दम तोड़ते रिश्ते

कौशल पंवार

   रचनाकार, सामाजिक कार्यकर्ता ,  मोती लाल नेहरू कॉलेज , दिल्ली विश्वविद्यालय, में संस्कृत  की  असिस्टेंट प्रोफ़ेसर संपर्क : 9999439709

“फ़िर, फ़िर क्या हुआ?”


उसने ठण्डी आह भरते हुए कहा- “मैं भाग रही थी, बेसुध, सपाट और सुनसान सड़क पर. हिरण जैसे कश्तूरी की सुंगध पाने के लिए मारा मारा फ़िरता है, मैं भी उसी तरह थी. जैसे कोई शिकारी हिरण का शिकार करने के लिए उसके पीछे-पीछे दौड़ता है. हिरण आगे -आगे और शिकारी पीछे पीछे. उसके पैर आगे की ओर बढते है और गर्दन बार- बार मुड मुड़कर शिकारी को देखती है. मैं भी उसी तरह थी. मैं भाग रही थी आगे की ओर, और गर्दन बार -बार पकड़े जाने के डर से अपने आप पीछे मुड़- मुड़कर देखती रही थी. सामने देखती तो कान पीछे लगी पदचापों को सुनने के लिए घोड़े के कान की तरह सीधे खड़े होकर पदचापों की दूरी नापने लगते. कानों पर भी आंखों को विश्वास नहीं हो रहा था तो झट से भागते -भागते पीछे की ओर घूमती. तरह-तरह के ख्याल मन में उमड़ रहे थे. एक तरह मेरे सामने मेरी मंजिल, मेरी दुनिया थी तो दूसरी ओर…मेरा पूरा परिवार. अगर घरवालों के हत्थे चढ गयी तो..तो…… क्या होगा, सोचकर ही मेरी रुंह कांपने लगती थी. मैं रूकी नही. बेइन्तहाशा दौड़ती रही.”

“सूरज की रोशनी ढल गयी थी, अंधेरा फ़ैलने लगा था. मेरे साथ देने के लिए मानो कायनात भी चाहती थी कि मैं पा लूं उसे, जिसके लिए मैं सब रश्मों को तोड़कर आगे बढने का निर्णय कर चुकी थी. सड़क पर स्ट्रिटलाइट नहीं थी. गांव देहात में लाइट अक्सर आती भी नहीं है. कहने को तो पूरी सड़क पर लाइटें लगी हुई थी परन्तु जलती नहीं थी. मुझे धुंधलके ने घेर लिया था. सड़क भी साफ़ नजर नहीं आ रही थी परन्तु मैने अपनी प्रेम की आंखों की रोशनी में उसकी बाइक देख ली थी. मुझे पूरा यकीन था कि वही होगा जो सड़क किनारे घने पेड़ के नीचे खड़ा था. भीतर तूफ़ान उमड़ रहा था. मेरे सामने कुछ कदम पर ही मेरी मंजिल थी. आज एक नये रिश्ते की ओर मैं बढ रही थी. आज मै अपने नये रिश्ते में बंध जाऊंगी इसी का जनून मुझे उस ओर खींच रहा था.

मेरे पीछे की पदचाप और नजदीक आती जा रही थी. हाथ की दूरी थी बाईक तक पंहुचने की और इतनी ही दूरी घरवालों की पदचाप की. अंधेरा घना हो चुका था. बादलों ने चांद की रोशनी को भी ढक लिया था. तारे टिमटिमाते हुए आंखमिचौली खेल रहे थे जिनकी रोशनी में मैं बाइक को देख पा रही थी और घरवाले मुझे. धुंधलका बढ गया था. इसी का फ़ायदा उठाकर मैं बाइक पर बैठ जाऊंगी, कुछ कदम और. मैने पूरा दम लगा दिया अपनी सांसों को बंद करके. पदचाप बहुत नजदीक आ गयी थी. मैने हाथ बढाकर बाइक के पीछे की सीट पकड़नी ही चाही थी कि…”

“फ़िर फ़िर क्या हुआ?”

उसने मुझसे पूछा तो मैने अपने अंदर की टूटन को समेटा और कहा कि “बाइक घर्र घर्र की आवाज करती हुई मुझे पीछे धकेलती हुई छोड़कर चली गयी, इतनी तेज कि मेरी दौड़ उसके आगे बौनी थी. मेरे पास अपनी आवाज निकालने तक का वक्त नहीं था. मेरा मन किया कि मैं रमेश को आवाज लगाकर रोक लूं. उसे पकड़कर जोरदार तमाचा लागाऊं. क्या यही रिश्ता था. ..? मुझे इतना सोचने तक की फ़ुर्सत नहीं थी ओर मैं झट से उसी पेड़ की ओट में छुप गयी. तारों ने भी टिमटिमाना बंद कर दिया था.

इससे पहले कि घरवाले बाइक को पकड़ पाते वह भाग गया था. थोडी दूर दौड़ कर उसका पीछा भी किया पर वह उनकी पहुंच से बाहर था. वे बाइक के पड़े निशान पर तेज-तेज पैर पटक रहे थे. हाथ मल रहे थे कि मैं बाइक पर बैठकर उनकी आंखों के सामने भाग गयी. और मैं बेजान पेड़ की ओट से आंखें फ़ाड़े सब परिवार वालों को अपने सामने सड़क पर देख रही थी- मेरी मां जिसने मुझे पैदा किया, मेरा भाई जो बचपन में मेरे साथ गुड्डे गुडिया का खेल खेलता था, नाराज होने पर चीजें बाहर से लाकर देता था, पिता और ताऊ जो कभी अपने कंधे पर बिठाकर मुझे झुलाते थे-सब आज मेरी आंखों के सामने होते हुए भी मुझसे दूर जा चुके थे. मन किया कि मां से लिपटकर रोऊं. चीख-चीखकर बताऊं कि मुझे रमेश ने धोखा दिया. इस मोड़ पर लाकर मेरा साथ छोड़ दिया. साथ जीने-मरने की कस्में खायी थी लेकिन जीना तो दूर वह मेरे साथ मर भी न सका. मैं फ़िर भी जिंदा थी. मां अब मां रही ही कहां थी? मैं संभली. भावनाओं से बाहर निकली, हकीकत मेरे सामने थी. सबकी आंखे आग उगल रही थी. सब कुछ भस्म करने को तैयार. जरा सी नजर मुझ पर पड़ी तो घरवाले मुझे जिंदा गाड़ देंगे, सोचकर ही मैं कांप गयी थी. अपने सामने मुझे मौत नजर आ रही थी.

थोड़ी देर पहले के सपने अपना दम तोड़ चुके थे. बहुत कुछ बिखर गया था, टूट गया था. उस टूटन की आवाज केवल मैं ही सुन सकती थी या फ़िर वह पेड जो मेरा एकमात्र सहारा था उस वक्त. वे बादल जो उमड़ उमड़कर चांद की चांदनी को ढक रहे थे. टुटन अगर बाहर आयी तो इसकी किमत मेरे शरीर को जान देकर चुकानी पड़ेगी.
मेरे ताऊ ने दहाडकर मेरे छोटे भाई को घर से बाइक उठाकर लाने को कहा. वह दौडकर गया और गांव के भीतर जाने वाली सड़क की ओर मुड़ गया. घरवाले अभी भी सड़क पर कुछ ढूंढ रहे थे मानो मुझे बाइक की लकीरों से बाहर निकालकर ही छोड़ेंगे. मुझे अब अपनी जान बचानी थी. अपने आपको बचाना था. अचानक मुझे अपने आपसे प्यार हो आया था. जो मुझे बीच मझधार छोड़ गया उसके नाम पर सजा मुझे भी मंजूर नहीं थी. जो पकड़े जाने के डर से ही भाग गया, क्या पता वह मेरे साथ अपना जीवन बिता भी पाता या नहीं. थोड़ा सा हवा का झौंका क्या आया, सब प्यार-व्यार अपने साथ उड़ा ले गया.

अंधेरे से छिपी मैं उन सब को ही देख रही थी कि सबका ध्यान सड़क पर पड़ी किसी चीज पर गया. आंखे गाड़े सबके सब नीचे की ओर देख रहे थे. मेरे लिए यहीं मौका था वहां से हटकर कहीं ओर छुप जाने का. बिना नजरों में आये मैं ज्यादा देर नहीं छुपी रह सकती थी वहां. इक्का-दुक्का वाहन सड़क से गुजर ही रहे थे. उनकी लाईट से रोशनी फ़ैल रही थी जिससे देखे जाने का डर था. जब सबका ध्यान नीचे जमीन की ओर था मैं उस ओट से वहां से हट गयी. पेडों की छांव मे छुपते-छुपाते मैं घर की ओर जाने वाली सड़क की ओर मुड़ी ही थी कि मुझे झट से एक बार फ़िर पेड़ की ही ओट लेनी पड़ी. सामने गली से भाई बाइक लेकर आ गया था. मैं छुप गयी. उसके रोड पर आने तक वहीं छुपी रही. जब वह मेरे पास से गुजर रहा था मन किया कि अपने भाई को बता दूं कि मैं भागी नहीं हूं बल्कि रमेश मुझे छोड़कर भाग गया है. मैं तो यहीं हूं अपने भाई के बिल्कुल नजदीक. मैं ऐसा केवल सोच ही सकती थी. भाई जब रोड पर पंहुच गया तो मैं अन्दर घर की ओर जाने वाली गली में घुस गयी.

अपने घर के नजदीक पंहुच, मैं ठीठक गयी थी. मन किया कि भाग कर अपने घर में चली जाऊं. पर इसके बाद क्या होगा मैं जानती थी. मेरे घर के पीछे ही एक प्लाट खाली पड़ा था जिसमें ज्वार खडी थी- आदमकद ज्वार. वह मेरे छुपने के लिए माकूल जगह थी. मैं भागकर उसके अंदर घुस गयी. जान तो बचानी ही थी मुझे.
जहां छुपी, इस जगह तो मैं दिन में भी कभी नहीं आती थी लेकिन आज यही मेरी जान बचाने का साधन बनी थी. मैं ज्वार के अंदर मचान की पीठ से अपनी पीठ को सहारा देकर बैठ गयी थी. रात और गहरी होती जा रही थी. सन्नाटा बढ गया था. मैं डर के मारे कांप रही थी. रात के इस सन्नाटे से कहीं ज्यादा डर घरवालों के मुझे पकड़े जाने का था.

मैंने जो किया था उसका मुझे कोई अफ़सोस नहीं हो रहा था. अंदर से सब कुछ निकल गया था. मैने रमेश को चाहा था. जीने-मरने तक साथ निभाने का वायदा मैने भी तो किया था. उसने नहीं निभाया तो यह उसकी गलती थी जिसकी सजा मैं क्यूं भुगतूं ? यही सोचकर मैने अपने आपको शांत कर लिया था. घरवालों की नजर में यह  उनकी पगड़ी उछालने का सवाल था. मान मर्यादा का मसला था. पर मेरे लिए नहीं था. अपना माना था उसे..! इसलिए उसके साथ भागना क्या जुर्म था ?

घरवालों से इस रिश्ते के बारे में बात करना “आ बैल, मुझे मार” वाला था. उनकी रजामंदी होने का सवाल ही नहीं था. जातीय दम्भ के आगे मेरा रिश्ता दम तोड़ जाता. कभी साहस भी तो नहीं किया था कि इस बारे में खुलकर बात करूं. “इश्क और मुश्क छुपाये नहीं छुपते” पता लग ही गया था कि कुछ है जो ठीक नहीं चल रहा था. बात यहां तक पंहुच जायेगी इसका अंदाजा सगाई के लिए मेरे ना करने से साफ़ हो गया था. मैने रजनी जो मेरे सरपंच ताऊ की बेटी थी, सब बता दिया था. वह भी डर गयी थी. खूब समझाया था मुझे कि मैं रमेश के चक्कर में पड़कर अपने आपको आग में न झोकूं. पर दिल कहां इन बंदिशों का मान रहा था. मैं जोर-जोर से दहाड़ मारकर रोना चाहती थी. रमेश ने ऐसा क्य़ूं किया. रमेश- रमेश- रमेश….. करते-करते मुझे कब नींद आयी, पता ही नहीं चला. मैं सो गयी थी वहीं ज्वांर में घुटनों को मोडकर मुंह को छिपाये हुए. दिन निकल आया था. आंख खुली तो अपने आपको हिलते हुए ज्वार के पौधों के बीच में पाया. सारी रात एक ही मुद्रा में बैठे- बैठे जुड़ गयी थी, सो पैर पसार लिये.

मेश का चेहरा फ़िर आंखों के सामने छा गया था. एक बारगी तो उसकी मासूमियत और शरारत भरी नजरों ने मन में एक झुरझरी सी पैदा कर दी परन्तु दूसरे ही पल रात का एक-एक सीन फ़िल्म की तरह आंखों के आगे आ गया. मेरा चेहरा कठोर हो गया था. उस आदमी के नाम का कलंक नही लगने दूंगी जो बुजदिल था, कायर था. घरवालों को देखते ही भाग खड़ा हुआ. एक बार भी नहीं सोचा कि मैं सबको क्या जवाब दूंगी?  सबका सामना मैं अकेले कैसे करुंगी? एक हाथ से भी कम की दूरी रमेश ने जीवन भर की दूरी बना दी. मैने सोच लिया था कि मैं हर हालत में अपने आपको बचाकर रहूंगी.

ज्वार में बैठे-बैठे यही सोचती रही. कभी घरवालों का चेहरा तो कभी रमेश की कायराना हरकत. धीरे-धीरे दिन बढ रहा था. सूरज ने अपनी रोशनी से आग उगलना शुरु कर दिया था. ज्वार में भी उमस बढ रही थी. जैसे ही ज्वार की कोई बली मेरे नंगे हिस्से पर पड़ती तो बिजली की तार जैसे चुबती. पैर उठने को होते तो तुरंत पकड़े जाने के डर से दुबक जाती. अपनी धड़कनों तक को रोक रही थी कि कहीं गली से गुजरते हुए कोई मेरी धड़कन तक की आवाज न सुन ले. मेरे पास अपनी जान बचाने का कोई साधन नहीं था. एक बार मन में आया कि अपने आपको खत्म कर लूं, फ़िर लगा कि किस अपराध के लिए, वो अपराध जो किया ही नही, और किसके लिए अपनी जान दूं.

ज्वार से छनकर आयी रोशनी में से मैं बाहर गली में झांक रही थी कि रजनी दिखाई दी. मैं अपनी सांस रोकर उसे गुजरते हुए देख रही थी. मन किया मैं उसे पुकार लूं फ़िर पकडी जाऊंगी, नही आवाज लगा पायी. पता नहीं क्या सोचकर मैने अपने जम्फ़र (कमीज की झालर) को धीरे धीरे फ़ाड़कर उस झरनी से बाहर की ओर सरका दी. जाने कौन सी शक्ति थी जो मुझे ऐसा करवा रही थी या फ़िर मेरी जरुरत ने मेरा साथ देना शुरु कर दिया था. रजनी ने जैसे ही जम्फ़र की झालर देखी, झट पहचान ली कि ये तो मेरी कमीज का कपड़ा है. वह मेरी ओर ही बढ गयी. मैने झालर को वापिस खीच लिया. हमारी आंखे एक दूसरे से टकरा चुकी थी. उसने इधर-उधर देखा और घर के प्लाट से लगे ज्वार के खेत में बनी इस चार दिवार को फ़ांद कर मेरी ओर कूद गयी. हम दोनों बहने एक दूसरे से लिपट गयी. उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं हूं उसकी बहन जिसे हमारे घरवाले कुत्ते की तरह सुंघते मारे-मारे फ़िर रहे हैं. मरे हुए को जिंदा देखकर जो खुशी मिलती है, ऐसी खुशी पाकर हम एक दूसरे से काफ़ी देर लिपटे रहे. रजनी की सिसकियां बढ रही थी. मैने उसे अपने से अलग किया और उसके मुंह पर अपनी हथेली रख दी. ना में मैने गर्दन हिलाई और चुप करा दिया. वैसे उसे भी बहुत सी शिकायतें थी मुझसे. वह फ़ूट फ़ूटकर रोना चाहती थी. मैं उसे चुप रहने का ईशारा करती रही. शांत होने के बाद उसने मुझे पिछली रात से लेकर और आज दिन भर में क्या – क्या घरवालों ने किया, सब कुछ एक सांस में बता दिया.

रोड पर पड़े हुए जो घरवालों ने देखा था, वह रमेश का फ़ोन था जिसे ट्रैक कर लिया गया था. पडोस के गांव का पूरा पता घरवालों को लग गया था. इससे पहले कि वे उसे पकड़ पाते वह वहां से भाग निकला था. घरवालों के हाथ फ़िर खाली थे. पर इतना पता उन्हे लग गया था कि मैं उसके साथ नहीं गयी थी. पर उनकी इज्जत तो शरेआम नीलाम हो ही गयी थी. इसलिए बड़े संयत होकर अब वे मुझे ही ढूंढ रहे थे कि मैं आखिर गयी कहां हूं?
पूरा परिवार मेरे इस कदम से नाराज था. वह भी नाराज है, मैने चुहलबाजी करते हुए रजनी से पूछा तो उसने मुझे प्यार से छिड़क दिया और बच्चों की तरह रो पडी. मेरी आँखें तो सुख ही चुकी थी. उससे मेरी हालत नहीं देखी जा रही थी. मैं रात भर इसी खेत में थी, जानकर वह दुखी हो गयी थी पर वह कुछ खास कर भी नहीं पा रही थी इसलिए और दुखी हो गयी थी. जब वह शांत हुई तो मैंने उसे कहीं से सरोज का फोन नम्बर लाने के लिए कहा. यहा ज्यादा देर तक रुकना ठीक नहीं था इसलिए मैने उसे घर भेज दिया. सबकी नजरों से छुपकर वह घर चली गयी.

सरोज जिसके बारे में मैंने अपने कालेज के दिनों में एक अखबार में पढा था. हम लड़कियों के बीच वह चर्चा का विषय कई दिनों तक बना रहा था. इस समय मेरी जान को बचाने का केवल यही एक रास्ता था.  सरोज और रजनी मेरी उम्मीद बन गयी थी. दिन ढलने लगा था. मैं खामोश दिवार से सटी ज्वार के एक कोने में पड़ी-पड़ी सोच रही थी. किस्से किस्से होते हैं हकीकत नहीं. इन्हीं किस्से कहानियों ने मेरे अंदर प्यार का पौधा रोप दिया था. यही सच होता है, मैने ये मान लिया था. बलविंदर कौर और रोशन के प्यार की कहानी मुझे आज भी याद थी. दिवार के सहारे सहारे धस कर मैं अपने अतीत में धस गयी थी.”

…बलविंदर कौर और रोशन की यादें ताजा हो आयी थी. दूर ऊपर आसमान में बादल घिर आये थे और मैं भी अपने ख्यालों में घिर गयी थी. गड़्गड़ की आवाज करते बादल गरजने लगे. बलविंदर कौर और रोशन का प्रेम मेरी आंखों के आगे तैर गया था. बलविंदर कौर मेरे ही गांव से अगले गांव के ढेरे से आती थी. बस अड्ड़ा मेरे ही गांव का था. जहां से हम कालेज जाने के लिए बस पकड़ती थीं. कई बार वह टम्पू मे अकेले आती तो कई बार उसका भाई उसे मोटरसाइकिल से मेरे गांव के अड्ड़े तक छोड़कर आता था. वह बहुत सुंदर थी. गौरा-गौरा गेहूआं रंग था उसका. भोली सी सूरत जो किसी का भी मन मोह ले. बडी-बड़ी सी गहरी सी काली काली आंखे, लम्बी सी नाक ठीक अपनी लम्बाई की तरह, छरहरा बदन, गुलाबी से होंठ और उन पर प्यारी सी पंजाबी बोली. बहुत कम बोलती और जब बोलती मानो फ़ूल झड़ रहे हों. नीला सूट और फ़ुलकारी वाला दुप्पटा पहनकर जब आती तो गजब की सुंदर लगती. अक्सर सफ़ेद रंग की हिल वाली बैली पहनती. उस पर हिल वाली बैली जचती भी खूब थी. उसे पहनकर वह और पतली व लम्बी लगती.

जब भी हम बस में बैठते तो कोई उसे बड़े प्यार से निहारता. कॉलेज के बीच में पड़ने वाले रास्ते के गांव से वह चढता था. उसी बस में आता-जाता जिस बस में वह होती. अगर किसी दिन छुट्टी मारती तो वह भी कालेज नहीं जाता था. उसे न देखकर बस में से उतर जाता था,  चलती बस में से, कई बार तो नीचे पड़ते-पड़ते बचा था.
हम बलविंदर को छेड़ते तो वह झूठ मूठ की नाराज होती, नीचे पलके झुकाती और मंद-मंद मुस्कराती. वह भी उसे चोरी छुपी निहारने लगी थी. ऐसे ही दोनो का चोरी- चोरी, चुपके-चुपके चलता रहा. हमारा कालेज लड़कियों वाला था और वह कॉमन कालेज में पढता था. हमारी एन.सी.सी. की परेड उसी के कॉलेज में होती थी. बलविंदर ने एन.सी.सी नहीं ले रखी थी. एक दिन हम सब कालेज के ग्राउंड से परेड करके लौट रहे थे कि हमने पार्क में बैठे हुए बलविंदर और रोशन को देख लिया, जोर से हुक लगायी. “उड़ गये तोते उड़ गये तोते” जोर-जोर से चिल्लाये और अपनी एन.सी.सी. की टोपियां हवा में उछाली. खुशी से या छेड़खानी से पता नहीं. ये हमारा बचपना था या शरारत, या दोनों थी. उन्होंने भी हमे देख लिया था. दोनों थोड़ा सा शर्माये और हमे देखकर मुस्काराये भी.

धीरे-धीरे कालेज में आग की तरह ये खबर फ़ैल गयी थी, जैसे उन दोनों ने साथ बैठकर कोई बड़ा गुनाह कर दिया हो. ये आग उनके घर तक भी फ़ैली. बलविंदर ने कॉलेज आना बंद कर दिया था. हम लोग कुछ नहीं कर पाये थे.
एक दिन उसका भाई शादी का कार्ड दे गया यह कहते हुए कि मुझे शादी में जरुर आना है. बिना मुझसे बात किये बाइक पर बैठकर चला गया. शादी की सूचना रमेश को भी मिल गयी थी. उसने मुझे सिर्फ़ एक बार उससे मिलवाने के लिए कहा जो मैं नहीं कर पायी थी. थोड़े दिनों बाद ही शादी थी. उसकी शादी में हम सब गये थे. यह शादी नहीं एक समझौता था जो उसने किया था.

सब अपने अपने कामों में व्यस्त हो गये थे. बलविंदर भी अपने आपसे समझौता कर आगे बढ गयी थी. नहीं बढा था तो वह था रौशन . उसका जीवन ठहर सा गया था. उसने बलविंदर के साथ बिताये उन क्षणों को ही अपना जीवन दे दिया था. उसने कभी किसी से दोबारा प्यार नहीं किया और न ही विवाह ही किया. मैने भी ऐसे ही प्रेम को पाने की कल्पना कर ली थी जो रौशन ने किया था.

बादल बरस रहे थे जैसे मेरी आंखों से आंसू झर रहे थे. मेरे दुःख में मेरा साथ दे रहे थे. ज्वार के  खेत में पानी भरना शुरु हो गया था. मेरे प्यार का नशा अब बादलों की तरह झड़ गया था. मुझे उन दोनों के प्रेम से भी कोफ़्त हो आयी थी. आखिर रोशन ने भी तो बलविंदर को अकेला छोड़ ही दिया था, क्यों नहीं दिया था उसका साथ, उसका हाथ थामकर. उसे भी तो अपने परिवार, समाज का खौफ़ था, उन्हे खोने का डर था, जमीन से बेदखल कर दिये जाने का ड़र था. हालांकि उसने इसकी सजा अपने आपको जरुर दी ताउम्र शादी न करके. दूसरी ओर बलविंदर थी जिसने अपने प्रेम को पाने के लिए कुछ नहीं किया था, समझौता कर लिया था, परिस्थितियों के आगे हार मानकर.

मेरे साथ क्या हुआ मैं सोचने लगी थी. मेरी आंखों के पानी की तरह बादल भी बरस कर थम गये थे. ठण्डी हवा चलने लगी थी जिससे शरीर में ठण्डक होने लगी थी. पानी की निकासी न होने के कारण खेत में पानी भर कर घुटनों तक आ गया था. मैं अब बैठ भी नहीं सकती थी. पर रात तो काटनी ही थी, इसलिए दिवार का सहारा लिये खड़े खड़े ही जैसे-तैसे दूसरी रात भी बिताई.

दो रातें गुजर गयी थी. तीसरा दिन निकल आया था. मैं बार-बार रजनी के आने की बाट जो रही थी. पर वह नहीं आयी थी अभी तक. रात तो बारिश के कारण नहीं आयी होगी पर अब तो दिन चढ गया है अब तो आ ही सकती थी. मेरा दिल बैठा जा रहा था कि तभी ज्वार की बली तेजी से हिली. मैं डर गयी थी . मेरी सांसे हल्क में अटक गयी थी. परछाई आगे बढ रही थी. रजनी थी. उसके हाथ में फोन भी था. हम दोनों ने सरोज को नम्बर मिलाया. लैण्डलाईन का नम्बर था. किसी ने फोन उठाया तो एक आदमी की आवाज सुनाई दी. मैने “हैलो” भी नहीं बोला था जान बुझकर. मैं सतर्क थी. दोबारा फ़िर से फोन मिलाया पर इस बार भी आदमी की ही आवाज आयी. समझ नहीं आ रहा था क्या करूं? पर बात करना भी बहुत जरूरी था. मैने हिम्मत करके “हैलो” बोल ही दिया. मेरी आवाज मुझे खुद ही अजनबी जैसी लग रही थी. आवाज में कंपन था शायद उसने भांप भी लिया होगा. ’कोई मेसेज हो तो दे दीजिए’, वह तो अभी यहां नहीं है.”. मैने फ़िर जोर देकर उससे कहा कि “उन्हीं से बात करनी है, कब हो पायेगी”. जवाब मिला -“आधे घण्टे बाद फोन कीजिए तब तक वह आ जायेगी.” फोन कट चुका था. अब इंतजार करने के अलावा और कोई चारा नहीं था.

रजनी का इतनी देर तक मेरे साथ ठहरना ठीक नहीं था. घरवालों को शक हो सकता था. घरवाले अपने रसूख के दम पर थाने भी जाकर आ चुके थे पर बिना कोई रिपोर्ट लिखवाये. ताऊ सरंपच था और उनकी इज्जत का सवाल था. थाने वाले सब समझ रहे थे. इसलिए बिना गांव वालों को भनक लगे सब खोजबीन जारी थी. पर उन्हे अभी तक कोई सुराग नहीं मिला था. इसलिए रजनी को मैंने वापिस घर भेज दिया. दोपहर ढलने को थी. रजनी मौका देख फ़िर आ गयी थी. मैने फोन मिलाया तो सरोज ने ही उठाया. सरोज एक सामाजिक कार्यकर्ता थी और स्त्रीवादी, जनवादी आन्दोलनों में काम कर रही थी. मैने एक सांस में पूरी बात उसे बता दी. पर ये नहीं बताया कि मैं कहां से बोल रही हूं. वह ध्यान से मेरी बात सुनती रही. पूरी बात सुनकर उसने सिर्फ़ इतना कहा कि “मैं देखती हूँ कि क्या हो सकता है.” मैने उससे केवल इतना कहा कि “वह मुझे फ़ोन न करे, मैं खुद करूंगी. मेरी जान को खतरा है. मुझे बचा लो.” रजनी घर जाकर फ़िर आ गयी थी.

शाम को  मैने फ़ोन किया तो सरोज ने मेरी बात विजय से करवायी. मैने उसे भी सब कुछ बता दिया. उसने मुझे हौसला दिया कि वे मुझे कुछ नहीं होने देंगे. मैं जहां छिपीहूं, वही रहूं. बाहर ना निकलूं. जब तक वे लोग मुझे खुद वहां से बाहर निकलने के लिए न कहे. मेरी बातों को सुनकर वे सब हैरान रह गये कि “मैं तीन दिन से अकेली खेत में छिपी हुई हूं.” पिछली रात को तो बारिश भी खूब हुई थी ऐसे में अकेली लड़की अपनी जान बचाने के लिए बारिश में पूरी रात बिता रही है. भूखी-प्यासी. उन्हे मेरी हालत सुनकर ही घबराहट होने लगी थी. फोन रख दिया गया.

विजय अपनी टीम के साथ थाने गये. थानेदार को पूरा केस पहले ही पता था. विजय को वह बहुत अच्छे से जानता था कि ये लोग अगर कोई केस हाथ में लेते हैं तो छोडते नहीं है. उनकी ईमानदारी का कायल वह थानेदार भी खुद था. एक तरह ताऊ जी -गांव का सरपंच और रस रसूख वाला दूसरी ओर विजय की टीम. विजय व्यक्तिगत और कानूनी दोनो तौर पर इसे सुलझाने में लगा था जिससे थानेदार भी सहमत था. थानेदार ताऊ से भी दबता था. एक तरफ ताऊ और दूसरी ओर विजय. ताऊ मेरे घर लौटने और अपनी इज्जत बचाकर मुझे सजा देने के लिए तैयार था तो दूसरी ओर विजय थानेदार के सामने अड़ा हुआ था कि मुझ पर कोई आंच न आये. थानेदार को अब बीच का रास्ता ही अपनाना था, उसने ताऊ और विजय की एक मीटिंग रखवा दी.
विजय ने पुलिस, सरपंच और परिवार वालों से मुझे खतरा बता कर सबको पार्टी बना लिया था. दूसरी ओर थानेदार को भी इसमे उसने पार्टी बनाया कि कहीं थानेदार दवाब में न आ जाये. उसने थानेदार के बड़े साहब को भी कार्यवाही करने के लिए तैयार कर लिया था. स्थितियां कुछ भी बन सकती थी इसलिए विजय कोई रिस्क नहीं लेना चाहता था. थानेदार अपनी नौकरी जाने के डर के कारण वही सब करने के लिए बाध्य हो गया था जो विजय चाहता था.

चौथा दिन निकल आया था. थाने में ही थानेदार और एस.एच.ओ. के सामने मीटिंग हुई. दोनों आमने- सामने थे. विजय ने कहा-“अगर लड़की को एक खरोंच भी आयी तो पूरा परिवार जेल की चक्की पीसेगा. थानेदार की भी नौकरी जायेगी, सब बंधे-बंधे फ़िरोंगे. गांव में बात फ़ैलने और पूरी बिरादरी में अपनी नाक कटने के डर से ताऊ राजी हो गया था. सारी शर्ते मान ली थी. मुझे कोई कुछ नहीं कहेगा और मैं वापिस घर आ जाऊं- बात फ़ैल ना जाये. विजय ने इस बारे में निश्चिंत रहने के लिए कहा तो ताऊ ने आखिर में पूछा ही लिया कि “मैं हूं कहां” ? विजय ने जवाब दिया कि “हमारे पास ही है और सुरक्षित है. आपको चिंता करने की आवश्यकता नहीं”. अप्लिकेशन पर सबके हस्ताक्षर करवा लिये गये थे. तय हुआ कि अब मुझे परिवार वालों को दे दिया जाना चाहिए. रजनी आ गयी थी और बहुत खुश थी. उसने विजय की सारी कही बातों को मुझे बता दिया था और साथ ही ये भी कहलवाया था कि मैं यहीं रहूं जब तक वह मुझे मेरा नाम लेकर न बुला ले.

पुलिस की जीप के साथ मेरा पूरा परिवार मुझे लेने के लिए आ रहा था. विजय और सरोज भी साथ थे. जैसे ही जीप रोड़ पर आयी तो विजय ने जीप को गांव की ओर चले जाने के लिए कहा. सब हैरान थे. जीप को गांव की ओर मेरे घर के पास मुड़ने वाली गली में रोक दिया गया. ताऊ ने गुस्से से भरकर विजय की ओर देखकर कहा- “क्यूं घर की ओर पंचायत को लेकर जा रहे हो, थोड़ी बहुत इज्जत बची हुई है, उसे भी नीलाम करके छोड़ोंगे”. विजय ने उसे धर्य रखने के लिए कहा और खुद मेरे घर की पीठ की ओर लगने वाली चाहरदिवारी की ओर खड़ा हो गया. सब उसी ओर मुंह फ़ाड़े देखने लगे थे. विजय ने तीन बार मेरा नाम पुकारा. मैं सांसे रोके अपना नाम सुन रही थी. इन चार दिनों में तो मैं अपना नाम तक भूल गयी थी. मैं उठी और लड़खड़ाती हुई आवाज की ओर बढ गयी. विजय ने लपककर मुझे सहारा दिया और बच्चे की तरह अपने सीने से लगा लिया, कहा-“मेरी फ़ूलन” सब अवाक रह गये.

तस्वीरें गूगल से साभार
स्त्रीकाल का संचालन ‘द मार्जिनलाइज्ड’ , ऐन इंस्टिट्यूट  फॉर  अल्टरनेटिव  रिसर्च  एंड  मीडिया  स्टडीज  के द्वारा होता  है .  इसके प्रकशन विभाग  द्वारा  प्रकाशित  किताबें  ऑनलाइन  खरीदें : 
अमेजन पर   सभी  किताबें  उपलब्ध हैं. फ्लिपकार्ट पर भी सारी किताबें उपलब्ध हैं.
संपर्क: राजीव सुमन: 9650164016,themarginalisedpublication@gmail.com

Related Articles

ISSN 2394-093X
418FansLike
783FollowersFollow
73,600SubscribersSubscribe

Latest Articles