चुनाव के बाद राजनीतिक दल अपने मुद्दों का भी मुद्दा बदल लेते हैं। नए नए मुद्दों में मुर्दे वाली सड़ांध होती है। इनका वास्तविकता की ज़मीन से कुछ लेना देना नहीं होता। एक हवाई क़िला खड़ा हो जाये बस यही उद्देश्य होता है। देश में लगातार आरक्षण के खिलाफ बहस होती रहती है और हर तरह का मीडिया अपना मत सामने रखता रहता है पर इसी देश में हर साल कितनी ही मौतें जातिगत भेदभाव की वजह से घट रही हैं, इन घटनाओं की सुध तक लेने वाला कोई नहीं है। कानून की किताब के बाहर सामाजिक समीकरण अभी तक जस के तस मौजूद हैं। गांवों में ही नहीं शहरों भी एक ऐसी पीढ़ी पढ़-लिखकर तैयार हो गई है जो अपने अधिनाम (सरनेम) के पीछे पागल हुई जा रही है। भारतीय लोग आज भी प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर भेदभाव करते हुए पाये जाते हैं।
एक अंग्रेज़ी अखबार की खबर के मुताबिक 15 अक्तूबर की सुबह, करीब 9 बजे बुलंदशहर के खेतलपुर भंसोली गाँव में रोजाना की तरह सावित्री देवी घरों से कूड़ा इकट्ठा कर फेंकने का काम कर रही थीं। उसी दौरान एक रिक्शा रास्ते में अचानक आया और वह अपना संतुलन खो बैठी और सीधे ऊंची जाति की एक महिला अंजु की बाल्टी से टकरा गईं। इसी बात पर अंजु अपना खो बैठी और सावित्री देवी को उनके पेट पर मारा। उनके सिर को दीवार से टकरा टकरा कर पीटा। इतना ही नहीं इस हैवानियत में अंजु के बेटे रोहित ने भी एक लाठी से हिस्सा लिया और बाल्टी को छूने का बदला सावित्री देवी को पीटते हुए लिया। इस घटना के 6 दिन बाद सावित्री देवी और उनके अजन्मे 8 महीने के बच्चे की मौत हो गई। सावित्री देवी के पति यह कहते हैं कि वे पत्नी को उसी रोज़ जिला अस्पताल ले गए पर उन्होंने यह कहते हुए इलाज़ से इंकार कर दिया कि किसी भी प्रकार की बाहरी चोट नहीं है, वापस घर ले जाओ। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में सिर के अंदर लगे घाव को मौत की वजह बताया गया है।
इस देश के लीडरान को अपनी नज़रों को दुरुस्त करते हुए इस घटना पर गंभीरता से विचार करना और सोचना चाहिए। देश की तरक्की के लिए धुआँधार भाषणों की जरूरत नहीं होती। जुमलों की जरूरत नहीं होती। सभा और मुलाक़ातों की जरूरत नहीं होती। रैलियों की भी जरूरत नहीं होती। और न ही विदेशी दौरों की जरूरत होती है। जरूरत होती है दिमागदार जनता और दिमागदार नेताओं की जो मनुष्यता को साथ लेकर चलते हैं। जो कानून को गहरी आस्था के साथ समझते हैं। जो समानता को न सिर्फ किताबों में समझते हैं बल्कि उसे ज़मीन पर भी उतारते हैं। क्या समानता आसमानी फल है जो ज़मीन पर नहीं उग सकता?क्या सम्मान सिर्फ कुछ जातियों के पुरखों की जागीर है?…नहीं। गणराज्य भारत में सभी व्यक्ति समान हैं और सम्मान से जीने का हक़ रखते हैं।
यह कैसा देश है जो सन् 2017 में भी अपने इतिहास के खाते में दलितों के संग अन्याय को दर्ज़ कर रहा है!यह कोई नई घटना नहीं है बल्कि यह घटना सिलसिलेवार ढंग से अगड़ी जातियों द्वारा अंजाम दी जा रही हैं। बलात्कार से लेकर हत्या तक की जा रही है।
एक अंग्रेज़ी-भाषी बंगाली दलित महिला की कशमकश
एनसीआरबी के आंकड़ों पर नज़र डालें तब कुछ नंबर देश के कुछ राज्यों की जातिगत हिंसा की तस्वीर खींचते हैं। साल 2014 में उत्तर प्रदेश में 8066, राजस्थान में 6734, बिहार में 7874 और मध्य प्रदेश में 3294 शैड्यूल कास्ट के लोगों पर अपराध हुए हैं। हमें किसी भी तरह यह नहीं भूलना चाहिए थे कि ये आंकड़ें उन राज्यों में हैं जहां दलितों की स्थिति बहुत सोचनीय दशा में है। बहुत से मामले दर्ज़ नहीं किए जाते और कई बार लोग दर्ज़ करवाने भी नहीं जाते। आंकड़ों की वास्तविक संख्या कितनी होगी, यह कोई भी व्यक्ति समझ सकता है। मोहल्लों के छोटे–मोटे झगड़ों में लोग जाति सूचक शब्दों को आपत्तिजनक इस्तेमाल करते पाये जाते हैं।
इंडिया स्पेंड नामक ऑनलाइन वैबसाइट पर कुछ विश्लेषणात्मक लेख प्रकाशित किए गये हैं। इनमें सन् 2011 की जनगणना के कुछ आंकड़े पेश किए गये हैं। उसमें एसटी और एससी जातियों की शिक्षा, नौकरी आदि से संबन्धित आंकड़े रखे गये हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक एससी साक्षारता दर 66% और एसटी 59% थी। अनुसूचित जाति ऊंची साक्षरता प्रतिशत के अंतर्गत टॉप पाँच राज्यों में जगह बनाने वाले राज्य मिजोरम में 92%, त्रिपुरा में 90%, केरल में 89% गोवा में 84% और महाराष्ट्र में 80% है। वहीं नीचे से सोचनीय स्थिति वाले राज्य बिहार, झारखंड, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और आन्ध्र प्रदेश क्रमश: 40%, 56%, 60%, 62%, 62% है। आज़ादी के इतने सालों बाद भी हम आगे नहीं बढ़ पाये हैं।
ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन (एचआरडी द्वारा) के आंकड़े भी बहुत कुछ कहते हैं। उच्च शिक्षा में टॉप पाँच राज्यों में मिजोरम, मणिपुर, मेघालय, तेलंगाना और तमिलनाडु क्रमश: 114.0%, 63.9%, 44.5%, 39.6% 33.7% है। उच्च शिक्षा में सबसे खराब पाँच राज्य बिहार, झारखंड, ओड़ीसा, पश्चिम बंगाल, और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य क्रमश: 5.3%, 9.5%, 11.7%,12.9%, 13.6%है। कमाल की बात है कि बिहार के मुख्यमंत्री किसी एक मंत्री के भ्रष्टाचार पर अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनकर त्यागपत्र दे देते हैं पर कभी भी इन आंकड़ों पर नज़र तक नहीं डालते और न ही शर्मिंदा होते हैं।
फैंसी स्त्रीवादी आयोजनों में जाति मुद्दों की उपेक्षा
एनसीआरबी के ही आंकड़े बताते हैं कि साल 2014 में दलितों के खिलाफ़ 47,064 अपराध हुए। दलित महिलाओं के साथ बलात्कार के 2,233 मामले दर्ज़ हुए और हत्याओं की संख्या 744 रही। आंकड़े वही बात बता रहे हैं जो दर्ज़ किए ये हैं। जो दर्ज़ नहीं हुए वे अभी भी गुमशुदा हैं। हमारे देश में अहिंसा की बात बरसों से उठती रही है। इसके पीछे का वाजिब कारण यह है कि भारत के इतिहास में ही हिंसा का एक बड़ा धब्बा लगा है। विशाल लोगों के समूह को इंसान न मानकर जानवरों से भी खराब व्यव्हार के उदाहरण किताबों में भरे पड़े हैं। यह कैसा समाज है जो इंसान को इंसान नहीं मानता? आज भी तथाकथित उच्च जाति के लोग उस भयानक मानसिकता को ढो रहे हैं। दिल्ली में बैठे हुए लोग जब यह कहते हैं कि जातिगत भेदभाव पुरानी बात हुई तब जी खोलकर हंसने का मन करता है।
सावित्री देवी का अपने 8 महीने के अजन्मे बच्चे समेत मर जाना भारतीय समाज पर धब्बा है। यह उस विकास के मुंह पर थप्पड़ है जो विकास-विकास चिल्ला कर नाटक कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश की सरकार दीवाली पर अयोध्या में दीप उत्सव और ताजमहल की लफ़्फ़ाज़ी में उलझी हुई सरकार है। यह सरकारों का दिवालियापन ही है कि शिक्षा और सामाजिक बदलाव पर ध्यान न देकर दूसरे मामलों को मुद्दा बना रही है। राज्य और केंद्र की सरकारों के हाल को देखते हुए आज भी यह अंदाज़ा लग जाता है की समानता जैसा शब्द अभी ज़मीन पर नहीं उतर सकता। चुनाव जीतना और उसके बाद व्यक्तिगत से लेकर दलों तक का अपने निजी हित को साधने में लग जाना जनता और देश के लिए एक भयानक और सोचनीय स्थिति है।
‘दलित’ शब्द दलित पैंथर आंदोलन के इतिहास से जुड़ा है: रामदास आठवले
देश की दूसरी सबसे बड़ी आई टी कंपनी इंफ़ोसिस इस साल की शुरुआत में अचानक चर्चा में आ गई थी। कंपनी के कार्यकारी और संस्थापक में बहस चालू थी। लेकिन तत्कालीन मुख्य कार्यकारी विशाल सिक्का ने अपने एक बयान से सबको चौंका भी दिया। उन्होने साक्षात्कार में यह कहा-“मैं एक क्षत्रिय योद्धा हूँ। मैं यहाँ टिकने और लड़ने(जूझने) आया हूँ।”(I am kshatriya warrior. I am here to stay and fight.)सोचिए अगर देश की दूसरी सबसे बड़ी आईटी कंपनी का मुख्य कर्ता-धर्ता ऐसा सोचता और कहता है तब बाकी लोगों का क्या हाल होगा? जाति खून में बह रही है मानो। भारत में ऐसे लोग भी बहुत बड़ी संख्या में हैं जो सार्वजनिक मंचों पर जाति उन्मूलन के रिबन काटते हैं और निजी जगहों पर जाति सूचक गालियों के इस्तेमाल से भी नहीं चुकते। जो नेतागण माइक के आगे गले से (बिसलरी पीकर) ऊंची आवाज़ निकालते हैं, उन्हें इस तरह की मानसिकताओं से जूझने और समाप्त करने की नीतियों के बारे में सोचना चाहिए। क्या आप उस राम राज्य की बात करते हैं जहां चार वर्ण व्यवस्था की जगह है या फिर आप एक लोकतान्त्रिक शासन और समाज की तमन्ना करते हैं जहां सब बराबर हैं? अगली बार नेता वोट मांगने आयें तब यह सवाल पूछना जरूरी बन जाता है।
ज्योति जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के भाषा अध्ययन विभाग में शोधरत हैं. सम्पर्क: jyotijprasad@gmail.com
फोटो: गूगल से साभार
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