीके से हाँका लगा रहे हैं
इस बार नौजवानों का शिकार तय हुआ है
बाश्शा ने नरम गोश्त और गरम लहू को चखने की ख्वाहिश की है
आखेट पर निकल पड़ा है बाश्शा
मंत्री, सिपहसालार, प्यादे, लग्गू भग्गू, चेले चपाटे
सब साथ
ढोल बज रहे हैं
धूर्त शिकारियों ने जाल बिछा दिया है
आखेट पर निकला है बाश्शा
खाली हाथ तो वापस नहीं जाएगा
बाश्शा निकला है
इस बार जंगल नहीं, नगर में चलाना है तीर
जानवर नहीं, इंसान की निकलेगी चीख

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संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com

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