दलित स्त्रीवाद अंतरजातीय विवाह को सामाजिक बदलाव का अस्त्र मानता है -रजनी तिलक



दलित स्त्रीवाद की सशक्त प्रवक्ता,  दलित और स्त्री सामाजिक आन्दोलन की प्रखर प्रतिनिधि एवं लेखिका रजनीतिलक से अरुण कुमार प्रियम की बातचीत. यह बातचीत उनके परिनिर्वाण के पूर्व की गयी थी. 

दलित और दलित साहित्य से आपका क्या आशय है?

दलित और दलित साहित्य से मेरा आशय दोनों की शाब्दिक पूरकता है.मैं दलित शब्द के लिए ‘दलित पैंथर’ द्वारा दी गयी परिभाषा को ही मानती हूँ. दलित शब्द दलित पैंथर द्वारा आत्मसात किया गया है, जिसका उद्देश्य अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक, भूमिहीन किसान/मजदूर एवं शोषण की शिकार महिलाओं  के शोषण तथा तमाम जातिगत उत्पीड़न व वर्ण व्यवस्था को नष्ट करके वर्ण और वर्ग विहीन समाज की स्थापना है. दलित साहित्य का उद्भव इन्हीं संकल्पनाओं के मूर्त रूप में हुआ. सम्मान-स्वाभिमान हेतु अपनी सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक व सांस्कृतिक अभिव्यक्ति की मुखर आवाज बनकर आत्मकथा, कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक, शोधपूर्ण लेखन, आलोचना और निबंध के रूप में दलित साहित्य आज हमारे सामने है. दलित साहित्य अनुभव आधारित लेखन बनकर व्यवस्था पर सवाल उठाता है. इसमें समता और समानता की दरकार है.


आपकी दृष्टि में दलित साहित्य की वैचारिकी में अंतर्विरोध है या इसका  दायरा सीमित है?हिंदी दलित लेखन में अब कुछ दलित चिंतक ‘दलित साहित्य’ पद की जगह ‘अम्बेडकरवादी साहित्य’ पद का प्रयोग करने लगे हैं. इस सम्बन्ध में आपके क्या विचार हैं?

दलित साहित्य की वैचारिकी अम्बेडकरवाद से ही निर्मित है. दलित साहित्य अम्बेडकरवादी विचारधारा का ही प्रवाह है.हिंदी में ये बहस डॉ. तेज सिंह ने शुरू की. इस पर बहस हो सकती है कि ‘दलित साहित्य’ को ‘अम्बेडकरवादी साहित्य’ कहा जाये या नहीं. लेकिन कुछ कथित दलित विद्वान तेजी सिंह जी की आलोचना करते हैं जबकि डॉ. तेज सिंह का वैचारिक लेखन दलित साहित्य को एक दिशा रहा है. अम्बेडकरवादी साहित्य के लिए अनिवार्य है कि वह पूर्णतः तार्किक हो, समावेशी हो और तथ्यात्मक हो. दलित साहित्य में इसकी डोर थोड़ी ढीली हो सकती है. क्योंकि दलित एक जाति नहीं अनेक जातियों का समुच्चय या समूह है, जिनमें विभिन्न उपजातियों में सांस्कृतिक दूरी है. कई जातियां पढ़-लिखकर आर्थिक रूप से उन्नत परिवेश में प्रवेश कर गयी हैं तो कई जातियां अभी  पहली सीढ़ी पर ही नहीं चढ़ीं हैं. वे अपने पुश्तैनी धंधों में लिप्त हैं. शिक्षा और अवसरों की उपेक्षा की शिकार हैं. दलित वैचारिकी में एकरूपता नहीं आयी है. वहां अपने-अपने अनुभव समझ और संपर्कों के हिसाब से वैचारिकी के स्टैंड पॉइंट हैं. दलित शब्द सामूहिकता का आभास देता है. लेकिन दलित वैचारिकी पर चंद लोगों का स्टैंड पॉइंट है कि जन्मगत दलित ही दलित लेखन कर सकता है. वही दलित लेखक कहलायेगा. जबकि उत्तर भारत में जब दलित लेखन शुरू भी नहीं हुआ था तब दलित-स्त्री शोषण पर प्रेमचंद की कुछ कहानियां आयीं थीं. वर्तमान सन्दर्भ में देखें तो शिवशंकर पिल्लई, महाश्वेता देवी, रांगेय राघव, मन्नू भंडारी, रमणिका गुप्ता और बजरंग बिहारी तिवारी के लेखन में दलित आन्दोलन, आदिवासी, घुमंतू जातियों एवं एकल महिलाओं और दलितों के जीवन पर गहरे विमर्श संजीदगी से रखे गए हैं. दलित जाति में पैदा होकर मनुस्मृति के अनुगामी दलित लेखक नहीं हो सकते. अम्बेडकर केवल दलितों की संपत्ति नहीं हैं. वे सम्पूर्ण देश के आइकॉन हैं. जातीय दमन, जेंडर असंवेदनशीलता, मानवाधिकार हनन और मनुस्मृति के मूल्यों के पक्षधर अम्बेडकरवादी नहीं हो सकते हैं, बेशक वो जन्म से दलित हों. दलित की सीमाओं को तोड़कर उसमें प्रगतिशील, वामपंथ, जेंडर और थर्ड जेंडर जैसी  अस्मिताओं के साथ-साथ मजदूर, भूमिहीन किसान, आदिवासी, घुमंतू जातियों और अल्पसंख्यकों की आवाजों को समाहित करने से ही दलित साहित्य समृद्ध होगा.दलित साहित्य मध्यवर्गीय मूल्यों तक सीमित होकर रह गया है.यह गाँव-देहात, स्लम्स के जीवन और उपलब्धियों से कटा हुआ है. केवल और केवल जातीय शोषण के चित्रण तक सीमित हो गया है. इसके बरक्स महिलाओं के लेखन में विविधता है. उनके अनुभव और अभिव्यक्ति का विस्तार हुआ है.

आपकी दृष्टि में बाजारवाद दलित साहित्य को कैसे प्रभावित कर रहा है?

 बाजारवाद के प्रभाव से कोई साहित्य-समाज-संस्कृति अछूती नहीं है. इसके कारण उपभोक्तावादी वर्ग बड़ी तेजी से बढ़ा है. दलित साहित्य का पाठक वर्ग भी बढ़ा है,लेकिन दलित साहित्य को संपन्न प्रकाशक छाप रहे हैं जो साहित्य को मात्र पुस्तकालयों तक पहुंचा कर मुनाफा कमाते हैं. महंगी किताबें जनसाधारण की पहुँच से बाहर हैं. दलित साहित्य मध्य वर्ग तक ही सीमित होकर रह गया है.

दलित साहित्य में अक्सर कलाहीनता के आरोप लगते रहे हैं. आपकी दृष्टि में दलित साहित्य में रचनात्मकता और अंतर्वस्तु के स्तर पर कौन से मुख्य अंतर्विरोध हैं?

 दलित साहित्य को ललित साहित्य के मानदंडों पर आंक कर कलाहीनता की टिप्पणी की जाती है. दलित साहित्य में उसकी भाषा-व्याकरण को लेकर बीस वर्ष पूर्व  जो टिप्पणी की जाती थी. वह अब भाषा-व्याकरण लम्बी यात्रा कर चुकी है. दलित साहित्य और ललित साहित्य समानान्तर दो भिन्न धरातलों में रचा जा रहा है.दलित साहित्य अनुभव और  जिंदगी के कठोर सत्य एवं तर्क व ज्ञान के व्यावहारिक स्वरूप पर लेखन करता है, जो शोषण-अत्याचार, भेदभाव असमानता, उपेक्षा और वर्जनाओं को प्रश्नांकित करता है.जबकि ललित साहित्य कल्पना एवं भाषा-व्याकरण के श्रृंगार में डूब कर आत्मसंतुष्टि व प्रशंसा हेतु लेखन करता है. आजकल डॉ धर्मवीर और उनके अनुयायी, प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन, दिनेश राम, कैलाश दहिया, राजेंद्र बडगूजर आदि जैसे लोग डॉ. अम्बेडकर के बौद्ध धर्म अपनाये जाने को खारिज ही नहीं करते हैं, बल्कि उसे क्षत्रिय धर्म बताकर उपजातियों के नाम से साहित्य के नामकरण की पैरवी करते हैं. जिस दलित आन्दोलन के परिणामस्वरूप वे सम्मान से जिंदगी जी रहे हैं एवं अपनी रोजी-रोटी कमा रहे हैं. उसी आन्दोलन के खिलाफ उपजातियों की खेमेबंदी में जुटे हुए हैं. हालांकि ये अंतर्द्वंद्व चंद लोगों का है. अकादमिक दुनिया के बाहरके  समाज में  इनके विचारों का कोई प्रभाव नहीं है.

दलित साहित्य आलोचना में अनेक अंतर्विरोध हैं.इस समय अंतर्विरोधों को देखते हुए दलित आलोचना के विकास की स्थिति क्या है?

दलित साहित्य आलोचना में उपजातिवाद, पितृसत्ता और सामन्तवाद के प्रश्नों पर आश्चर्यजनक मौन है. यहाँ अपने आपको श्रेष्ठ कहलाने की महत्वाकांक्षा सर्वोपरि है. एक मत दलित साहित्य को अम्बेडकरवादी विचारधारा का आइना मानता है तो दूसरा मत मंगूरामवाद, अछूतानंदवाद, कबीर-रैदास, भंगी-चमार और आजीवक मत को दलित साहित्य का स्रोत मानता है. पहला मत अम्बेडकर की शिक्षाओं और उनकी धम्म दीक्षा में विश्वास करता है. सांस्कृतिक क्रांति की बात करता है.स्त्री के लिए समानता और उसके प्रतिनिधित्व की बात करता है. सामंती मूल्यों एवं पितृसत्ता का खुलकर विरोध करता है. वहीँ दूसरा मत पुरुष वर्चस्व और सिर्फजातीय अस्मिता का खुलकर समर्थन करता है. यह ललित लेखकों का विरोध करता है लेकिन उन्हीं के साथ बैठकर मुख्यधारा के साहित्य और अख़बार-पत्रिकाओं में अपनी पैठ बनाने के लिए हमेशा जोड़-जुगाड़ में लगा रहता है. यह वर्ग दलित लेखिकाओं को भाषण देता है. उनको नैतिकता का पाठ पढ़ाता है और उन्हें सजातीय विवाह और  अपनी ही जाति में प्रेम करने एवं घरेलू गुलामी की नसीहत देता है. दलित लेखिकाएं इस मत को खारिज करती हैं. यह मत ईश्वर के अस्तित्व में यकीन करता है. स्त्री समानता इसके दर्शन के बाहर की वस्तु है. इसके आलोचनात्मक सन्दर्भ के लिए उमराव सिंह जाटव, मलखान सिंह, कँवल भारती, मोहनदास नैमिशराय,जयप्रकाश कर्दम, कुसुम वियोगी, ओमप्रकाश वाल्मीकि, मुकेश मानस के साथ-साथ प्रो. विमल थोरात डॉ. कुसुम मेघवाल, डॉ. सुशीला टाकभौरे, रजनी तिलक, पूनम तुषामड, रजनी अनुरागी, अनीता भारती, हेमलता महिश्वर, रजत रानी मीनू, कुंती, कौशल पंवार, कावेरी, नीरा परमार के साहित्य को देखा जा सकता है, जिसमें पितृसत्ता,वर्ग और जेंडर-विभेद के साहित्यिक सन्दर्भों को समझा जा सकता है. इधर नये उभरते आलोचकों में अरुण कुमार प्रियम की पुस्तक ‘पितृसत्ता और साहित्य’ से जाति, जेंडर और पितृसत्ता के बारीक़ तंतुवों को समझने की दृष्टि मिलती है. दलित आलोचना इस लिहाज से अभी शैशव अवस्था में है. आलोचना एक लंबी प्रक्रिया में विकसित होने वाला साहित्यिक रूप है.



 क्या दलित मुक्ति-संघर्ष का सम्बन्ध अन्य मुक्ति संघर्षों से होना चाहिये? यदि हाँ, तो क्या इस सम्बन्ध में दलित लेखन की रचनात्मकता और वैचारिकी में कोई फर्क पड़ेगा? 

 दलित मुक्ति अन्य मुक्ति संघर्षों से अलग होकर संभव नहीं हो सकती है.  दलितों की मुक्ति के लिए जरूरी है अपने जैसे सताये हुए समुदायों के साथ एका. सताये  हुए समुदायों की मुक्ति के लिए जरूरी है कि दलित-पिछड़े-मजदूर-आदिवासी-पसमांदा मुस्लिम, ट्रांसजेंडर और स्त्रियों के संघर्षों के साथ मिलकर ब्राह्मणवाद, पूंजीवाद, पितृसत्ता और सामंतवाद के विरुद्ध सतत संघर्ष करें, तभी मुक्ति मिल सकती है. दलित मुक्ति से आशय आतंरिक जातिवाद, सांस्कृतिक गुलामी, पितृसत्तात्मक सोच से भी मुक्ति है. इसके साथ ही दलित मुक्ति का मतलब आर्थिक संसाधनों, सरकारी-अर्धसरकारी और निजी उपक्रमों में दलितों का प्रतिनिधित्व. मीडिया, न्यायालय, शासन-प्रशासन, राजनीति और व्यापार में उनकी सहभागिता भी है. सवा अरब की जनसंख्या वाले देश में छब्बीस करोड़दलित हैं. ये छब्बीस करोड़ लोग न केवल सामाजिक अलगाव के शिकार हैं, बल्कि वे तमाम संसाधनों में हिस्सेदारी से भी वंचित हैं.भूमिहीन हैं. अशिक्षित हैं. अपमानजनक कार्यों में लगे हैं. अनुसूचित जातियों के पढ़े-लिखे चंद लोगों को सरकारी नौकरियां तो मिली हैं, लेकिन सम्मान नहीं मिला है. वे सत्ता की चौखट में परावलंबित हैं. सर्वहारा हैं. पूंजीवादी शोषण की गिरफ्त में हैं. इनकी मुक्ति के बिना राष्ट्र-मुक्ति का कोई मतलब नहीं है.राष्ट्र की स्वतंत्रता, संप्रभुता, प्रजतान्त्रिकता और लोकशाही में अपनापन और इनकी हिस्सेदारी से ही राष्ट्रमुक्ति संभव है.

 आपकी दृष्टि में वर्ण, वर्ग और जाति में क्या अंतर्विरोध है?

वर्ण, वर्ग और जाति में गहरे अन्तर्विरोध हैं. वर्णाश्रम के अनुसार ब्राह्मण  श्रेष्ठ है और अधीनस्थ जातियों का कर्तव्यहै है उसकी सेवा करना. वर्णाश्रम की दूसरी विशेषता हैजातियों के आधार पर काम का बंटवारा. जो जिस जाति में पैदा होगा उसी के अनुरूप व्यवसाय करेगा. मसलन ब्राह्मण शिक्षा का काम करेगा. बुद्धिबल का विशेषज्ञ होगा. क्षत्रिय रक्षक होगा और बनिया व्यवसाय करेंगे. अर्थ पर नियंत्रण रखेंगे. शूद्र सिर्फ सेवा ही करेंगे. आज भी वर्णव्यवस्था हमारे समाज के ढांचे में समाई हुई है. उदहारण के तौर पर ब्राह्मण देश में 6 प्रतिशत हैं,लेकिन सरकारी नौकरियों में वे बहुसंख्यक है. सभी ऊपरी नीतिगत फैसले लेने वाले सचिव और अधिकारियों के रूप में काम कर रहे हैं. जमीनों पर, सेना में, पुलिस में, जाट, राजपूतो एवं मराठों का अधिपत्य है. देश के आर्थिक संस्थानों और उद्यमों पर वैश्य समाज का नियंत्रण है. और श्रम आधारित कामों   में शूद्रों को जोत दिया गया है. वर्णाश्रम मनुवादी व्यवस्था का मजबूत किला है, जिसने  सदियों से मनुष्य-मनुष्य  के बीच गहरी खाईयां  खोद दी हैं, जिन्हें न पाटा जा सकता है न छलांग लगा कर टापा जा सकता है. वर्णाश्रम में महिलाओं और शूद्रोंको कोई सम्मान नहीं, न ही आर्थिक आजादी है. न ही उन्हें सामाजिक सम्मान और न ही सामाजिक हैसियत ही दी गयी है. सामंती प्रवृति में लिप्त पितृसत्ता व जातिवादी जकडबंदी है. देश में हर जाति के अपने-अपने जातीय संगठन बने हुए हैं.गरीब- अमीर, नौकर- मालिक भी अपनी-अपनी जातियों के किले में कैद हैं. मजदूरों को संगठित  करके उनके लिए संघर्ष करनेवाले प्रगतिशील और  कम्युनिस्ट भी हमेश यही मानते रहे कि जब आर्थिक गैरबराबरी ख़तम होगी तभी मनुष्य को सामाजिक हैसियत मिलेगी, सम्मान मिलेगा और वो सबके समकक्ष हो जाएगा. परन्तु भारत जैसे देश में महिलाएं और शूद्र मतलब आज के दलित स्वावलंबी व सम्पन्न  होने के बावजूद  सम्मान व सामाजिक हैसियत से दोयम दर्जे के नागरिक ही समझे जाते हैं. सामाजिक एकता का सपना सच हो सकता था अगर वर्ग संघर्ष में जाति की लड़ाई के साथ-साथ जेंडर के सवालों को साथ-साथ उठाया गयाहोता. क्योंकि सभी जिम्मेदार पदों पर पुरुष और वो भी कथित उच्च जातियों के पुरुषों का वर्चस्व रहा. इसलिए महिलाओं ने उनके काम करने के तौर  तरीकों पर सवाल उठा कर खुद को उनसे अलग कर लिया और स्त्रीवादी सोच के साथ काम करना शुरू किया.
जाति के सवाल पर भी विभिन्न विचारधाराओं  के संगठनों  में पूर्वग्रह बने रहे और दलित  आन्दोलन को उन्होंने पृथकतावादी आन्दोलन कह कर अछूत बना दिया. यहाँ तक कि डॉ. आंबेडकर को भी इन आंदोलनों ने सहयोग नहीं दिया. वर्ग,जाति और जेंडर के सवालों में ऊच्च जातियों और उनके वर्गों की मोनोपोली रही है. चाहे वे किसी भी विचारधारा को मानने वाले रहे हों. स्त्रीवादी संगठनों में भी खास जाति और वर्ग का अधिपत्य रहा है. एलीट  क्लास (संभ्रांत वर्ग) की महिलाओ का दबदबा और नेतृत्व रहता है. उनकी भाषा (अंग्रेजी) और बॉडी लैंग्वेज से हाशिये की महिलाओं में इन्फ़ीरिआरिटी काम्प्लेक्स (कमतर होने का एहसास) आता है और वे मात्र भीड़ बन कर रह जाती हैं.

मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद का वैचारिक द्वंद्व क्या है?        

मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद का मुख्य अंतरद्वंद आर्थिक और सामाजिक सरोकार पर केन्द्रित है. मार्क्सवाद मानता है सब समस्याओं की जड़ पूंजीवाद और मुनाफाखोरी है. अंबेडकरवाद भारतीय मूल की समस्या, वर्ण व्यवस्था और उसके आधार पर श्रम विभाजन, जो जातिगत पेशों को स्थापित करता  है, को आधार मान कर जाति के उच्छेद की बात करता है. पूंजी और संसाधनों पर उच्च जातियों का कब्जा है. दलित, महिलाएं और हाशिये की महिलाएं अगर आत्म निर्भर भी हो गयी हैं या संसाधनों की मालिक भी हैं तो भी उनको उच्च जातियों के समक्ष बराबर नहीं समझा जाता. आर्थिक सम्पन्नता  भी उन्हें सामाजिक बराबरी नहीं दिला पाती. उदाहरण के तौर पर डॉ. अंबेडकर खूब पढ़े-लिखे व्यक्ति थे,लेकिन उनका चपरासी उन्हें पानी पिलाने में अपनी बेइज्जती समझता था. बाबू जगजीवन राम जब बनारस संपूर्णानंद की प्रतिमा का अनावरण करने गये और अनावरण किया तो वहां के ब्राह्मणों ने कहा, ‘जगुवा ने प्रतिमा को छू डाला. गंगाजल लाओ. प्रतिमा को पवित्र करो.’  प्रतिमा को गंगाजल से धोया गया. बाबू जगजीवन राम उस समय केंद्र सरकार में मंत्री थे और आर्थिक रूप से समृद्ध थे. आर्थिक सम्पन्नता ने भी उनको कोई बराबरी नहीं दी. हमारे देश में महिलाएं  कितना ही कमाएं परन्तु वे पति से नीचे ही समझी जाती हैं. पत्नी कितनी ही आत्मनिर्भर हो लेकिन वह पति की सबार्डीनेट(अधीनस्थ) ही मानी जाती है.

क्या स्त्रीवाद से प्रथक दलित स्त्रीवाद की अवधारणा विकसित हो रही है या विकसित हो गयी है?यदि दलित स्त्रीवाद की अवधारणा विकसित हो गयी है, तो वह पितृसत्ता के बहुस्तरीय शोषण और जेंडर-विभेद के किन-किन रूपों से किस प्रकार संघर्षरत है?




स्त्रीवाद से अलग दलित स्त्रीवाद विकसित हो रहा है. दलित स्त्रीवाद अफ्रीकन-अमेरिकनव्हाइट-फेमिनिज्म के समांनातर ब्लैक-फैमिनिज्म की तरह उच्च वर्गीय सवर्ण स्त्रीवाद के बरक्स भारत में अपनी जड़ें जमा रहा है. दलित स्त्रीवाद पितृसत्ता और जाति के ढांचागत शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज उठाता है और  विवाह संस्था में लोकतांत्रिकता चाहता है. दलित स्त्रीवाद  राज्य–समाज-और परिवार में पितृसत्ता व सत्ता की जकड़न से मुक्ति चाहता है और सभी संस्थाओं में ढांचागत लोकशाही एवं व्यवहारिक बराबरी चाहता है. घरेलू  कामों और श्रमाधारित कर्यों के लिये सम्मान एवं सम्मानजनक वेतनमान चाहता है. दलित स्त्रीवाद पितृसत्ता के बहुस्तरीय  शोषण और जेंडर-विभेद के विभिन्न रूपों से घर,कार्यस्थल, वर्ण आधारित समाज, सड़कों और ब्राह्मणवादी राज्यसत्ता के विभिन्न फलकों परसंघर्षरत है. उदाहरण के लिए घर में स्त्री के घरेलू कार्य का मान नहीं. विभिन्न परम्पराओं के कारण उसका स्थान दोयम दर्जे का है. मनुस्मृति के अनुसार स्त्री को कभी स्वतंत्र नहीं करना चाहिए. उसे हर अवस्था में किसी के अधीन रखना चाहिए. घर से बाहर निकलने पर उसे हर कदम जवाब देना होता है.घर में रहने की हिदायत दी जाती है. यदि रोजी-रोटी के लिए घर से बाहर निकले तो भी घर की देखभाल और भोजन बनाने से लेकर अन्य व्यवस्थाएं उसे ही देखनी होती हैं. पुरुषों की अपेक्षा उसका वेतन कम आँका गया है. शादी में कन्यादान, भाई दूज, रक्षा बंधन, शादी के बाद करवाचौथ इत्यादि त्यौहार उसे हर बात पर याद दिलाते हैं कि पुरुष के बगैरउसका कोई अस्तित्व नहीं. जेंडर विभेदीकरण का सबसे पुख्ता उदहारण है कि अनिवार्य रूप से लड़की माँ-बाप-भाई की पसंद से सजातीय विवाह करे ताकि समुदायों की शुचिता बनी रहे. वहअंतरजातीय विवाह न करे. इसके बरअक्स  दलित स्त्रीवाद अंतरजातीय-अंतरधार्मिक  विवाह को सामजिक बदलाव का अस्त्र मानता है, जो सामुदायिक पितृसत्ता को खंडित करता है. दलित स्त्री को अपने फैसले लेने की आजादी देता है. यह दलितों के आतंरिक जातिवाद का खंडन करता है और जाति,जेंडर, वर्ग, और योग्यता के ब्राह्मणवादी मापदंडों को खारिज करके समता-समानता, बंधुत्व और बहनापे की नींव पर प्रबुद्ध भारत के निर्माण का स्वप्न देखता है. दलित स्त्रीवाद परिवार में लोकतांत्रिक मूल्यों के सृजन का पक्षधर है. दलित साहित्यकारों में अंतरजातीय विवाह पर दो मत हैं. एक मत, जो पारम्परिक मनुवादी सोच पर अपना मत रखता है खासतौर से डॉ. धर्मवीर के चेले इस विचार का अनुशरण करते हैं कि हर लड़के लकड़ी की शादी अपनी जातियों में होनी चाहिये. यह मत ब्राह्मणवादी है जो स्त्री की यौनिकता पर पहरा लगाता है और उसकी गतिशीलता तथा चयन के अधिकार को नियंत्रित करना चाहता है. दूसरा,  अम्बेडकरवादी और दलित स्त्रीवादी मत स्त्री को अपनी मर्जी से किसी भी जाति-धर्म  में शादी करने व यौन सुचिता से आजादी देता है. दलित साहित्यकार स्त्रीलेखन को भी आसानी से सहर्ष स्वीकार नहीं करते क्योंकि दलित स्त्रियाँ जातिवाद के साथ-साथ पितृसत्ता एवं  मनुवाद की कट्टर आलोचक हैं.

 दलित साहित्यकारों/चिंतकों में दलित धर्म, दलित संस्कृति और दलित जीवनशैली पदों के प्रयोग पर मतभेद है. दलित वैचारिकी के आईने में आप इसे किस तरह देखती हैं?

 दलित साहित्यकारों/चिंतकों  का एक मत दलितों की श्रमण-आजीवक  परम्परा में यकीन करता है, जो नियतिवादी संप्रदाय था. तो दूसरा मत वैज्ञानिक जीवन शैली में. पहला मत मंगूराम, अछूतानंद ,रविदास,कबीरपंथ एवं अन्य संत परम्पराओं को जीवन शैली मानता है, परन्तु अम्बेडकरवादी बौद्ध जन-समाज के लोकतांत्रीकरण में विश्वास करता है. ये मत आत्मा-परमात्मा, भाग्य- दुर्भाग्य से पीछा छुड़ा  कर डॉ. आंबेडकर की २२ प्रतिज्ञाओं का अनुगामी हुआ. धम्म की शिक्षाओं, बुद्ध के विचारों और उनके समग्र जीवन से शांति, शील करुणा और सम्यक मूल्यों के अनुकरण में यकीन करता है. इसका लेखन इन्हीं के अनुरूप ढलता गया.दलित वैचारिकी के आईने में दलित लेखिकाएं दूसरे मत के करीब हैं. जहाँ  उनके अस्तित्व की स्वीकृति है और दार्शनिक बराबरी का भान है. हालांकि इन दोनों मतों में मौजूद पितृसत्ता की वे हमेशा आलोचक रही हैं और जब तक पितृसत्ता को समाप्त नहीं कर देतीं तब तक संघर्षरत रहेंगी.

अरुण कुमार प्रियम युवा एक्टिविस्ट और आलोचक हैं. सम्पर्क: 9560713852

स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह ‘द मार्जिनलाइज्ड’ नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. ‘द मार्जिनलाइज्ड’ मूलतः समाज के हाशिये के लिए समर्पित शोध और ट्रेनिंग का कार्य करती है.
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
लिंक  पर  जाकर सहयोग करें :  डोनेशन/ सदस्यता 

‘द मार्जिनलाइज्ड’ के प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें :  फ्लिपकार्ट पर भी सारी किताबें उपलब्ध हैं. ई बुक : दलित स्त्रीवाद 
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles