‘यौन हिंसा के सन्दर्भ में लज्जित करने की रणनीति’ (यशपाल के झूठा-सच में)

पल्लवी 


‘भीड़ के बीचों बीच नीलाम करने वाला एक जवान लड़की को चुटिया से खींचकर खड़ा किये था. लड़की के शरीर पर कोई कपड़ा ना था. माल गाहकों को अच्छी तरह दिखा देने के लिए उसने लड़की की कमर के पीछे अपने घुटनों से ठेस देकर, उसके सब अंगों को सामने उभार दिया था. लड़की के आंसुओं से भीगे, पलकें मूंदें चेहरे पर से उसके हाथ को भी खींचकर हटा दिया था. लड़की के सूर्य के किरणों से अछूते शरीर के भाग छिले हुए संतरे की तरह, चहरे की अपेक्षा बहुत गोरे और कोमल थे. भीड़ के बीच धरती पर कुछ और भी लड़कियां चेहरे बांहों में छुपाये, घुटनों पर सिर दबाये बैठी थीं. उनके कपड़े भी धरती पर पड़े थे . …’ 
वीभत्स विनोद के कहकहों में एक आदमी का क्रुद्ध स्वर सुनाई दिया – “यह क्या कर रहे हो तुम? कुछ शर्म करो. ! …” (झूठा-सच I, प. 377) (1)





उपरोक्त पंक्तियाँ यशपाल (1903-1976) की कालजयी रचना झूठा-सच  से ली गयी है, जो १९४७ के विभाजन पर हिंदी भाषा में लिखा गया उपन्यास है. झूठा-सच के पहले भाग का प्रकाशन १९५८ में ‘वतन और देश’ शीर्षक के साथ हुआ और दूसरे भाग का प्रकाशन ‘देश का भविष्य’ शीर्षक के साथ १९६० में हुआ. इस लेख में विभाजन के दौरान औरतों पर की गयी यौन हिंसा को झूठा-सच के दोनों भागों में भाव ‘लज्जा’ के दृश्टिकोण से विश्लेषण करने का एक प्रयास है. लज्जा का वर्णन भरत मुनि के नाट्य शास्त्र में किया गया है, जहाँ प्रमुख आठ भावों में लज्जा भी एक भाव है. भाव [emotion] के अध्ययन के सन्दर्भ में लज्जा [Shame] पर अंतर्विषयक परिपेक्ष्य में काफी कुछ लिखा गया है. यह लेख झूठा-सच की साहित्यिक कल्पना में स्त्रियों के खिलाफ यौन हिंसा के सन्दर्भ में ‘लज्जा’ को समझने का प्रयास है. जब भी स्त्रियों के विरुद्ध यौन हिंसा की बात की जाती है तो ‘लज्जा’ को एक प्रभावशाली भाव के रूप में देखा जाता है. हिंदी में अंग्रेजी शब्द ‘Shame’ के समानार्थी शब्द हैं: लज्जा, लाज़, शर्म, हया, संकोच। मोनियर विलियम संस्कृत-अंग्रेजी के शब्दकोष में ‘लज्जा’ शब्द की व्याख्या करते हुए लिखते हैं: “shame personified as the wife of ‘dharma’ and mother of ‘vinaya’”(2). इस व्याख्या के अनुसार लज्जा भारतीय सन्दर्भ में स्त्री के अस्तित्व से जुड़ा एक अहम् भाव माना गया है और इसे उनकी मर्यादा और दायरा भी समझा गया है. हालाँकि लज्जा अथवा शर्म समानार्थी शब्द हैं, इस लेख में यौन हिंसा के सन्दर्भ में लज्जा शब्द का प्रयोग किया गया है, क्यूंकि विलियम ‘लज्जा’ शब्द की व्याख्या करते हुए इसे भारतीय सन्दर्भ में स्त्रियों के सामाजिक सांस्कृतिक अस्तित्व से जुड़ा भाव बतलाते हैं. प्रस्तुत लेख में कुछ मूल सवालों को केंद्र में रखकर झूठा-सच की व्याख्या की गयी है. ये सवाल हैं: ‘लज्जा’ क्या है? यौन हिंसा के सन्दर्भ में ‘लज्जा’ जैसे जटिल भाव को कैसे समझा जा सकता है ? एक तरफ पीड़ित या उत्तरजीवी के ‘लज्जा’ जैसे भाव और दूसरी तरफ उन्हें लज्जित करने की सामाजिक सांस्कृतिक रणनीति; इन दो आयामों को साहित्यिक अभिव्यक्ति के माध्यम से विभाजन के सन्दर्भ में समझने की कोशिश इस लेख में की गयी है.

दक्षिण एशिया के सांस्कृतिक संदर्भ में ‘लज्जा’ को स्त्रियों के शरीर से जोड़ कर देखा जाता है. शर्म, हया, लज्जा जैसे शब्द एक स्त्री के जेवर होते हैं और उन्हें इस जेवर को पहनने की तालीम बचपन से ही दी जाती है. पितृसत्ता में स्त्रियों को उनके अपने ही शरीर से छुपना सिखाया जाता है. उनको अपमानित करने के लिए उनके इस शर्म को उघाड़कर रख देने की एक परंपरा सी रही है, जैसे कि महाभारत में पांडवों को अपमानित करने के लिए द्रौपदी के शरीर से वस्त्र का छीना जाना (3). स्त्रियों को लज्जाशील होना सिखाया जाता है और यह सामाजिक सांस्कृतिक रूप से सीखा हुआ भाव है जो उनके आचरण में परिलक्षित होता है. यही कारण है कि भारतीय सांस्कृतिक सन्दर्भ में स्त्रियों के नाम लाजो, लाजवंती आदि होते है. फ़्रांसिसी बुद्धजीवि सार्त्रे (1943) ‘लज्जा’ की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि ‘लज्जा’ देखने वालों की नज़रों में होती है और इन नज़रों के द्वारा ‘लज्जा’ महसूस होता है.  सार्त्र की इस व्याख्या को झूठा-सच से ली गयी उपरांकित पंक्तिओं की विवेचना से समझा जा सकता है. यहाँ इन जवान लड़कियों को नंगा कर बाज़ार में खरीद फरोख्त के लिए वस्तुओं की तरह रखा गया है. यह दृश्य स्त्रियों के प्रति सामूहिक हिंसा को दिखाता है. इन युवा महिलाओं को, जो कि ‘दुश्मनों की बिरादरी’ से आती हैं, भीड़ के सामने लज्जित किया जा रहा है और महिलाओं को सार्वजनिक जगहों पर इस तरह से दंडित करना ऐतिहासिक सांस्कृतिक अभ्यास का हिस्सा है। ‘लज्जा’ कई अन्य शब्दों जैसे छुपना, छुपाना या ढ़कना जैसे शब्दों से जुड़ा हुआ है और इस प्रकार यह प्रदर्शन (exposure), भेद्यता (vulnerability) और घाव (wounding) (4) जैसी संकल्पनाओं से जुड़ा हुआ है। सार्त्र के अनुसार “हम खुद से और खुद के अस्तित्व से तब अवगत होते हैं, जब हम लज्जित होते हैं.“(5) सारा अहमद लिखती हैं “किसी व्यक्ति के खुद से अलगाव होने की प्रक्रिया तब और गहरी हो जाती है, जब नज़रों से नज़र मिलती है और जब वह खुद को दूसरों के सामने पाता है. खुद का दूसरों की नज़रों में प्रदर्शन ही चोट पहुंचाता है.” (6)  झूठा-सच से ली गयी उपरांकित पंक्तियों में कथाकार वर्णन करते हैं कि ‘लज्जा’ इन महिलाओं के शारीरिक हाव-भाव में परिलक्षित होता है, क्योंकि उनके शरीर का प्रदर्शन भीड़ की अनगिनत नज़रों के सामने किया गया है. इन मानवों की लज्जा ये है कि उनके शरीर को एक भीड़ के सामने परोसा जा रहा है और उनकी मर्यादा को तोड़ा गया है. इस प्रकार, स्त्रियों के प्रति यौन हिंसा के सन्दर्भ में लज्जा एक अंतर्वैयक्तिक भाव है जो खुद व्यक्ति में नहीं, बल्कि देखने वालों की आँखों में है.

देखने वालों की नजरें स्त्री होने के नाते उनको सिखाये गए और खुद स्त्रियों द्वारा समावेशित किये गए ‘लज्जा’ के भाव पर चोट करती है, अर्थात उन्हें लज्जित करती है. भाषाई अभिव्यक्ति जैसे कि ‘पलकें मूंदें’ अथवा ‘घुटनों पर सिर दबाये बैठी’ उनकी ‘लज्जा’ को भाषा के स्तर पर बयां करती है, जहाँ ये स्त्रियां अपने चेहरे को ढंकने की कोशिश कर रही हैं। डर और गुस्सा जैसे अन्य भावों की तरह ‘लज्जा’ एक ऐसा भाव है जिसकी शारीरिक अभिव्यक्ति होती है. ‘लज्जा’ की शारीरिक अभिव्यक्ति मूलतः ऐसे होती है: “नीची नज़रें, नज़रें चुराना, चेहरा या सिर का नीचे की तरफ होना, एकाएक गिरना अथवा शरीर का जकड़ जाना, होंठ काटना, झेंपना, चेहरे को छुपाना (जैसे कि हाथ से) और शरीर को छुपाने की कोशिश इत्यादि.“(7) सिल्वान टॉमकिन्स के अनुसार लज्जा सबसे ज्यादा चेहरे पर अभीलक्षित होता है, जब कोई अपना सिर झुका लेता है, आँखें नीची कर लेता है और अपनी नज़रें छुपा लेता है तो वह अपनी लज्जा बयां कर देता है और इसप्रकार उसका चेहरा और अंतर्मन दूसरों के सामने और खुद की नज़रों में प्रकट होता है. झूठा सच के इस दृश्य में यह स्पष्ट है कि पुरुषों की यह ‘भीड़’ और ‘नीलाम करने वाला’ इन महिलाओं को ‘दुश्मन की महिला’ होने के लिए दंडित कर रहे हैं, अर्थात उन्हें लज्जित कर रहे हैं. इनकी लज्जा उनके चेहरे से अभीलक्षित होती है. यातना के कई ऐतिहासिक तरीकों में से एक का प्रयोग यहाँ किया गया है – इन स्त्रियों को बालों से खींचकर बलपूर्वक उसके शरीर को नग्न उजागर किया जा रहा है।

यह दृश्य हमें महाकाव्य ‘महाभारत’ के दृश्य की याद दिलाता है, जहां द्रौपदी को बालों से खींचकर सभा में सबके सामने लाया गया था. यौन उत्पीड़न के इस तरीके पीड़ितों के लिंग के अनुसार होते हैं और स्त्रियों को बालों से खींचना उत्पीड़न के तरीकों की एक पुरानी संस्कृति की तरफ भी इशारा करते हैं। एक व्यक्ति को नग्न कर उसे लज्जित करना उस व्यक्ति की लज्जा के भाव पर हमला है। इस परिस्थिति में लज्जा नहीं, बल्कि भीड़ की हंसी घातक है. इस दृश्य में भीड़ की हंसी का प्रयोजन है – इन मानवों की मानवीय गरिमा और आत्मसम्मान को छीनना। यह भीड़ इनको लज्जित कर इनपर हंस रही है. कथाकार यहाँ ‘विनोद के कहकहों’ से पहले एक विशेषण ‘वीभत्स’ का प्रयोग करते हैं। ये कहकहे ‘वीभत्स’ है, क्यूंकि इनका एक विशिष्ट लक्ष्य है- पीड़ित की गरिमा और आत्मा को लूटना. जूलिया क्रिस्टेवा इस हंसी को ‘abject’ कहती हैं और ‘abject’ होता है: “घृणा जो हँसती है, विश्वासघाती, एक साफ़ अंतरात्मा का अपराधी, बलात्कारी जो बेशर्म होता है, मारने वाला जो खुद को बचाने वाला कहता हो. . .“(9). यह भीड़ बेशर्म है इसलिए ‘abject’ है, और इस भीड़ की घृणा हंस रही है, इसलिए यह ‘abject’ है. “कुछ शर्म करो!” – जैसे संवाद भीड़ को लज्जित करने के उद्देश्य से कहा गया है, लेकिन स्त्रियों को लज्जित, अपमानित कर उन्हें दण्डित करने की एक पुरानी संस्कृति के मुकाबले यह छोटा सा संवाद तिनके के सामान प्रतीत होता है.

झूठा-सच की नायिका तारा इस तिनके समान प्रतिरोध की महत्ता को समझ पाती है, और लज्जित करने की सामाजिक सांस्कृतिक राजनीति के प्रतिरोध में अपने अनुकूल मानवीय परिस्थितियां गढ़ लेती है. जर्मन इतिहासकार उटे फ्रेवर्ट (2017) लिखती हैं कि यौन हिंसा की पीड़ित अथवा उत्तरजीवी वास्तव में लज्जा से पीड़ित होती हैं और इसे वो ‘Beschämungsopfer’ (10) [लज्जा से पीड़ित] कहती हैं. फ्रेवर्ट के अनुसार पीड़ित की पहचान को यौन हिंसा फिक्स अथवा निर्धारित नहीं करती हैं, बल्कि उसे निर्धारित करती है लज्जित करने की प्रक्रिया। पीड़ित अथवा उत्तरजीवी को लज्जित करने की प्रक्रिया को सामाजिक और सांस्कृतिक नियमों द्वारा अंजाम दिया जाता है.(11) लज्जित करने की रणनीति के खिलाफ, यौन हिंसा के पीड़ित के तौर पर तारा की रणनीति है: गुमनामी. गुमनामी उसे उत्तरजीवी होने का बल देता है. तारा लज्जा की भावना के एक जटिल आयाम को दर्शाती है जहां वह खुद की नजरों में बलात्कार होने की वजह से लज्जित होने से दूर रहती है और जीवित रहने के लिए गुमनामी का विकल्प चुनती है अथवा वह लज्जित करने की रणनीति के खिलाफ फैसले लेती है. इस प्रकार तारा उस सजा अथवा दंड को खारिज कर देती है, जो यौन हिंसा की पीड़ित अथवा उत्तरजीवी स्त्रियों को समाज और संस्कृति द्वारा दिया जाता है.

लज्जित करने की रणनीति  के खिलाफ तारा का प्रतिरोध
झूठा-सच उपन्यास की प्रमुख नायिका तारा है. उपन्यास तारा के जीवन को विभाजन से पहले  और बाद में दर्शाता है. वह विभाजन से पहले लाहौर में अपने परिवार के साथ रहती है। अपने घर में तारा लिंग भेदभाव की  शिकार है और उसे अपने पिता की इच्छा पर अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ती है और अपनी मर्जी के खिलाफ अपने पिता द्वारा पसंद किये गए लड़के से शादी भी करनी पड़ती है। अपनी शादी की पहली रात को तारा को अपने पति सोमराज का सामना करना पड़ता है, जो तारा को इस बात पर क्रूरता से पीटता है क्योंकि उसने सोमराज से शादी करने से इनकार कर दिया था। उसी रात उनके मुहल्ला पर दंगाइयों का हमला होता है और दंगाई सोमराज के घर को आग लगा देते हैं। तारा उस आग से बच कर निकल जाती है और हर कोई सोचता है कि वह आग में जलकर मर चुकी है। तारा को उसी रात गली का गुंडा नब्बू अगवा कर लेता है और तारा उसकी हिंसा का शिकार बनती है. बाद में वह शरणार्थी शिविर तक पहुँचती है जहां से उसे भारत भेजा जाता है। भारत पहुंचने के बाद गुमनामी को चुनकर तारा एक सफल जीवन जीती है । वह नहीं चाहती कि उसका अस्तित्व दूसरों की आंखों में शर्मनाक अस्तित्व हो, इसलिए वह उपन्यास में अपनी यौन हिंसा के बारे में चुप है।

तारा का चरित्र निरंतर अपने अभिमान के लिए संघर्ष करता है, और उसका चरित्र स्त्रीयोचित लज्जाशीलता और सुकुमारपन से परे होता है. पहला संघर्ष वह सोमराज के द्वारा खुद पर किये गए घरेलू हिंसा के खिलाफ करती है और सुकुमारपन से परे सोमराज का शारीरिक मुकाबला करती है. सोमराज अपनी नवविवाहित पत्नी को बलात्कार की धमकी देता है क्यूंकि उसका पुरुष-अहंकार [Male-Ego] इस बात से भी आहत है कि तारा पढ़ी लिखी है और उसने सोमराज को ना कह दिया था. कथाकार इस दिश्य को यूँ लिखते है:“तारा के ऑजली से ढंके चेहरे पर दायें और बाएं से दो जबरदस्त थप्पड़ पड़ गए. तारा ने चेहरे पर से हाथ हटाकर चमकते हुए आंसुओं से भरी लाल आँखों से सोमराज की ओर घूमकर धमकाया – “खबरदार हाथ उठाया तो.” […] उसने तारा को चोटी से पकड़ कर पलंग से नीचे गिरा दिया. दो लातें मारकर दांत पीसतेहुए वह गाली दी जो तारा ने कभी किसी भद्र पुरुष के मुख से नहीं सुनी थी – “… भूखे मास्टर की औलाद, तेरी हिम्मत कि मुझसे शादी के लिए मिज़ाज दिखाए ? … बी. ए. पढने का बहुत घमंड है ! तेरी जैसी बीसियों को टांगों के बीच से निकाल दिया है. देखूंगा तुझे ! गली-गली कुत्तों और गधों से न रोंदवा दिया …” (झूठा-सच I, प. 308) भाषा के स्तर पर ‘तेरी जैसा बीसियों को टांगों के बीच से निकाल दिया है’ बलात्कार की धमकी [rape threat] है. पितृसत्तात्मक समाज में पले बढे सोमराज के लिए तारा पर हाथ उठाना कोई बड़ी बात नहीं थी और वह जानता है कि एक पुरुष और तारा का पति होने के नाते पितृसत्ता उसे इसकी इजाजत भी देता है। इस दृश्य में तारा आत्म-सम्मान अथवा अभिमान (13) के लिए संघर्ष करती है: “तारा ने आत्मा-रक्षा और आत्म-सम्मान की रक्षा के लिए हाथ-पाँव से यथाशक्ति काम लिया. केवल चिल्ला न सकी. सोमराज अच्छे कद का स्वस्थ जवान था. अपना पूरा शारीरिक बल लगा देने पर भी वह तारा को पूर्ण रूप से कुचल कर अपमान स्वीकार करा लेने का संतोष ना पा सका. तारा का उसके सम्मुख पूर्ण आत्म-समर्पण न कर देना हीं उसका घोर अपमान था.” (झूठा-सच I, प. 308). टिफ़नी वॉट स्मिथ के मुताबिक अभिमान की भावना को वेदों में पहली बार समझाया गया है। स्मिथ अभिमान की भावना को किसी व्यक्ति के दर्द या क्रोध के रूप में व्याख्या करती है- जब उस व्यक्ति को किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा घायल किया जाता है जिससे उसने अपेक्षा नहीं की है तो उस व्यक्ति का अभिमान आहत होता है।  स्मिथ लिखती है: “अभिमान तब सबसे ज्यादा आहत होता है जब पति-पत्नी जैसे सामाजिक रिश्तों [social contracts] में विश्वासघात होता है, ऐसे रिश्ते जो प्रेम और सम्मान पर आधारिक होते हैं.“(14) तारा अपने आहत अभिमान के लिए संघर्ष करती है और विश्वासघात के प्रतिरोध में “खबरदार” कहती है.

दूसरी बार तारा अत्याचार करने वाले की नृशंसता [cold bloodedness] के खिलाफ संघर्ष करती है. नब्बू तारा का अपहरण कर लेता है। वह तारा को अपने घर ले आता है और उसे फर्श पर लगभग फेंक देता है। फिर वह बाहर जाता है और धीरे-धीरे सिगरेट के कश लगाता है. फिर पानी पीता है, इत्मीनान से एक और सिगरेट सुलगाता है और अंदर आकर तारा का बलात्कार करता है। इस तरह की नृशंसता मंटो की कहानियों जैसे ‘खोल दो’ और ‘ठंडा गोश्त’ में देखी जा सकती है. कथाकार इस दृश्य का वर्णन करते हुए लिखते हैं: “मर्द खाट पर बैठ गया. उसने एक सिगरेट सुलगा ली और लम्बे-लम्बे कश खींचने लगा … मर्द सिगरेट समाप्त करके खाट से उठा. उसने आंगन में रखे घड़े से लेकर पानी पिया. एक और सिगरेट सुलगा ली और खाट पर लेटकर धुआं छोड़ने लगा. आधे जले सिगरेट को नीचे ईंटों की फर्श पर रगड़ कर बुझा दिया और तारा की ओर करवट लेकर पुकारा – “यहाँ आ, चारपाई पर!“ (झूठा-सच I, प. 311). कथाकार इस दृश्य में नब्बू नाम के बजाय ‘मर्द’ शब्द का प्रयोग करता है। इस दृश्य में मर्द के क्रियाकलाप हैं; ‘बैठना’, ‘लम्बे-लम्बे कश खींचना’, खाट पर लेटकर धुआं छोड़ने’ इत्यादि। इन क्रियाकलापों को नृशंसता और ‘abject’ की श्रेणी में रखा जा सकता है. तारा की स्थिति को इस दृश्य में यूँ अभिव्यक्त किया गया है: ‘तारा की टांगें कांप रही थी‘, ‘धरती पर बैठ गयी’, ‘सर घुटने पर रखकर बांहों में लपेट लिया’, ‘मस्तिष्क सोचने योग्य भी नहीं रहा’ इत्यादि. इन शब्दों के माध्यम से तारा के डर, सदमा और सुन्न हो जाने को अभिव्यक्त किया गया है. कथाकार आगे लिखते हैं: “तारा ने अपनी बांह छुड़ाने के लिए क्रोध में पुकारा – “तेरा बेड़ा गर्क. तेरे बदन में कीड़े पड़े. खबरदार, हाथ लगाया तो ! तू मेरा गला काट दे, मुझे मार डाल !” मर्द ने गुर्रा कर तारा की एक बांह कोहनी से पकड़ लिया. दूसरी बांह उसके घुटनों के नीचे डाल दी और उसे उठाकर खाट पर पटक दिया. तारा का शरीर सोमराज के साथ लड़ाई से थका और चोटें खाया हुआ था. कमर में छत से गिरने की चोट लगी थी. गली में दबोच ली जाने और सांस घुटने से भी वह शिथिल थी पर वह सामर्थ्य भर लड़ी. कहती जा रही थी – “बेशक तू मुझे मार डाल, मेरा गला काट दे पर यह नहीं हो सकता…” (झूठा-सच I, प. 312) तारा नब्बू से लड़ती है और वह बार-बार दया या मृत्यु की विनती करती है। कथाकार उसकी बहादुरी का पर्याप्त वर्णन देता है, जिससे पाठक के जेहन में तारा के चरित्र के प्रति सहानुभूति और स्वीकृति का भाव जगता है। इसे कथाकार की कथानक में भावनात्मक रणनीति के तौर पर देखा जा सकता है. अगर आज के दृष्टिकोण इस उपन्यास को पढ़ा जाए तो कथाकार की इस रणनीति पर सवाल किया जा सकता है: क्या तारा के लिए पाठकों के मन में सहानुभूति तब भी जगती जब वह मृत्यु की विनती नहीं कर रही होती और वह अपने इस पल में जीवित रहने के उपाए सोच रही होती? क्या तारा को तब भी सहानुभूति मिलती जब वह बलात्कार की तुलना मृत्यु से नहीं कर रही होती?

तारा के चरित्र को विभाजन के उत्तरजीवी के तौर पर समझने की जरुरत है, जहाँ उसके शरीर पर देश का विभाजन लिखा गया. अपनी आगे की यात्रा में वो गुमनामी और चुप्पी को चुनती है. गुमनामी उसे बलात्कार के उत्तरजीवी होने से लज्जित होने की प्रक्रिया से बचाता है; उस लज्जित होने की प्रक्रिया से जो उसे देखने वालों की आँखों में है. जब वह शरणार्थी शिविर में होती है तो अन्य महिलायें उससे इसलिए नफरत करती हैं, क्यूंकि वो यौन हिंसा को सह कर भी जीवित है:  “तारा क्रोध और घृणा से बक-झक करती स्त्रियों के बीच पड़ी, दुपट्टे में सर मुंह लपेटे अनुमान कर रही थी कि उसे अभी उठा कर फेंक दिया जायेगा … चुटिया से घसीटते हुए फेंकने के लिए ले जायंगे. उसे घसीटते समय उसके सब कपड़े भी फाड़ देंगे. उसके प्रति क्रोध और घृणा है क्यूंकि उसपर अत्याचार कर दिया गया है. उसपर इसलिए क्रोध है कि उसने अपमान किया जाने का, सोमराज और नब्बू द्वारा अत्याचार किये जाने का विरोध किया है.” (झूठा-सच II, प. 105.) तारा का पात्र इस नफरत के खिलाफ और अपने साथ हुए अत्याचार पर मौखिक रूप से चुप है और वह अपनी पीड़ा को कभी बयां नहीं करती है.

उसका जीवन गतिशील है लेकिन वह अपनी बीमारी ‘एसटीडी‘ [sexually transmitted disease] को छुपाकर रखती है और डॉक्टर से इलाज नहीं करवाती है. वह कहती है: “इलाज के लिए इतनी लांछना और अपमान कैसे उठाती? … सोच लिया था, जब वैसी स्थिति आएगी तो लांछना और अपमान उठाने के बजाये आत्महत्या कर लूंगी.” (झूठा-सच II, प. 511) तारा अपने शरीर पर विभाजन की त्रासदी को सह कर भी जीवन को चुनती है, लेकिन वह ‘Beschämungsopfer’ [लज्जा से पीड़ित] नहीं बनाना चाहती है. वह लांछित, लज्जित, और अपमानित करने की संस्कृति से बचना चाहती है, इसलिए चुप है. वह कहती है: “दोषी तो वह अपने आपको कभी भी नहीं समझती थी. उसे तो कलंक की छाया से ग्लानि थी.’ (झूठा-सच II, प. 536.) तारा द्वारा गुमनानी को चुनना लज्जित करने की रणनीति के खिलाफ एक युक्ति है और उसकी चुप्पी लज्जित करने की रणनीति के विरोध में उसकी अपनी भाषा है. तारा अपने इस प्रतिरोध में लज्जित की संस्कृति की हीं भाषा का प्रयोग नहीं कर सकती है, क्योंकि उसी भाषा ने उसके व्यक्तित्व को ख़ारिज कर दिया है. इसलिए तारा की चुप्पी उसकी अपनी भाषा है और तारा का अभिमान ही उसका भाव है. गुमनामी, चुप्पी और अभिमान तारा के हथियार हैं – लज्जित करने की संस्कृति और रणनीति के खिलाफ।

सन्दर्भ:
1. Yashpal (2014), Jhutha Sach I. Reprinted. Allahabad: Lokbharti Prakashan. Yashpal (2014), Jhutha Sach II. Reprinted. Allahabad: Lokbharti Prakashan. Further page no. will be mentioned.
2. William, Monier (2005), A Sanskrit-English Dictionary. Etymologically and Philologically Arranged Cognate Indo-European Languages. Reprinted. Delhi: Motilal Banarsidass Publishers.
3. See, Hiltebeitel, Alf (1991), ‘The Folklore of Draupadi Saris and Hair’ in Gender, Genre, and Power in South Asian Expressive Traditions Philadelphia: University of Pennsylvania Press. p. 395-427.
4. Sartre, Jean Paul (1993), Being and Nothingness. An Essay in Phenomenological Ontology. Trans. by Hazel E. Barnes. Washington: Washington Square Press. p. 253.
5. Ahmed, Sara (2004), The cultural politics of Emotion. Edinburgh: Edinburgh University Press. p. 104.
6. Solomon, Robert C. (2007), True to Our Feelings.  What Our Emotions are Really Telling  Us. New York, Oxford University Press. p. 90.
7. My translation from original English into Hindi: Sara Ahmed (2004). p. 105.
8. My translation from original English into Hindi. Tomkins, Silvan (1995), Shame and Its Sisters. A Sylvan Tomkins Reader. Durham and London: Duke University Press. p. 137.
9. My translation from English into Hindi. Kristeva, Julia (1981), Powers of Horror. An Essay on Abjection. Trans. by Leon S. Roudies. New York: Columbia University Press. p. 4.
10. Frevert, Ute (2017), Die Politik der Demütigung. Schauplätze von Macht und Ohnmacht. Frankfurt am Main: Fischer. p. 215.
11. Ibid.
12. Watt Smith, Tiffany (2017), Das Buch der Gefühle. Trans. by Birgit Brandau. München: dtv. p. 29.
13. Ibid .29f.

लेखिका तेज़पुर यूनिवर्सिटी में सहायक अध्यापक हैं. संपर्क: 007manjari@gmail.com

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