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महिषासुर: मिथक व परम्पराएं
संपादक: प्रमोद रंजन
असुर-विमर्श के आधार पर खड़ा हुआ ‘महिषासुर-रावेन आंदोलन’ फुले, आंबेडकर और पेरियार के भारतीय सांस्कृतिक इतिहास को देखने के नजरिए को व्यापक बहुजन तबके तक ले जाना चाहता है, जिसमें आदिवासी, दलित, पिछड़े और महिलाएं शामिल हैं। इस सांस्कृतिक संघर्ष का केंद्रीय कार्यभार पुराणों के वाक्-जाल में ढंक दिए गए बहुजन के इतिहास को उजागर करना है, हिंदू मिथकों में अपमानित और लांछित किए गए, असुर, राक्षस और दैत्य ठहराए गए बहुजनों के महान नायकों के वास्तविक चरित्र को सामने लाना है।
इस आंदोलन ने दो तरह की प्रतिक्रियाओं को जन्म दिया है। एक ओर इसके माध्यम से सांस्कृतिक अधीनता के शिकार तबके अपनी खोई हुई सांस्कृतिक पहचान को पाने की कोशिश कर रहे हैं तो दूसरी ओर, वर्चस्वशाली तबकों में बौखलाहट है। इस बौखलाहट की एक तीखी अभिव्यक्ति संसद में (फरवरी, 2016) भी हुई थी।
इस आंदोलन का मानना है कि स्थापित और आदर्श के रूप में प्रस्तुत की गई सांस्कृतिक संरचना को तोड़े बिना वर्तमान में स्थापित प्रभुत्व को तोड़ा नहीं जा सकता है। अपने अंतःस्वरूप में यह द्विज-राष्ट्रवाद के बरक्स बहुजन-राष्ट्रीयता को रखता है तथा हिंसा की संस्कृति के खात्मे की पुरजोर वकालत करता है।
विमर्श और आंदोलन के स्तर पर इसकी बढ़ती लोकप्रियता ने इसके सामने बहुत सारे प्रश्न भी खड़े किए हैं। ये प्रश्न दोनों स्तरों पर हैं। विमर्श के स्तर पर भी और आंदोलन के स्तर पर भी। ये प्रश्न महिषासुर आंदोलन की एक सैद्धांतिकी की मांग कर रहे हैं। इस बात की भी मांग कर रहे हैं कि इस आंदोलन की संरचनात्मक विश्लेषण की जाय। यह किताब इन आवश्यकताओं की पूर्ति करती है।
मूल्य: अजिल्द: 350 रूपये
सजिल्द: 850 रूपये
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अग्रिम बुकिंग
संपर्क: द मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन
इग्नू रोड, नेबी सराय, दिल्ली, 68
रजिस्टर्ड कार्यालय: सनेवाड़ी, वर्धा, महाराष्ट्र-1
ईमेल: themarginalisedpublication@gmail.com, फोन: 9650164016, 8130284314
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