सन् 1992 को याद करते हुए
मैंने देखा
उन लोगों ने गाँव आने पर पहले-पहल
मुक्त छंद की तरह बिखर चुके
बुन्दू लोहार का हाल-चाल पूछा
उसके बाद बारिश की टप-टप में
दंगे उमें मारे गए उनके बेटे की
आत्मा की शांति के लिए
दो मिनट का मौन रखा
और जनाज़े को खटिया पर उठाए
कब्रिस्तान की ओर दौड़ पड़े
वहीं रास्ते में झोड़ के किनारे बैठी
सिंघाड़े बेचने वाली एक बुढ़िया ने
आदमियों के समूह को देखकर
जो जनहित का काम कर रहे थे
फिर से एक बार
सन् 1992 को याद किया
और आसमान की ओर चीख-चीख कर
सृष्टि के कलाकार से कहा
ऐसी ही रहेगी तेरी यह दुनिया
मैं जानती हूँ, मैं जानती हूँ
तुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
पपड़ीनुमा होंठ
मेरी माँ का यौवन
आज फिर से उठान पर है
वह लौट गई है
फिर से उस उम्र में
जब पहली बार
उसने किया था महसूस
आज जैसे ही यौवन को
उसने फिर से रंग लिए हैं आज
जैसे तैसे अपने होंठ
जिन पर जम गई थी पपड़ियाँ
पिता के जाने के बाद
माँ ने पिता को बहुत रोका
यहाँ तक कि अपने साथ साथ
दे दी थी मेरी क़सम भी
मगर नहीं रुके थे पिता
वे चले गए थे कहीं दूर
अपनी ही दुनिया में
और जो अब तक ना लौटे
लेकिन करती रही है माँ हमेशा इंतज़ार
पपड़ी जमे होठों को
दुबली पतली देह पर
शिथिल पड़े स्तनों को साथ लिए
लेकिन आज कुछ ऐसा
घटित हुआ अकस्मात्
तोड़ डाले हैं माँ ने आज सारे बंधन
समाज की भीखमंगी
परंपराओं से हो कर मुक्त
आज उसने रंग ही लिया
आखिरकार मात्र दस रुपये की
सुर्खी को पपड़ी नुमा होठों पर
बिब्बी की उपलेनुमा आग
मेरे पड़ोस में
एक बुढ़िया रहती है
वैसे तो उसका नाम रमज़ानो है
लेकिन सब उसे प्यार से
बिब्बी कहकर पुकारते हैं
उसके परिवार के बारे में लोग बताते हैं
पति की असामयिक मृत्यु के बाद
उसका छरहरा जवान लड़का भी
जो बिलकुल मेरा ही हमउम्र था
दंगे की भेंट चढ़ गया था
एक लंबे अरसे बाद
शहर से वापस गाँव आने पर
बिब्बी को उस ऊबड़-खाबड़
चबूतरे पर न पाकर
जहाँ हम कंच्चे बजाया करते थे
जो अब राहगीरों के मूतने का
स्थायी ठिकाना बन चुका है
मालूम पड़ा
मुफ़लिसी की मारी वक़्त की सतायी
बिब्बी अब हाड़-मांस का शरीर लिए
पोपले हो चुके मुंह में
पान की गिलोरी को
किसी काल-विशेष की तरह चूसती
रोज़ाना इधर-उधर से बटोरती है गोबर
जिसको पाथती है
दूर चकरोड़ के किनारे
भरी दोपहरी सरकंडो के बीच बैठ
ताकि पेट की आग बुझाने को
बेच सके उपलेनुमा आग।
शहर में विकास ज़ोरों-शोरों पर है
शहर में भवनों-इमारतों का निर्माण
और शहर का विकास ज़ोरों-शोरों पर है
वहाँ काम करती औरत,
और उसकी पीठ पर बंधा बच्चा,
औरत का कराहना, बच्चे का रोना-चिल्लाना
ज़ोरों -शोरों पर है।
काम से हटकर उस औरत का
रोते-चिल्लाते बच्चे को
अपनी सूखी छाती से दूध पिलाना
बच्चे का सूखी छाती से दूध को चूसना
ज़ोरों-शोरों पर है।
रोज़ शाम को थक-हारकर
औरत का अपनी टूटी-फूटी झोंपड़ी में लौटना
कच्चे चूल्हें पर रखी हांडी में
उस औरत का चावलों को घोटना
चावलों का घुटना
ज़ोरों-शोरों पर है।
शहर में एक माँ और बच्चे का विकास
ज़ोरों-शोरों पर है।।
स्त्रीकाल का प्रिंट और ऑनलाइन प्रकाशन एक नॉन प्रॉफिट प्रक्रम है. यह ‘द मार्जिनलाइज्ड’ नामक सामाजिक संस्था (सोशायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट 1860 के तहत रजिस्टर्ड) द्वारा संचालित है. ‘द मार्जिनलाइज्ड’ मूलतः समाज के हाशिये के लिए समर्पित शोध और ट्रेनिंग का कार्य करती है.
आपका आर्थिक सहयोग स्त्रीकाल (प्रिंट, ऑनलाइन और यू ट्यूब) के सुचारू रूप से संचालन में मददगार होगा.
लिंक पर जाकर सहयोग करें : डोनेशन/ सदस्यता
‘द मार्जिनलाइज्ड’ के प्रकशन विभाग द्वारा प्रकाशित किताबें ऑनलाइन खरीदें : फ्लिपकार्ट पर भी सारी किताबें उपलब्ध हैं. ई बुक : दलित स्त्रीवाद
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com