कानून के दुरुपयोग का वर्चस्ववादी विमर्श

सुशील मानव


स्वतंत्र पत्रकारिता और लेखन तथा एक्टिविज्म. सम्पर्क: susheel.manav@gmail.com
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स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों- हर वंचित समूह के खिलाफ क़ानून के दुरूपयोग का सबसे ताजा मिसाल है उन्नाव बलात्कार केस में आरोपी बीजेपी विधायक को दिया जा रहा संरक्षण. वर्चस्वशाली सत्ता न सिर्फ क़ानून का दुरूपयोग अपने हित में करती है, बल्कि पहले से मौजूद कानूनों को कमजोर कर भी अपने वर्चस्व को कायम रखती है- हाल में अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार विरोधी अधिनियम के साथ वही किया गया, जो पहले दहेज़ विरोधी क़ानून के साथ किया गया- सुशील मानव का लेख. 


गांवों की सामाजिक संरचना अब भी सवर्णवादी ही है कुछ अपवादों को छोड़ भी दें तो, अमूमन दलित किसी सवर्ण के विरुद्ध जल्दी नहीं खड़ा होता क्योंकि, फिर उन्हेंनाली, पानी, सड़क सबकी गरज रहती हैऔर ये सब कहीं न कहीं सवर्णों के खेत-बारीकी सरहद से होकर गुजरती हैं। साथ ही रोजी-रोटी के लिए भी गाँव कादलित वर्ग संपन्न सवर्णसमुदाय पर आश्रित होता है। फिर चाहे उनका खेत अधिया पे जोतना हो, उनकी गोरुआरी करनी हो या उनके दुकान या छोटे मोटे उद्योगों में मेहनत-मजदूरीकरना।शहर में इतना ये सब नहीं होता है।
अब सवाल उठता है कि जब गाँव का दलित वर्ग इस एक्ट का जल्दी उपयोग ही नहीं करता तो फिर इसका फायदा क्या है। फायदा है, फायदा ये है कि ये एक्ट बिना उपयोग किये भी ढाल की तरह काम करता है। कैसे ? चलिए एक निजी जीवन प्रसंग सुनाता हूँ। मेरा खेत दलित बस्ती से बिल्कुल सँटा हुआ है, तो मेरे खेत के पास ही वोघूर लगाते। चूँकि इतनी जमीन उनके पास नहीं थी तो बेचारे और लगाते भी कहाँ,खैर। घूर बढ़ते सरकते मेरे खेत में आ जाता। छोटे चाचा बुआई के सीजन में जब मेंड़-कोन दुरुस्त करने जाते तो अपने उग्र स्वभाव के चलते उस समुदाय से अक्सर कहासुनी में उलझ जाते। पिताजी उन्हें अक्सर बैठाकर समझाते कि ठीक है उनका घूर खेत में आ गया है तो आराम से कह दो हटा लेंगे। गर फिर भी नहीं मानते तो उन्हीं के समुदाय के चार लोगों को बुलाकर दिखाएंगे।पिता जी आगे समझाकर कहते कि उनसे बेवजह मत उलझा करो, कहीं एससी/ एसटी एक्ट में शिकायत कर दिये तो लेने के देने पड़ जाएगें। जेल और बदनामी होगी सो अलग। पिताजी कि ये बात छोटे चाचा कितना समझे इसका अंदाजा इस बात से लगाइए कि तबसे दस साल बीत चुके हैं और वो एक बार भी नहीं उलझे। वहीं सुन सुनकर हम भाइयों के दिमाग में भी ये बाते घर कर गईं कि दलित समुदाय के लोग दो बात कहें भी तो बिना जवाब दिये बचकर निकल आना है। हालाँकि उस समुदाय के लोगों ने हमेशा अपने बच्चे जैसा ही समझा और हमने भी जैसे उनका पद बनता था चाचा,दादा बाबा ताऊ भाई, चाची दादी ताई वैसे ही कहकर हमेशा गोहराया मान सम्मान किया। निजी अनुभव के बुनियाद पर मैं ये कह सकता हूँ कि इस एक्ट ने हमें सहिष्णु संवेदनशील और बेहतर मनुष्य होने में मदद की है।



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एससी/एसटी एक्ट दलित समुदाय के लोगों के लिए ढाल की तरह था तलवार की तरह नहीं। अभी तक पुलिस को उस एक्ट के साथ चाहे अनचाहे खड़ा ही होना पड़ता था..क्योंकि प्रावधान ऐसा था फिर अपनी नौकरी भी बचानी होती थी। लेकिन अब जब सब इन्हीं के हाथ में चला जाएगा तो…?? तो क्या माननीयों को देश की पुलिस की ईमानदारी पर पूरा भरोसा है?? क्या आपको. यकीन है कि पुलिसवाले बिना घूसखोरी के निष्पक्ष जांच करेंगे और सही रिपोर्ट लगायेंगे थाने में? और अगर नहीं तो उन्हें खरीदने में कौन सा वर्ग समर्थ होगा सवर्ण या दलित??लेकिन क्या समाज के सबसे कमजोर दलित वंचित तबके की ढाल को एक भ्रष्ट पुलिस व्यवस्था के हाथ में दे देनाउनके लिए न्याय को और दुष्कर व दुरूह बनाना नहीं है??जबकि इन्हीं के जाँच के बिना पर आजतक एक भी छोटे बड़े जनसंहार में सवर्ण समुदाय के किसी व्यक्ति को सजा नहीं हुई है सबके सब तथाकथित ऊँची जाति केआरोपी अदालत से बाइज़्ज़त छूट जाते हैं।रही बात संस्थाओ और संस्थागत व्यवस्था की तो इनकी कार्य संस्कृति हमेशा से ही सवर्णवादी रही है।इसे बदले बिना सामाजिक न्याय की परिकल्पना का साकार होना संभव नहीं। लेकिन सत्ता ये चाहती नहीं क्योंकि एक ईमानदार व्यवस्था से सरकार का काम नहीं चल सकता।

चूँकि वोटबैंक की सियासी गणित के चलते ये काम भाजपा सरकार की ओर से होता तो पार्टी और विचारधारा का हित प्रभावित होता अतः इसे न्यायपालिका से करवाया गया।तीन साल पहले तक भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के वकील रहे जज ने जिन्हे एक मकसद से सुप्रीम कोर्ट का जज बनवाया गया था ने अपने प्रभाव से एससी/एसटी एक्ट को कमजोर कर दिया है,इस तर्क के साथ इस एक्ट की आँड़ में बहुत से निर्दोषों को बेवजह परेशान किया जाता है। जबकि हकीक़त ये है कि इस एक्ट का गर थोड़ा बहुत गलत इस्तेमाल हुआ भी है तो उसके पीछे भी किसी न किसी सवर्ण की ही भूमिका रही है। जिसने अपने यहाँ कार्य करनेवाले या आश्रित दलित समुदाय के व्यक्ति की आँड़ में इस कानून का गलत इस्तेमाल किया। बेहतर होता इस कानून को और पुख्ता बनाया जाता बनिस्बत इसे कमजोर करने के। यहाँ एक सवाल ये उठना भी लाजिमी है कि ‘कानून के दुरूपयोग’ का सवाल सिर्फ उन्हीं कानूनों पर क्यों उठता है जो कानून समाज के वर्चस्ववादी तबके को चुनौती देते हैं? जबकि समाज के कमज़ोर तबकों को सशक्त करने में इन कानूनों की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है।

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अब सवाल ये भी है कि क्या चोरी के कानून का दुरूपयोग नहीं हो रहा है? या क्या हत्या के कानून का दुरूपयोग नहीं हो रहा है? क्या सवर्ण तबके या पुलिस प्रशासन द्वारा वंचित दलित लोगों को मारपीट/गाली-गलौच/चेन-स्नैचिंग/ज़हर-खुरानी/ड्रग तस्करी के झूठे मामलों में दशकों दशक से नहीं फँसाया जाता रहा है, और तब इन कानूनों का गलत इस्तेमाल नहीं हो रहा है?क्या देशद्रोह के कानून का सत्ता गलत इस्तेमाल नहीं करती अपने खिलाफ उठने वाली आवाज को कुचलने के लिए? क्या कोर्ट की अवमानना का कानून न्यायपालिका में भ्रष्टाचार, कदाचार को ढाल बनकर संरक्षित नहीं करता? फिर उपरोक्त कानूनों की ज़रूरत और अप्रासंगिकता पर कोई विचार या समीक्षा क्यों नहीं की जातीहै कभी?

दरअसल’कानून के दुरूपयोग’ का पूरा विमर्श ही वर्चस्ववादी तबके द्वारा रचा गया ऐसा विमर्श है जिससे उनका वर्चस्व बना रहे। पुरुषवादी वर्चस्व को खतरा होता है तो महिलाओं के लिए बने कानूनों के दुरूपयोग की चर्चा होने लगती है। तथाकथित ऊंचीजातियोंके वर्चस्व को खतरा पैदा होता है तो दलितों के लिए बने कानूनों के दुरूपयोग की चर्चा होने लगती है। स्त्रियों/दलितों के लिए बना कोई भी कानून महज चंद दिनों में नहीं बना इसके पीछे पूरा एक शोषण दमन व वंचना का एक बर्बर वीभत्स अमानवीय इतिहास है और उसके विरुद्ध सदियों का साधनविहीन प्रतिरोध व संघर्ष की अलिखित गाथा है। ये कानूनकई पीढ़ियों के संघर्ष और लंबी लड़ाई का हासिल हैं।ये बात दलित समुदाय भलीभाँति जानती समझती है,इसे यूँ ही किसी को हँसते खेलते नहीं छीन लेने देगें ये।

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