उपभोगतावादी दौर में मनुष्य जिस मोड़ पर खड़ा है वहां बाजार ही बाजार हैं| कहने को तो बाजार का व्यापक विस्तार हो चुका हैं लेकिन वह व्यक्ति की जरूरतों को पूरा नहीं करता, वरन उसकी इच्छाओ को बढाने का काम करता हैं|
अपनी पारम्परिक परिभाषा के अनुसार – बाजारवाद प्रबंधन की एक प्रक्रिया है, जिसका उद्देश बाजार की पहचान कराना और उपभोक्ताकी जरूरतों को पूरा कर, उसे संतुष्टि प्रदान करता है| लेकिन समकालीन दौर में बाजार ने अपनी यह परिभाषा बदल ली है| अब वह अवसर पहचानने की जगह अवसर बनाता है, सही बाजार की पहचान करने की जगह, नए बाजार बनाता है| अतः यह कहा जा सकता हैं कि वह लोगों की मनोवृति बनाता है|
उदारवाद में व्यक्ति को उच्चत्तम स्थान दिया गया हैं| नव-उदारवाद की शुरुआत 1960 के दशक से मानी जाती हैं| नव-उदारवाद ने मुक्त-व्यापार,खुला बाज़ार और पश्चिमी लोकतान्त्रिक मूल्य और संस्थाओं को प्रोत्साहित किया| नव-उदारवाद ने अंतरराष्ट्रीय सीमाओं को बौना साबित कर बाजारवाद को एक विस्तृत रूप दिया| वैश्वीकरण एक तरह का समुंद्र मंथन है| और इसने वसुधैव कुटुम्बकम को चरितार्थ किया|
तकनीकी,आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों ने वैश्वीकरण को उच्चतम स्तर पर पहुँचाया और यह माना जाता है कि वैश्वीकरण मनुष्यों के उद्देश्यों और अवसरों को निर्धारित कर रहा है साथ ही प्रभावित भी| कोई भी अवसर एक स्थान पर न होकर वैश्विक स्तर पर है| भौतिकवाद ने वैश्वीकरण को शक्ति प्रदान की है| काम्प्लेक्स परस्पर निर्भरता को 1970 में रॉबर्ट कोहेन और जोसेफ नाई ने एक नई परिभाषा दी जिसने आधुनिकतावाद को उच्च स्तर पर बढाया और परस्पर निर्भरता के क्षेत्र में तब्दील किया |
कबीर ने इस दुनिया को एक हाट कहा था –‘पूरा किया बिसाहुणा, बहुरि न आवौं हट्ट’, आज कबीर की वाणी सौ प्रतिशत सच लग रही है, जब हम समाज और संबंधो को बाजार में तब्दील होते देख रहे है|
पहले बाजारवाद को लेकर जो धारणा विद्यमान थी वह प्रायः मूक खरीदार के रूप में थी, परन्तु अब स्थिति बदल गई है| अब उपभोक्ता मात्र मूक खरीदार न हो कर एक सक्रिय व जागरूक उपभोक्ता के रूप में अपनी भूमिका निभा रहा है|शीतयुद्ध के समय में यह वह अवधि थी जब उपभोक्तावाद विश्वभर में उभर रहा था| पश्चिम में यह आन्दोलन 1950-60 में उभरा| किन्तु भारत में उदारीकरण का दौर 1990 के बाद शुरू होता है| इन्टरनेट ने उपभोक्तावाद और बाजारवाद को एक नया मंच प्रदान किया| साथ ही सोशल मीडिया साइटों ने इसे एक नए दौर में पहुंचा दिया | आम उपभोक्ता को जब उपभोक्तवाद ने ललचाना व लुभाना शुरू किया तब आम लोगों की जेब पर इसका भारी असर हुआ |
1950 के पश्चात् पैसों की तंगी के काल में महिलाओं के सामने जब घर चलाने की ज़िम्मेदारी आई कि वह इस संकट का सामना कैसे करें| तब पैसों की तंगी ने इस वर्ग को नज़दीक लाने का काम किया| वे बाजारों में शोपिंग सेण्टर और मॉल में खरीदारी के लिए जाती थी| इस निकटता के कारण घरेलू महिलाओं को समाजीकरण का अवकाश मिला साथ ही सोचने समझने का अवकाश भी| इस मौके का परिणाम यह हुआ कि ये महिलाएं मात्र गृहणियां न हो कर एक सक्रिय उपभोक्ता स्त्री के रूप में सामने आयी | तथा डू इट योर सेल्फ (D.I.Y.) आन्दोलन खड़ा किया| दरअसल D.I.Y. मूलतः ऐसा आन्दोलन था जिसने घरेलू महिलाओं को होम इम्प्रूवमेंट के लिए अपने हाथ से काम करने को उकसाया ताकि कम पैसों में काम चलाया जा सके|
धीरे-धीरे बाजार के दौर ने स्त्री को पूरी तरह से अपने शिकंजे में कस लिया है| आज नारियाँ नारीत्व बोध को भुलाकर अपनी स्वतंत्र अस्मिता व पहचान को दांवपर लगा रही है| नारी सौंदर्य आज एक बिकाऊ माल बन चुका है| मुनाफा कमाने वाली कम्पनियाँ नारी सौंदर्य को बेचने के लिए नए-नए तरीके इजाद कर रही है| बाजार स्त्री को सुंदर और आकर्षक बनाने की जरुरत समझकर अपने माल को खपाने का रास्ता तलाश रहा है| ब्यूटी मिथ सबसे पहले स्त्री को एक वस्तु में परिवर्तित कर उसे चेतनाशून्य बना रहा है| स्त्री को हीन बनाकर, उसे उसी रूप में देखना चाहता है, जो उसके मन को भाता है| बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपना बाजार स्थापित करने के लिए स्त्री का शोषण कर रही हैं| रेखा कस्तवार के अनुसार “बाजार स्त्री की प्रतिभा पर सौंदर्य को वरीयता प्रदान करता है| उसे मानवीय अधिकार और सम्मान से युक्त व्यक्ति के स्थान पर आकर्षक वस्तु मान लिया जाता है”(स्त्री चिंतन की चुनौतियाँ,:132 )|
आज भले ही स्त्री अपने अधिकार के प्रति जागरूक है परन्तु बाजार उसे वस्तु से अधिक कुछ नहीं समझता है| समकालीन दौर में बाजार उसे आर्थिक समृद्धि का सुंदर सपना दिखाकर देह के रूप में ही प्रस्तुत कर रहा है|
बाजार ने स्त्री को सुन्दरता का प्रलोभन दे कर उसे वस्तु में तब्दील कर दिया है| बाजार के प्रसार के साथ स्त्री की स्थिति में गिरावट आई है वह दिन प्रतिदिन देह में रिडुय्स होती जा रही है|
दूसरी ओर जिस कुंठित मानसिकता को लेकर के पहले समाज ने स्त्री की भूमिका को सीमित कर रखा था| यही मानसिकता उदारवाद, निजीकरण, वैश्वीकरण (एलपीजी) के साथ धीरे –धीरे बदलती चली गयी कि स्त्रियाँ बाजार में अपनी भूमिका को स्थापित कर रही हैं| अब वे मात्र कठपुतली न रह कर एक सक्रिय नागरिक के रूप में उभर रही हैं और अपना वर्चस्व कायम कर रही हैं|
हालांकि बाजार में जगह बनाने के लिए, स्त्री के लिए यह जानना बहुत जरुरी है कि देह पर अधिकार और मस्तिष्क पर अपने नियंत्रण के बिना वह बाजार के नियमों को अपने अनुकूल नहीं ढाल सकती |
सन्दर्भ सूची:
1. किरण मिश्रा, नारी और सौन्दयबोध, नव भारत टाइम्स, मार्च 4, 2015|
2. भरतचन्द्र नायक, आर्थिक उदारीकरण और बाजारवाद की आंधी में उपभोक्ता हशिये पर , समाचार समीक्षा, 2016
3. मनोज कुमार, नए रास्ते की तलाश में, उगता भारत, 2016|
4. साधना शर्मा , वैश्वीकरण, बाजारवाद और हिंदी भाषा, सहचर, 2017|
5. सुभाष चन्द्र, देख कबीरा , बाजारवाद कि आंधी में नारी की टूटती वर्जनाये, 2009|
लेखक परिचय:
पूनम प्रसाद : पीएचडी, हिंदी विभाग, जवाहरलाल नेहरु विश्वविधालय, नई दिल्ली
सविता: पीएचडी, अफ्रीकन स्टडीज, स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज, जवाहरलाल नेहरु विश्वविधालय, नई दिल्ली
पूनम कुमारी, पीएचडी, हिंदी विभाग, जवाहरलाल नेहरु विश्वविधालय, नई दिल्ली