प्रेमकुमार मणि चर्चित साहित्यकार एवं राजनीतिक विचारक हैं. अपने स्पष्ट राजनीतिक स्टैंड के लिए जाने जाते हैं. संपर्क : manipk25@gmail.com
किसी भी समाज में नई चेतना प्रस्फुटित होने पर हलचल स्वाभाविक तौर पर होती ही है . अरब के समाज में मुहम्मद साहब ने जब इस्लाम का प्रस्ताव रखा था ,तब उनका बहुत विरोध हुआ था.बहुत मुसीबतें झेली थीं उन्होंने . उन्हें मक्का से मदीना शिफ्ट यूँ ही नहीं करना पड़ा था. जितने भी समाज सुधारक या पैगम्बर हुए उन्होंने विरोध और तकलीफें झेलीं.
हम दुनिया भर की बात करेंगे ,तो करते ही रह जायेंगे .क्योंकि तब हमें क्राइस्ट के सूली चढ़ने से लेकर लिंकन और गाँधी के गोली खाने तक की घटनाएं सुनानी पड़ेंगी. इसलिए अपनी जमीन भारत पर लौटते हैं.उन्नीसवीं सदी में राजाराममोहन राय ने जब सतीप्रथा को ख़त्म करने का प्रस्ताव लाया तब कितना नहीं विरोध हुआ. सती प्रथा हिन्दुओं की ऊँची जातियों में प्रचलित थी . हज़ारों स्त्रियां मृत पति के साथ जिन्दा जला दी जाती थीं . उदहारण केलिए एक आंकड़े के अनुसार 1815 से 1824 तक की नौ साल की अवधि में केवल सात शहरों (कोलकाता ,कटक ,ढाका ,मुर्शिदाबाद ,पाटण,बरेली और बरैन ) में छह हज़ार से अधिक स्त्रियां सती हुई थीं . यह सब जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं . राजा राममोहन राय ने जब इसके विरोध में आवाज उठाई ,तब सबसे पहले उनकी माँ ने उनका विरोध किया . वह घर से बाहर हो गए ,या कर दिए गए . उन्होंने धर्मशास्त्रों में से अपने समर्थन केलिए सूत्र निकाले ,क्योंकि उन्हें जिस रूढ़ तबके को समझाना था ,वे शास्त्र की ही दुहाई देते थे . लेकिन उन्हें लगा कि इतने भर से काम नहीं चलेगा . उन्होंने सरकार पर दबाव बनाया कि वह इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ अपने प्रभाव का इस्तेमाल करे अर्थात कानून बनाये और उसे सख्ती से लागू करे . विलियम बेंटिक ,जो तब गवर्नर जनरल थे ,इससे सहमत थे ,क्योंकि वह ब्रिटेन में भी सामाजिक सुधारों के सवाल से जुड़े थे .उनके प्रयास से कानून बना .राजा राममोहन राय की आज भले ही इज़्ज़त हो ,उनके समय में उनकी यही इज़्ज़त थी कि जब वह लंदन में मरे ,तब बहुत दिनों बाद कोलकाता के एक अख़बार में छोटा सा समाचार छपा कि एक दुष्टात्मा की मौत हो गई .बंगाली भद्र समाज उनकी मौत पर इत्मीनान महसूस कर रहा था . ऐसा ही विरोध ईश्वर चंद्र विद्यासागर ने झेला था ,विधवा विवाह के सवाल पर .महाराष्ट्र में जोतिबा फुले और पंडिता रमा बाई ने जो कष्ट झेले ,विरोध बर्दास्त किये उसे बयां करने केलिए कई ग्रन्थ लिखने होंगे . बीसवीं सदी में ही आंबेडकर साहब जब हिन्दू कोड बिल ला रहे थे ,तब जो विरोध और अपमान झेला था ,उसकी तरफ एक नज़र जरा देखिये . विरोध तो होंगे ,लेकिन क्या इन्साफ की लड़ाई को इस डर से छोड़ दिया जाना चाहिए ? …… ( जारी )
जाने उन पांच महिलाओं को और उनकी कहानी जो तीन तलाक को रद्द कराने में सफल हुईं
अभी मुस्लिम स्त्रियों के तीन तलाक़ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला दिया है ,उस पर बहस छिड़ गई है . अच्छी बात है . शुरुआत तो हुई . दाढ़ी -टोपी वाले कह रहे हैं कि यह हमारे मुस्लिम समाज में हस्तक्षेप है .ऐसी ही बातें विलियम बेंटिक और राजाराममोहन राय के ज़माने में हिन्दू चुटियाधारी भी कह रहे थे . 1857 के विद्रोह के कारणों में एक यह भी था कि कुलीन हिन्दू -मुस्लिम तबका अंग्रेजी राज से इस बात को लेकर खफा था कि वह हमारे धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप कर रहा है . हिन्दुओं और मुसलमानों का रजवाड़ी और प्रतिगामी तबके का एक हिस्सा इकठ्ठा होकर 1857 बन गया था . कुछ यही कारण रहा होगा कि बड़े समाज सुधारकों ने इस बलवे को ख़ारिज कर दिया था . इसमें जोतिबा फुले भी थे और सैयद अहमद खान भी . इसीलिए हमें रूढ़िवादियों के विरोध से डरने कि ज़रूरत नहीं है . हमें यह समझने की कोशिश करनी चाहिए कि विरोध करने वालों का मक़सद क्या है .
हमें इस बात पर भी भी गौर करना चाहिए कि क्या सुधारों से कोई समाज कमजोर होता है ? क्या हिन्दुओं के समाज सुधार से हिन्दू समाज कमजोर हुआ ? यूरोप में ईसाइयत के बीच चले प्रोटेस्टेंट मूवमेंट से यूरोपीय अथवा क्रिस्तियन समाज कमजोर हो गया ? क्या कोई गुसल -स्नान करने से ,गंदे कपडे साफ़ कर लेने से कमजोर हो जाता है ? क्या इस्लाम में हजरत के ज़माने में या उसके बाद कोई सुधार नहीं हुआ ? क्या मुहम्मद ने अपने अनुयायियों को अपनी बुद्धि ताक पर रख देने की सीख़ दी थी ?
इस्लाम ईसा की सातवीं सदी और अरबी समाज का धर्म दर्शन है . अरब का समाज बेहद पिछड़ा था . कबायली समाज बिना कृषि और सामंतवादी दौर से गुजरे व्यापारिक गतिविधियों से जुड़ने लगा था . इसलिए पूरे अरब में सामाजिक तनाव का माहौल था. लूट -मार मची थी . मुहम्मद साहब को एक कबायली चेतना को आध्यात्मिक बनाना था . यह आसान नहीं था . वहां गुलामों और औरतों की स्थिति नाजुक होती जा रही थी ,क्योंकि हिंसा के माहौल में यही होता है . ऐसे माहौल से मुहम्मद साहब ने गुलामों ,गरीबों और औरतों के लिए कुछ सहूलियतें निकालीं. अपने आखिरी हज के वक़्त उन्होंने जो प्रवचन दिए उसमे कहा – “औरतों के मामले में अल्लाह से डरो, तुम्हारा औरतों पर और औरतों का तुम पर हक़ है .” यानि वह औरत-मर्द के बीच बराबरी की बात कह रहे है . कुरान में यह बराबरी नहीं दिखती . वहां वह एक मर्द को दो औरतों के बराबर धन में हिस्सा देते हैं . (सूरा 4 ). कहने का तात्पर्य कि स्थितियों के अनुसार बदलाव उस ज़माने में भी होते रहे थे . कुरान में सूरा 24 अल -नूर (दिव्य -प्रकाश ) एक तरह से स्त्री विमर्श है . इसमें कुल चौंसठ आयतें हैं . इसके पीछे एक कहानी है . हजरत को अपनी पत्नी आयशा के चरित्र पर शक हुआ और उनसे पवित्रता के सबूत मांगे . सबूत देने से आयशा ने इंकार कर दिया और मायके चली गईं . कुछ समय बाद हजरत आयेशा से मिलने पहुंचे और फिर सबूत मांगे . आयशा ने कहा -आप कहते हैं अल्लाह सब जानता है और आप उनसे संपर्क में हैं .आप उन्ही से पूछ लीजिए. इस के बाद हजरत पर वहि (ईश्वरीय सन्देश ) उतरने लगे और उन्होंने आयशा से कहा -अल्लाह ने आपके बेगुनाह होने को ज़ाहिर कर दिया .
लेकिन इन सबके बावजूद हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कुरान एक पुरुष द्वारा तैयार की गई संहिता है . स्त्री वहां अन्य है. वह याचक है ,दाता नहीं . उसकी स्थिति अन्य धर्मों से थोड़ी अच्छी या बुरी हो सकती है लेकिन वर्तमान समय से उसका तालमेल है या नहीं यह देखना है . आज औरत मर्द दोनों को वोट के बराबर के अधिकार हैं . जेंडर भेद हमने नकार दिया है . यह सब भी किसी कुरान -पुराण से मेल नहीं खाता और यह सामाजिक धार्मिक हस्तक्षेप भी है . यही तो सेकुलर समाज का पहला पाठ है .
मुस्लिम महिलाओं की निर्णय स्वतंत्रता: प्रतिरोध का एक स्वरूप
औरतों के मामले में लगभग सभी धर्म आदर और पूजा भाव तो ज़रूर पालते रहे ,लेकिन मानवीय स्तर पर कमतर बना कर रखा .इसीलिए उन्नीसवीं सदी में सभी समाज सुधारकों ने स्त्रियों के सवाल को अपना केंद्रीय विषय बनाया . अफ़सोस कि मुसलमानों के बीच यह नहीं हुआ या अपेक्षाकृत काफी कम हुआ .
मुस्लिम जमातों के बीच नवजागरण की लहर कमजोर तो रही ही ,एक भिन्न अंदाज़ में भी रही . अंग्रेजों के आने के पूर्व लगभग दो तिहाई हिंदुस्तान मुसलमान शासकों के अधीन था . अंग्रेजों ने मुख्य रूप से उन्हें ही अपदस्थ किया था . अपदस्थ होने वालों में मराठा -पेशवा भी थे . लेकिन मुसलमानो का शासक तबका अंग्रेजों के काफी खिलाफ था . अंग्रेज उन्हें फूटी आँख नहीं सुहाते थे . रोष पेशवाओं में भी था . मुसलमानों और पेशवाओं के अंग्रेज विरोध -जिसे कुछ लोग देशभक्ति भी समझते हैं – का कारण समझना मुश्किल नहीं है .
1860 के बाद मुस्लिम समाज से आये होशियार तबियत के एक इंसान सैयद अहमद खान ने महसूस किया कि अब राज -पाट लौटने का ख्वाब देखना बेकार है . अंग्रेजों से समझौता करो ,उनकी तहजीब सीखो , जुबान सीखो और राज -व्यवस्था का हिस्सा बनो . सैयद अहमद खान का आंदोलन उच्च मुसलमानों का आंदोलन था ,जिन्हे असरफ कहा जाता है . वह खुद नीची ज़ात के मुसलमानों , जैसे जुलाहे कुंजड़ों आदि के लिए हिक़ारत पालते थे . स्त्रियों के सवाल पर भी विचार करने केलिए उनके पास फुर्सत नहीं थी .तब भारत में मुसलमानों की आबादी कुल आबादी के लगभग एक तिहाई थी . लेकिन जाहिर है ,उनकी मानसिकता पर मुश्किल से दस फीसद असरफ हिस्से का कब्ज़ा था .इनकी . आवाज ही मुस्लिम आवाज होती थी .इन असरफों का एक खास हिस्सा कुछ ज्यादा ही ढपोरशंख था . अरब और ईरान में अपनी जड़ें तलाशने का इन्हे खूब शौक था . हिन्दुओं के सवर्ण हिस्से से तो इन्होने थोड़ा तालमेल कर लिया था ,लेकिन अपने ही निचले हिस्सों को ,जिन्हे ये कमजात और कमीना कहते थे ,एक दूरी बना कर रखी थी .औरतों के सवाल पर सवर्ण हिन्दुओं और असरफ मुसलमानों में इतना अंतर जरूर था की मुसलमानों के यहां सतीप्रथा नहीं था और विधवा विवाह की मनाही नहीं थी . वहां दूसरी समस्याएं थीं .जैसे तलाक़ और पर्दा ( बुर्के ) की प्रथा .इन सब की ओर ध्यान नहीं दिया गया .
कुछ खास कारण थे ,जिसके फलस्वरूप मुसलमानों में जोतिबा फुले और रमाबाई जैसे लोग नहीं हुए . पृथक पहचान का सवाल असरफ मुसलमानों केलिए हमेशा बड़े काम का रहा है ,क्योंकि इसी के बूते बाकि मुसलमानों पर उनका वर्चस्व बना रहता है .सैयद अहमद खान के प्रयासों से जो मध्यवर्ग वहां बना उसका मिज़ाज़ जितना आधुनिक होना चाहिए था ,नहीं हुआ .मुसलमानों के बीच कोई ताक़तवर सामाजिक इंक़लाब नहीं दिखा . जब डेमोक्रेसी अथवा जम्हूरियत के विचार राजनीति में उभरने लगे ,तब इन असरफ मुसलमानों ने पहचान की कवायद और तेज कर दी . उनके आर्थिक -सामाजिक मुद्दे गौण हो गए ,राजनीतिक अधिकार के मुद्दे आगे कर दिए गए .अंतत: बीसवीं सदी में पाकिस्तान बन ही गया . पाकिस्तान बन जाने के बाद भी बड़ी सख्या में मुसलमान भारत में रहे .लेकिन अब वे अकलियत थे . भारत ने चुकी बिना किसी भेद भाव के अपने को सेक्युलर स्टेट घोषित किया था ,इसलिए सबको समान नागरिक अधिकार दिए गए .प्रधानमंत्री नेहरू ने सबको समान अवसर का भरोसा दिया . उन्होंने पूरी दुनिया के उतार-चढाव को समझा था . दुनिया भर के इतिहास और राजनीति की उन्हें जानकारी थी . वह हिंदुस्तान को एक आदर्श लोकतंतंत्रिक देश बनाना चाहते थे .लेकिन यह भी जानते थे की एक सेक्युलर समाज द्वारा ही यह संभव है , और ऐसा समाज वैज्ञानिक चेतना से ही बन सकता है .इसलिए उन्होंने साइंटिफिक टेम्पर विकसित करने पर जोर दिया.नेहरू ने आत्मकथा में और भारत के सामाजिक मसलों पर विचार करते हुए कई दफा मुसलमानो के पिछड़ेपन पर अपना रंज व्यक्त किया है.
सुधार नहीं पूर्ण बदलाव चाहेंगी महिलायें
अपनी किताब “ग्लिम्प्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्टरी ” में वह तबियत से कमाल पाशा के सुधारों और आधुनिकता के प्रति उसके दीवानेपन की चर्चा करते हैं . दाढ़ी -टोपी ,खास तरह की टोंटीदार लुटिया और उटांग पायजामे का वह मज़ाक उड़ाते हैं और मुसलमानों को मुख्य धारा में शामिल होने का आह्वान भी करते हैं . लेकिन बदकिस्मती से मुसलमानों के बीच यह सब प्रभावी नहीं हुआ . दाढ़ी -टोपी वाला समूह सातवीं सदी और अरब की मानसिकता से निकलने केलिए तैयार नहीं था.आर्किड़िया के अपने सुख होते हैं . हिन्दुओं के बीच भी चुटियाधारी खूब सक्रिय थे . इन्ही लोगों ने हिन्दू कोड बिल का विरोध किया था . (दिलचस्प यह है कि हिन्दू कोड बिल का विरोध करने वाले कॉमन सिविल कोड की वकालत करते हैं . )लेकिन हिन्दुओं के बीच एक सेकुलर और आधुनिक समूह बन चुका था ,जिसने इसे लेकर संघर्ष किया . यह संघर्ष कई रूपों में आज भी चल रहा है और आगे भी चलेगा ,क्योंकि सुधार एक सतत प्रकिया है . इसके थम जाने का अर्थ है गतिहीनता ,और गतिहीनता मतलब मृत्यु .
मुस्लिम समाज इसी गतिहीनता का शिकार हुआ जा रहा है . यह अफसोसजनक है . मुसलमानों की सामाजिक -आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय है की रोंगटे खड़े हो जाते हैं . कोई बारह साल पहले एक संस्था ने अपने अध्ययन में पाया था क़ि साठ फीसद बीमार मुसलमान इलाज़ के बजाय दुआ -ताबीज़ से काम चलाते हैं .
मदरसों ने उनमे इल्म कम ज़हालत ज्यादा पैदा की है .रोजगार के अवसर उन्हें कम से कम मिल रहे हैं . गरीबी ऐसी है कि बाज़ दफा मज़दूर -गरीब परिवार की महिलाएं अपना खून बेचकर रोटी खरीदती हैं . दाढ़ी -टोपी वालों को हज और हज भवन की चिंता ज्यादा रहती है . इस्लाम की चिंता उनके लिए सर्वोपरि है ,मुसलमानों की नहीं . वे हरी दुनिया के बाशिंदे हैं . बहुजन मुसलमान भूरी -धूसर-भुतही दुनिया में सांसें गिन रहे हैं .
कौन हैं जिन्हे शरीयत और कुरान की अधिक चिंता है ? औरतें तो खुद ही आधी आबादी हैं . और फिर गरीब -गुरबे मिहनतक़श मुसलमान हैं . दस फीसद दाढ़ी -टोपी वाले और अब जिनमें टाई-शूट वाले भी शामिल हो गए हैं ,सुधारों का विरोध करता है . यही तबका कॉमन स्कूलों की जगह मदरसों की वकालत करता है . लेकिन इनसे पूछिए इनके बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में क्यों पढ़ते हैं ,तब ये बगलें झांकने लगेंगे .
मुस्लिम समाज को सुधारों की कुछ ज्यादा ही ज़रूरत है . किसी भी समाज में सुधार औरतों के मसले से शुरू होता है . मुस्लिम औरतों को अपने हक़ -हक़ूक़ केलिए तन कर खड़ा होना है . खुली तबियत के लोग उनकी लड़ाई का समर्थन करें . इससे न केवल मुलिम औरतों को इंसानी ज़िन्दगी का अवसर मिलेगा ,बल्कि पूरे मुस्लिम समाज का भला होगा . मुस्लिम स्त्रियां यदि शिक्षित और आधुनिक बनेंगी तब पूरी मुस्लिम बिरादरी शिक्षित और आधुनिक हो जाएगी . इसलिए मुस्लिम औरतों की आज़ादी का सवाल अहम मसला है.
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