‘छोटके चोर’



श्रीमती मोहिनी चमारिन


जब-जब हिन्दी दलित साहित्य की बात चलती है, तब-तब प्रथम दलित रचना की प्रामणिकता को लेकर यह प्रश्न उठता है कि आखिर प्रथम दलित रचना कौन-सी थी? प्राप्त दसतावेजों के आधार पर यह तो प्रमाणित होता है कि हिंदी की प्रथम दलित रचना एक कविता थी जो इंडियन प्रेस, इलाहाबाद से आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन में प्रकाशित होनेवाली पत्रिका ‘सरस्वती’ के सितंबर 1914 के अंक में प्रकाशित हुई थी ‘अछूत की शिकायत’ शीर्षक से प्रकाशित इस कविता के रचयिता पटना (बिहार) के हीरा डोम माने जाते हैं । ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हिंदी की यह प्रथम दलित रचना संभवतः भोजपुरी की प्रथम रचना भी है। यह सही है कि उस समय तक हिंदी में दलित साहित्य जैसी कोई चीज नहीं थी। किसी अति निम्न दलित जाति, वह भी एक डोम द्वारा इस तरह की कविता लिखने की तो कल्पाना भी नहीं की जा सकती थी। 


मगर यहां एक प्रश्न व शोध का विषय यह है कि यदि हीरा डोम हिंदी के प्रथम दलित पुरूष रचनाकार थे, तो हिंदी की प्रथम दलित लेखिका कौन थी और किसे प्रथम दलित-स्त्री रचना माना जाए? हालांकि आलोचकों का एक तबका हीरा डोम की सरस्वती में प्रकाशित कविता में ‘दलित-चेतना’ का अभाव चिह्नित करता है. 
इसे महज संयोग कहा जाए या दलितों में तेजी से पैदा हाती चेतना का विकास कि एक ओर ‘सरस्वती’ के सितंबर 1914 के अंक में ‘अछूत की शिकायत’ कविता प्रकाशित होती है, तो दूसरी ओर उसके मात्र 11 माह बाद इलाहाबाद से ही ओंकारनाथ वाजपेयी के संपादन में प्रकाशित होने वाली एक अल्पज्ञात पत्रिका ‘कन्या-मनोरंजन’ के अगस्त 1915 के ग्याहरवें अंक में भाग दो में (पृष्ठ 307 से पृष्ठ 310 में फैली) एक कहानी प्रकाशित होती है, कहानी का शीर्षक है ‘छोटे का चोर’ । इस कहानी का रचयिता कोई पुरूष नहीं अपितु एक स्त्री है और इसका नाम है – श्रीमती मोहिनी चमारिन। लेखिका के बारे में इससे अधिक जानकारी नहीं मिली है। यहां यह उल्लेखनीय है कि श्रीमती मोहिनी चमारिन की यह कहानी ‘छोटै के चोर’ हिंदी की प्रथम दलित कहानी के रूप मं अवधी की पहली प्रकाशित रचना है।


‘छोटे का चोर’ की विषय-वस्तु शिल्प और तेवर को देखते हुए कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद की ‘कफन’ की तरह यथार्थवादी आधुनिक कहानी के तत्व विद्यमान हैं। इसलिए इसे पथम यथार्थवादी आधुनिक दलित कहानी भी माना जा सकता है। यथार्थवादी आधुनिक इस मायने में कि उस दौर में होनेवाला पूरा स्त्री-लेखन सदाचार, नैतिकता, आदर्शवादी और एक हद तक शुचितावादी परंपराओं के नाम पर पूरी तरह पुरूष मानसिकता और वर्चस्व को पोषित करनेवाला लेखन था। 

यहां यह रेखांकित करनेवाली बात है कि संभ्रांत और तथाकथित बड़े घरों की शिक्षित स्त्रियां जहां अपने आपको खुलकर अभिव्यक्त करने में संकोच करती थी, वहीं श्रीमती मोहिनी चमारिन ने ऐसा कथ्य चुना जो कानून और व्यवस्था के रक्षकों से सीधे-सीधे मुठभेड़ करता है। शायद ऐसा लेखिका के जीवन-संघर्ष सामाजिक परिस्थितियों और विषमताओं के अंतर्विरोधों के चलते हुआ।

‘छोटके चोर’


एक दांव बहुत दिन भवा चोर बहुत उधरान रहें, कहुं आज ओकर लोटा थरिया उठैगे, कहुं ओकर टाठी, कहुं फलनवां खियाँ सेन्ध होयगै, सब बिन बटौर लैगा पानी पिये का लुटिया तक न बची- जहं देखौ उधरै यही सुनाय- बजार मां जेब मां पैसा रखके हाथे से दबाये जाउ औ तनीसा गाफिल भये कि पैसा नदारद, चोर का कि आंखी के काजर काढ़ लेत रहै- हाकिमों पुलिस आरी रहें- बहुत तलाशी तहकियात करे मुदा कुछ पता चलै न – चोरी दुइ चार छः रोजे होय-जब बहुत उत्पात होय लाग तो हाकिम ई हुकुम निकारेस कि जो कौनौ एक चोर या गिरह कट पकड़ के लै आव ओ का 100 इनाम मिलै,


एक बिचारी अहिरिन रहै, ओकर मनई पांच छ – बरिस भवा मरगा रहै, मेहनत मजूरी कैके तीन लड़कन का पालत पोसत रही लड़कवन छोटे-छोटे रहैं उनका खवाव पियाव कपड़ा लत्ता का अकेले मेहराख के कमाई में कहां अटै, तौन बिचारी दिन ज्ञभ् मजूरी करै और रात के पिसौनी, इतना मेहनत करत करत औके देहीं के बल बिलकुल टूट गया, औ बेराम रहै



लग महतारी का बेराम देख के बड़का और मझिलका लड़का दुइनौ कौनों खियां काम करै लागे, पै कहूं थूकन सतुआ सनात है, नान नान लड़कन के कमाई से चार चार जने के गिरिस्तीके खरचा चल सकत है? बिचारी अहिरिनया थेरमिऊं मों काम थोड़ा बहुत करतै जाय, ए हिंयां तक भा कि एक दम्मै खटिया लै लिहिस, अब कर कीन जाय महतारी बेराम, घर मां खाय का नहीं, मझिलका और छुटका लड़का मनावें लागे कि हेराम एक ठो चोर कहुं से मिल जाय तो बहुत अच्छा।
छोटा लड़का – आऔ जी चली कहूं चोर ढूंढी काजानी मिलन जाया तौ, नारायन दै दें, चोर केह तरह के होत है,
मझिलका – चोर काला-काला होत है मोट के ओकर लाल आंखी होत है।
छोटा – जसे जगेसरा है, का जगेसरा चोर आय?
मझिलका – अबे धू पगला! जगेसरा तो मनई आय।
छोटा – तौ फिर चोर केह तरह के होत है?
मझिलका – अबग! चेर चोरी करत थे, रात के निकरत हैं, उनका देखे बड़ी डर लागत थी, मुरदानी माटी लिहे रहत थें, जहां घर मां घुस के फेंक दिहेन कि मनई वेहोस सोवे लागें।
छोटा – तैं चोर देखे हस?
मझिलका – मैं देखौं तो नहीं एक्का कि सुनेउ है ननका देखेस ही तीन मोसे बतावह रहा।
छोटा – ओ ननका कहां देखेस?
मझिला – एक दिन ऊ अपने बाप के साथ रात के पांचायत से आवत रहा तौ चोर तलाब मां पानी पियर रहें तीन ऊ मोका झुटकावे कि चोर मनईन के तरह होत हैं?
छोटा – तौन तैं फिर का कहे।
मझिला – मैं कहि दिहेऊं कि मोसे न छट्टैली बताव मैं जनतेवे नहीं काकि चोर दमसर, मनई दूसर।
बड़का लड़का – अरे ओ द्वारका ओ लल्लू चलौ दौड़ौ बुआ आई है। द्वाराका, औ (मझिला) औ लल्लू (सबसे छोटा) दौड़ै। एक तो बुआके लपेटे दूसर जने गठरी मुठरी खोलै लागैं, गठरी से गुड़ लाई चना निकार के खाय चबाय लागै औ बुआ से बातैं छुअन लागीं।
द्वारका – बुआरे तैं चोर कभों देखे हस केह तरह के होत हैं?
बुआ – चोर मनई के तरह होत है और केह तरह के?
द्वारका – मैं तौं सुनेउं हैं कि चोर करिया करिया होत हैं औ ओकर लाल-लाल आंखी होत है, बुआ! मैं दोई चीज अबै तक कबहुं नहीं देखेउं एक चोर और एक हाकिम।
बुआ – अरे तैं तो बड़ऊ जान परत थे, चोरौ मनई आय औ हाकिमों मनई आय। चोरी करैं लागे चोर बाज लागे। हमही तहीं जौ चोरी करी गठरी मारी तौ हमही तैं चोर कहे जाय लागी। चोर के का कुछ कान पूंछ थेरौ होत थी जसे हम तुम मनई तैसे उनहूं मनई रात के चोर दिन के खासे मनई। और हाकिम हुद्दा पाय गयें कपड़ा पहिर लिहिन हाकिम हुय गयें। मनई छोड़ को जनाऊर थोडै़ अहीं।
द्वारका – हां बुआ होई ऐसन, परसों हियां हाकिम आये रहें तौन उनके खातिर तीन चार दिन पहिलेन से बहुतासा खूटा ऊंटा गाड़े जातर रहैं, मैं सोचेऊं कि कौनौं बड़ा जनाउर होई तौ तो इतने खूंटा मां बांधा जात है। नहीं भैंस गाय बिचारी तो एकय खूंटा मो रहती हैं। तौन बुआ मैं रस्ता मां खेलत रहेउं कि मनई कहेन भाग-भाग हाकिम आवत है। सब कौनों इधर-उधर लुकै दिपाय लागें। मैं तो भैया पहिलेन से डेरान रहेऊं भागेऊं जिव लैके कि कहुं काट न लेय। पे तनी साह पिछउंड़ होय के मैं देखऊं तौ मोका निनार मनईहस लाग। ऐसेन चोरै निनार मनइन के तरह होत हैं?
बुआ – इ दहिजरवा न बौरहै मां, न सरेख मां, अरे नास गड़वा हाकिमों मनई आय और चोरौ मनई आय।
द्वारका – मैं तोसुनउ है कि हाकिम मारत हे मनई का पकड़त है। ओका ताकै का सिपाही रहत है।
बुआ – बिना कसूर के हाकिम के बाप दहि जरा तो सजा दैय दई। औ कसूर कौन किहे होय तो हमही तुम सजा दै सकि त थी हाकिम से डराय न चाही हाकिम चोर बदमास का मारत और सजा देत है कुछ भले मनई का नहीं।
द्वारका – अच्छा जौ चोर दिन को चला जात होय तौ चिह्नय पडै़ कि चोर आय।
बुआ – चोर के कान पूंछ थेरै होत है जौन चिह्नय पडे़ जब तक पकड़ न जाए तब तक सब कौनों साकहैं है। आज चले मोरे साथ मैं तोका हाकिम और चोर दोइनों दिखाव दैहौं।

बुआ के साथ जाए के द्वारका व लल्लू चोर और हाकिन देख आये। अब अकीन आया कि हां चोर और हाकिम मनइन आहोए इतनी लम्बी चैड़ी बात सुनत सुनत तुम उकताय गई हौवौ पै जौन बात के बारे मैं ई सब बात कहेउं है ऊ अबहिन कहइन का काफी है – घर मां पैसा कौड़ी की तंगी रावे करै –  महतारी बेराम होय गेदवा दरमा का अब खर्चा कहां से आव, और द्वारका विचारे के दिनौं रात के मनाये से भगवान एहौ चोर न भेजन तौ लल्लू द्वारका एक दिन कहेन कि ‘‘भययाहो! मैं तो कुछ घर के काम काज करतै नहीं अहिऊं – मोका कौनौ नौकरो नहीं राखत, मैं घर मां खात भी हौं । औ न कहूं से रूप्या मिलै औ न चोर – तौ ऊअस काम न कीन जाय कि मैं चोर बन जाऊं औ तुम मोका पकड़ के हाकिम के पास लै जाय जौन रूप्या मिलै आसे घर के काम-काज की जाय। औ महतारी के दवा दरमत होय। मोका सजा होइ तौन होई।

द्वारका – जौ एसेन करै का हैं – तौ फिर में कहे न चोर बनौ तै इतना छोट
चोर के कान पूंछ थेरै होत है जौन चिन्हाय पडे़ जब तक पकड़ न जाए तब तक सब कौनों साकहैं है। आज चले मोरे साथ मैं तोका हाकिम और चोर दोइनों दिखाव दैहौं।
हम भला तोसे घर से बाहर जोल खाना मा कैसे रहि जाई – महतारिऊ तोरे बिना जिऊ दै देई।
लल्लू – नहीं भरूया तु हौ तो कुछ काम काज कै के कुछ खरिच वरिच का लैइन आयत हो महतारिव के कुछ सेवा टहल कै देत हौ। मैं तो कुछौ नहीं कै सकतेऊं तौ मोरै चोर बनव अच्छा है – महतारी पूंछे तो कहि दिहेव कि बुआ के साथ जबरजस्ती भाग गाए।

बहुत कहा सुनो के पीछे द्वारका राजी भयो दूसरे दिन डिपटी के सामने गये – लल्लू कबूलेन कि हां हम चोरी करत रहे द्वारका कहेन कि हां साहब मैं इस चोर का पकडे़व है – डिप्टी सोचेन कि कसत भाई चोर औ रचोर के पकड़वयया आहों- खर खानची से कहेन कि सौ रूप्या इनाम दें देव – रूप्या लै के घर कैतो चले – डिप्टी रहै हुशियार, द्वारका जस कहे रहा औ रजसे बहुत से हाकिम होत हैं इ डिप्टी जनाउर न रहै, इ सोचेन कि इनाम पायके ओर लोग तौ बड़े खुशी होत रहें पद इ बड़ा उदास है हैं न है, कुछ दाल मां काला है – इ सोच के ऊ द्वारका के पीछे-पीछे चले कि देखो तौ का बात है – द्वारका रूपया लै के घर आये महतारी के खातिर कुछ फल फलायी और दवाई लेत आयें इ डर के मारे कि कहूं महतारी लल्लू का पूंछ न तुरतै। दुआरे का भागैं, जौ बेर होइ चल औ लल्लू न देखाने तौ महतारी के जिव मों सकका भै कि लल्लू कहां गा- बोलायस ‘द्वारका’ औ द्वारका! द्वारका के जिव अब चुंदई कैती से उड़ा कि होय न होय महतारी लल्लू का पूंछी जौ महतारी बहुत नरियान चिल्लान बकी भूं की तौ द्वारका का सामने आये पड़ा।



महतारी पूछेस कि लल्लू का कहां छोंड़ आये – अब सो बहकावं के तरकीव भूल गै जो कौनों कबहूं झूंठ न हीं बोलत का जनी कहो ओके मुहंना से झूंठ निकरतै नहीं बुलुक से रोय दिहेन औ सब हाल सच-सच कहि दिहेन अब तौ महतारी बहुत रिसान कहेस ‘‘किमोर जिव तौ ऐसेन कल नहीं रहत मां नाराइन हम का लड़का अस सपूत दिहेन कि हमरे जिउ का एक न एक चिढ़येन रहत हैं – मैं जिव सम्हारौ नहीं परितिउं और जिव का एक न एक कलकान ठाढे़ रहत हैं – नारायेन मोका मौतो नहीं देतें एतना बेरामी अरामी होत थी महारानी भवानी हैं- मोका कौनों भूलिऊ के नहीं पूंछत – पूछैं कैसे मोका तौ भोगै कबदा है अब लल्लू का जौ जल्दी न लिअए तौ मैं न कुछ खइहौं न पीहौं आपन जिउ दइहे-दों द्वारका विचरऊ का अब हसिया के लालच होइगा। काकरैं! क्रेंन तौ अच्छे का होईगै बुराई ‘‘होम करत हाथ जरगा’’ इधर इ रोचैं कि कहां से हम अस करबौ भयेन उधर मंहतारी रोय -रोय जिव देय कि मोर ललुआ का जनी कसत होय कस न होय, डिप्टी परधी लोग के इ सब बात सुनत रहैं। वही पावं तुबू का लौट गये।औ लल्लू का बुलायिन पूछेन कि सच-सच की तुम चोराये हो लल्लू जेो कुछ चुराये हों तो कहैं। डिप्टी पूछेन कि हमैं सब हाल बतायगयें कि महतारी के दवा दरमत के खातिर इ सब हुत भेई हाकिम बउे़ खुसी भे। मारे पियाह के लल्लू का गोदी मों बैठाय के मुंह चूमंन कि भगवान हमहूं का ऐसेन लड़का दिहेव, और कहेंन कि बेटा तुम ऐस काम किहेवह ळे कि तुम्हारे हस लड़का पाय हे तुम्हार गरीब महतारी सातें मुलुक के राजा से भी बढ़के अमीर है,’’ खजानची का हुकुम दिहिनकि इ लड़का का दुइ थैली रूपिया औ रदेव और सिपाही का साथ् के देव। लल्लू रूप्या लैके हंसी खुसी घर लौ द्वारका के जिव में में जिरा आवा और महतारी तौ इतना खुसी भई कि जानौं सांप के हेरान मन मिलगा होय बिना दवा दरमत के आठ दिन मां चंड़ी होयगै।
नरायण करै ऐसन बिटिया बेटवा सब के होए।

प्रथम दलित स्त्री-रचना ‘छोटे का चोर’ हमें जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की नैया के सौजन्य से प्राप्त हुई है। यह रचना उन्हें अपने शोध के दौरान हासिल हुई। 

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