थियेटर ऑफ रेलेवेंस – स्वराजशाला

राजेश कासनियां 


थियेटर ऑफ रेलेवेंस के बारे में एक शोधार्थी, एक अभिनेता का अनुभव, जिसने इसकी एक कार्यशाला में भाग लिया :

मैंने 1 से 5 जुलाई , 2018 तक अम्बाला में  ‘थियेटर ऑफ रेलेवेंस’ स्वराजशाला की कार्यशाला में प्रतिभागिता की । इससे 2 वर्ष पूर्व भी मैं इस कार्यशाला में भाग ले चुका था । मैंने जब शैड्यूल देखा तो पहला सत्र हर सुबह 6:30 बजे चैतन्याभास से शुरु था । इस सत्र का संचालन  ‘थियेटर ऑफ रेलेवेंस’ के संस्थापक मंजुल भारद्वाज व उनकी टीम के सदस्य –अश्विनी , सायली , कोमल , योगिनी व तुषार कर रहे थे । मैं अपने पिछले अनुभव से वाकिफ़ था कि मंजुल सर समय के बड़े पाबंद हैं । इसलिए मैं समय का ख़ास ख़याल रखता था । क्योंकि सर हमेशा एक बात कहते हैं – यदि आपने काल (समय) पर विजय पा ली तो आप हर क्षेत्र में विजय प्राप्त कर सकते हैं ।

मंजूल भारद्वाज प्रशिक्षण देते हुए

सर का नारा है – हम…..हैं । जो हम में एकता व अपने वज़ूद का अहसास करवाता ,  वहीं हमें जोश से भर देता । सुबह की मुलाकात इसी नारे के साथ होती । वैसे बीच-बीच में ये नारा पूरे दिन सुनने को मिलता । चैतन्याभ्यास में आलाप(आवाज़ निकालाना)  करवाया जाता । इसका आशय है कि हमें अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी के प्रति जागरुक रहना वहीं शोषण व अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करनी है । चैतन्याभ्यास में अनेक तरह की गतिविधियां करवाई जाती , जैसे – विभिन्न आकृतियां बनाना , क्षेत्रीय खेल व नृत्य करना , बचपन का खेल , प्रकृति से बात करना , चिंतन-मनन के माध्यम खुद को जानना आदि ।

इस कार्यशाला के माध्यम से मेरी दृष्टि दो आयामों के प्रति आकृष्ट हुई वों हैं – सांस्कृतिक व राजनैतिक चेतना ।सांस्कृतिक चेतना :-  ‘थियेटर ऑफ रेलेवेंस’ के जनक मंजुल भारद्वाज जी का कथन है कि इतिहास साक्षी है कि व्यवस्था को सांस्कृतिक चेतना के द्वारा बनाया और टिकाया गया है तो क्यों न आज सांस्कृतिक चेतना के द्वारा ही व्यवस्था को बनाया और टिकाया जाए ।  ‘थियेटर ऑफ रेलेवेंस’ इसी विचार के साथ काम करता है । आज जो संस्कृति है वो सामंती मूल्यों को पोषित करती है जो मनुवाद द्वारा संचालित है । यह शोषण पर आधारित है जो समाज को विघटन की ओर ले जाती है ।इस संस्कृति को समता , स्वतंत्रता और बंधुता के मूल्यों से संचालित किया जाए इसी उद्देश्य को समर्पित है –   ‘थियेटर ऑफ रेलेवेंस’ ।

थियेटर ऑफ रेलेवेंस

कार्यशाला में ‘मैं औरत हूं’ नाटक (जो मंजुल भारद्वाज द्वारा निर्देशित व अश्विनी , सायली , कोमल , योगिनी व तुषार द्वारा अभिनीत) की प्रस्तुति की गई । इसमें औरत के विविध आयामों को दिखाया गया । औरत कैसे पितृसत्ता के द्वारा गुलाम बनाई गई , किस-किस रूप में औरत का शोषण होता है । नाटक में दिखाया गया कि जिन औरतों ने अपने स्व को पहचान लिया वो सभी इस कुचक्र को भेदने में कामयाब भी हुई हैं । मंजुल भारद्वाज जी ने नारी विमर्श के चालू मुहावरों से हटकर एक अलग दृष्टि प्रदान की । उन्होंने बताया कि नारी शोषण की मूल जड़ – सम्पति , पितृसत्ता और पितृसत्ता द्वारा संचालित मूल्य और संस्कृति है । जब तक इन पर चोट नहीं की जायेगी तब नारी को शोषण से बचा पाना मुश्किल है।

राजनैतिक चेतना :- कार्यशाला का मुख्य उद्देश्य प्रतिभागियों में राजनैतिक चेतना का विकास करना था। विभिन्न विचारधाराओं के सत्र का संचालन अजीत झा जी ने किया । उन्होंने मार्क्सवाद , अंबेडकरवाद , गांधीवाद ,लोहियावाद आदि विचारधाराओं से अवगत करवाया । ‘थियेटर ऑफ रेलेवेंस’ की टीम ने राजनीति पर केन्द्रित 2 नाटकों की प्रस्तुति की – राजनीति- भाग 1 और राजनीति-भाग 2 । नाटकों का निर्देशन किया मंजुल भारद्वाज ने व अभिनय किया – अश्विनी , सायली , कोमल , योगिनी व तुषार ने ।

कला जो काम कर सकती है वो व्याख्यान नहीं कर सकता । अजीत झा सर की बात को गहराई से समझाने का काम इन नाटकों ने किया । नाटक सामंतवाद से शुरु हो कर पूंजीवाद , समाजवादी व्यवस्था से लोकतंत्र की राह के माध्यम से स्वराज तक पहुंचा । प्रत्येक व्यवस्था के शोषण – दमन व खामियों को प्रतिभागियों के सामने जीवंत कर दिया । ये कला की ताकत – अश्विनी , सायली , कोमल , योगिनी व तुषार के कमाल के अभिनय व मंजुल भारद्वाज सर के सशक्त निर्देशन से ही संभव हो पाया ।

थियेटर ऑफ रेलेवेंस

नाटक की प्रस्तुति के बाद मंजुल भारद्वाज जी ने मंडल , कमंडल और भूमंडल(उनका कथन) व WTO की नीतियों का खेल स्पष्ट किया । सोवियत संघ के विघटन के बाद उदारीकरण , वैश्वीकरण और निजीकरण की नीतियों ने पूरे विश्व को प्रभावित किया । भारत में खेती-किसानी पर संकट , मंडल कमीशन के बाद बाबरी मस्जिद का विध्वंश इन सब नीतियों का ही दुष्परिणाम है । सामाजिक न्याय के प्रश्न पर राजीव गोदारा और सुरेन्द्र पाल सिंह ने व्यापक सन्दर्भों के साथ सहभागियों की भ्रांतियों को दूर किया ।

मंजुल भारद्वाज जी के अनुसार वर्तमान सत्ता आत्महीनता से ग्रस्त है जिसे हर पल अपने ढहने का खतरा रहता है । आत्महीनता से ग्रस्त व्यक्ति या सत्ता हिंसा का सहारा लेती है और वह देश व समाज के लिए विध्वंशक व विनाशकारी होती है । इस सत्ता को आत्मबल से ही उखाड़ा जा सकता है । क्योंकि आत्मबल से विचार पैदा होता है और विचार सृजनशील होता है । मंजुल सर इस सत्ता का विकल्प स्वराज के विचार में देखते हैं ।

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