हाय मैं हिन्दी पीएचडी, पकोड़े की दुकान भी नहीं खोल सकती

साक्षी सिंह

बतौर स्त्री मैं एक ‘उत्तर भारतीय सवर्ण हिंदू निम्न-मध्यवर्गीय ग्रामीण कृषक परिवार’ में पैदा हुई। इन सब पहचानों में से ‘सवर्ण हिंदू’ होना हमेशा से मेरे परिवार के लिये गर्व का विषय रहा है और पिछले कुछ सालों में इस पहचान पर और भी ज़्यादा गौरवान्वित महसूस करने लगे हैं मेरे ख़ानदान के पुरुष और उनके पीछे सब पतिव्रता और आदर्श नारियाँ भी। परिचय के इस पूरे समीकरण में बाक़ी बचे शब्दों, अर्थात ‘निम्न-मध्यवर्गीय ग्रामीण कृषक’, को वे हौले से दरकिनार कर देते हैं। ख़ैर, पहचान की इतनी परतें कैसे-कैसे चढ़ी होंगी मनुष्य पर? कैसे इतना संतुलित दाँव बिठाया गया होगा कि अपनी श्रेणी के अनुसार मनुष्य के हक़ में परिचय की कुछ परतें ऐसी आ जाएँ जिन पर वे गर्व कर सके और कुछ ऐसी आएँ जो उसे हीनताबोध से भर दें। जिसे सर्वोत्तम दर्जा मिला उसके हिस्से में वो सभी परतें गई जिन पर गर्व हो और उसके बाद वालों में गर्व करने लायक़ परतें कम होती गईं। जो सबसे नीचे गया उसकी पहचान में सब परतें हीनताबोध वाली ही आयीं। ये बहुत ही रोचक मामला है। मगर मैं तो ठहरी उत्तर भारतीय सवर्ण हिंदू निम्न-मध्यवर्गीय ग्रामीण कृषक परिवार की स्त्री, अब मुझमें कहाँ इन सब बातों पर बात कर पाने भर की अक़्ल है। सो छोड़ देती हूँ।

दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्राएं

जो काम मैं कर सकती हूँ बतौर ‘उत्तर भारतीय सवर्ण हिंदू निम्न-मध्यवर्गीय ग्रामीण….स्त्री’ वह ये है कि मैं अपना दुखड़ा रो सकती हूँ और कुछ दया-वया माँग सकती हूँ, सो वही करूँगी आज भी।

हालाँकि ऊपर लिखी बातों से तो क़तई ये ना समझा जाए कि मैं दया की पात्र मात्र हूँ। मैं देश के सर्वोच्च संस्थान से सर्वोच्च शिक्षा ग्रहण कर रही हूँ। मैं दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएचडी कर रही हूँ।

मगर मैं दिल्ली विश्वविद्यालय की शोध छात्रा हूँ इससे इस अंजाम पर भी ना पहुँचा जाए कि मुझे दया की कोई ज़रूरत ही नहीं है। ग़ौर तलब है कि मैं ‘हिंदी साहित्य’ में शोध कर रही।

मेरे परिचय के समीकरण में हीनताबोध की एक और परत जुड़ी हुई है और वह है ‘सिर्फ़ हिंदीभाषी होना’।

अब आप समझिये कि उत्तर भारतीय स्त्री, माने कि औसत रंग रूप, उस पर ये हिंदी। अरे जब स्त्री बन कर ही पैदा होना था तो ऑस्ट्रेलिया या यूरोप में ही पैदा हो गई होती। नहीं तो जापान या चीन में ही और इनमें से कहीं नहीं तो कश्मीर या पंजाब में ही पैदा हो लेती। अच्छा इन सब जगहों को छोड़ भी दें, अगर उत्तर भारत में ही पैदा होना था तो दिल्ली में ही हो जाती। कम से कम ज़रा स्मार्ट होती, खाने-पहनने का तो सलीक़ा होता और अंग्रेज़ी मीडियम में पढ़ भले ना पाती मगर थोड़ी-बाड़ी अंग्रेज़ी तो कहीं नहीं जानी थी। अब पूर्वांचल के गाँव में स्त्री के पैदा होने की भला क्या ही ज़रूरत थी।

दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश मिलने पर मन को ज़रा सुकून आया था कि अब गऊ माता हिंदी की पूछ पकड़ कर हीनताबोध की वैतरणी पार हो जाऊँगी फिर जीवन स्वर्ग बन जाएगा।लेकिन ये जहालतें कब आसानी से पीछा छोड़ती हैं भला।

मुझ बेचारी नें ‘हिंदी’ की हीनता से बचने के लिए जाने कितने तो जोग-टोटके कर डाले मगर कोई असर नहीं।अंग्रेज़ी आए कि ना आए मगर चार लोगों के सामने तो ये दिखाना ही पड़ता है ना कि मैं भी अंग्रेज़ी जानती हूँ। इस बात को साबित करने के लिए मैंने ढेरो अंग्रेज़ी खिलाड़ियों, फ़िल्मों, लेखकों, कलाकारों के नाम रटे और उनमें से कुछ को अपना पसंदीदा व कुछ को दो कौड़ी का कहना शुरू कर दिया। सोचिए ज़रा कि ये कितने ही रिस्क का काम है, ज़रा सी ज़बान फिसली नहीं कि गए आप। नाक कट जाए भरे समाज में। हालाँकि ये डर ज़रा कम रहता है, क्यूँकि समाज भी तो मेरे ही जैसा है, तुक्केबाज़।

सफ़र के दौरान रेल या बस में बैठे हुए अगर कोई अंग्रेज़ी पत्रिका, किताब या अख़बार हाथ में हो तो जी रौब ही अलग गंठ जाता है। अव्वल तो कोई भी औना-पौना आपकी सीट में हिस्सा बँटा लेने की जल्दी जुर्रत नहीं करता और ना ही कोई  लीचड़ अधेड़ आपकी तरफ़ लार टपकाते हुए घूरने की हिम्मत कर पाता है। सहयात्री आपकी मदद कर देना ख़ुद का धन्यभाग समझने लगते है और सबसे अहम बात ये कि आपकी पहचान की हीनताबोध वाली परतों का कसाव ज़रा कम सा हो जाता है। मैंने तो अंग्रेज़ी की दो-चार किताबें इसी हवाले से ख़रीद रखी हैं। सफ़र में तो काम आती ही हैं साथ ही घर पहुँचने पर अंग्रेज़ीदाँ भाइयों, जो कि आपको नीरा गँवार मानते हैं उनकी नज़र में भी इज़्ज़त थोड़ी ठीक हो जाती है और अंग्रेज़ी पसंद घरवालों को ज़रा यक़ीन आ जाता है कि लड़की कुछ तो कर ही लेगी, अब अंग्रेज़ी पढ़ लेती है।

जब कोई व्यक्ति पहली दफ़ा मिला हो और ये पूछ ले कि ‘क्या करती हो?’ तो मैं झट जवाब देती हूँ; पीएचडी कर रही, डी.यू. से’। कुछ लोग तो इस रौब तले दब कर आगे और सवाल नहीं पूछते। मगर चार लोगों का मैं क्या करूँ जो ‘किस विषय में?’ पूछे बिना बाज़ नहीं आते। जवाब में ‘हिंदी’ निकला नहीं कि डी.यू. और पीएचडी दोनों की ही कांति मलिन पड़ जाती है। जवाब सुन कर लोग हिंदी ड्रामा सीरियल के ख़तरनाक रिश्तेदारों के जैसी भावभंगिमा बना कर कटाक्ष करने लग जाते हैं। एक बानगी देखिए- ‘ओह! माय गॉड, यू आर डूइंग पीएचडी इन हिंदी। लिटरली यार, दिस इस वेरी डिफ़िकल्ट टास्क। आई काँट राइट अ सिंगल करेक्ट सेंटेंस इन हिंदी यार एंड यू आर डूइंग पीएचडी इन हिंदी…ब्रेव मैन। वेरी डिफ़िकल्ट।’

हाय! ये बातें जान में नश्तर की तरह चुभती हैं। सोचती हूँ कि काश न होती मैं ये हिंदी मीडियम छाप तो क्या ही आनंद होता।फिर मैं भी यूँ ही हिंदी वालों/वालियों पर रौब जमाते हुए कहती कि- ‘वेरी डिफ़िकल्ट’। एक डॉक्युमेंटरी फ़िल्म देखी थी उसमें लड़की बस में एक हिंदी किताब पढ़ रही होती है जिससे बग़ल में बैठा लड़का उसे हिक़ारत भरी निगाहों से देखता है। मगर फिर लड़की फ़र्राटेदार अंग्रेज़ी में बात करती है और लड़का बहुत प्रभावित हो जाता है। जी चाहता है कि वेरी डिफ़िकल्ट के जवाब में मैं भी उस लड़की की तरह हिंदी की सरलता और सहजता के पक्ष में, अंग्रेज़ी में ख़ूब लम्बा भाषण दे मारूँ….मगर भाषण भर की अंग्रेज़ी आए कहाँ से इसलिए गिरगिट की तरह रंग बदल शालीन बन बस इतना कह कर रह जाती हूँ कि- नो! नो! ऐसा नहीं है, हिंदी इस वेरी ईज़ी एंड इंट्रेस्टिंग।

इस जहालत से ख़ुद को बाहर निकालने के लिए मैंने उर्दू से रबता क़ायम किया। पुर-उम्मीद थी कि अब दुःख के बादल छँट जाएँगे। जब लोग खिटिर-पिटिर अंग्रेज़ी बोलेंगे तब मैं बड़ी ही अदा और नफ़ासत से उर्दू में बात करूँगी। मेरी बातों की मिठास सुन सब दंग रह जाया करेंगे। मगर वो हथियार भी साथ ना दे सका अधिक वक़्त तक। ग़ुस्सा आने पर अंग्रेज़ी दाँ तो अंग्रेज़ी में ही इडीयट, नॉनसेंस, बास्टर्ड बोला करते हैं, मगर इधर तो जैसे ज़बान को लकवा ही मार जाता हो जैसे कि कमबख़्त बस एक ही तरफ़ चले जाती है। मैं  बोलना चाहती हूँ बदबख़्त, नामुराद और मुँह से निकलता है हरामी, कुत्ता, साला। लो जी धरा गई सारी नफ़ासत, धरी रह गई नज़ाकत। जनवा ही दिया आख़िरकार कि हूँ तो एक निम्न-मध्य वर्गीय हिंदी भाषी स्त्री ही।

हालाँकि हिंदी से मेरे जैसी ही हीनताबोध मेरे पुरुष मित्रों को भी महसूस होती है। ये अलग बात है कि उस हीनताबोध के दुष्परिणाम अलग होते हैं। बहरहाल, मेरे एक मित्र ने सुझाया कि हम हिंदी वालों से जब कोई पूछे कि किस विषय में पीएचडी कर रहे तो हमें हिंदी की जगह ‘लिंग्विस्टिक’ या ‘ह्यूमैनिटीज़’ बताना चाहिए, इससे मुश्किल ज़रा आसान हो जाएगी। मगर उन जनाब को कौन समझाए कि अगर खोट शक्ल में ही हो तो फ़ेयर एंड लवली लगाने पर भी सात दिन में परफ़ेक्ट गोरा निखार नहीं मिल सकता।मेरे प्रिय पाठकों(पढ़े चाहे एक भी पाठक ना लेकिन ‘पाठकों’ सम्बोधित करना तो मजबूरी है मेरी), मेरी दीनता की अति यहाँ भी नहीं होती। अंग्रेज़ी ना आने की कमतरी और हिंदी का काला साया हर जगह पीछे लगा रहा। कार्यालयों के बाबुओं से लेकर पत्रिकाओं में एपीआई(अकैडेमिक परफ़ोरमेंस इंडिकेटर्ज़) का धंधा चलाने वाले प्रकाशक तक आपको घुड़क लेते हैं कि; ‘क्या पीएचडी करने आ गए हैं आप लोग न ज्ञापन लिखना आता  है ना शोधपत्र’। उस पर ये ग़म ए रोज़ी। विश्वविद्यालयों में अध्यापन  के क़ाबिल तो है नहीं आप। वो जगह ढंग के लोगों के लिए है, ऐसी किसी भी ऐरी-ग़ैरि के लिए नहीं। अतः विश्वविद्यालयों को तो आप माफ़ ही करें भई।

फिर आई डिग्री कॉलेजों की बारी, तो सरकारी इम्तिहान है, इतनी आसानी से हो नहीं जाना है। फ़ॉर्म भरा जब आप २२ की थीं और परीक्षा की तिथि आने से लेकर परिणाम आने तक आपका बच्चा या बच्ची २२ की हो जाए। उस पर भी पर्चा आउट मगर वो भी  किसी निम्न-मध्यवर्गीय स्त्री तक तो पहुँच नहीं सकता। अब मेरिट जाती है ८५/१०० और आप पाती हैं ५८/१०० तो यूँ आप हुईं उससे भी बाहर। अगला फ़ॉर्म आने तक ओवर एज।

दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्राएं

तीसरे नम्बर पर आया स्कूल में अध्यापन कार्य, तो मोहतरमा उसके क़ाबिल भी आप किसी सूरत नहीं हैं, होंगी आप सर्वोच्च शिक्षा प्राप्त अपने घर में यहाँ नहीं चलेगा। यहाँ चाहिए बीएड। मान लीजिए कि कोई जुगाड़-पानी लगा कर बीएड की डिग्री का इन्तज़ाम हो जाए तो भी नहीं होना आपका कुछ क्योंकि आप १०वीं द्वितीय श्रेणी में पास हैं। आपके तब के बुरे कर्मों का फल अब मिलेगा। अरे ना पढ़ती तो नक़ल ही कर लेती, वो भी ना हुआ इनसे ग़ज़ब निकम्मापन है भई। आप बच्चों को क्या सिखाएँगी? अपनी तरह उनका भी भविष्य अंधकार में डालेंगी, इसलिए जी रास्ता देखिए अपना।

अब अगर एक पीएचडी धारक स्त्री को यूनिवर्सिटी, कॉलेज, स्कूल कहीं पढ़ाने को नहीं मिलेगा तो वो आगे क्या करे भला? पुरुष हो तो कम से कम ठेकेदार ही बन जाए या वो भी नहीं तो अपने प्रधानमंत्री की बात मान पकौड़े की दुकान ही लगा ले। मगर जी आप ठहरी स्त्री वो भी निम्न-मध्य वर्गीय पीएचडी धारक, आप तो आठ-दस हज़ार के लिए प्राइवेट नौकरियों की ख़ाक छानती भी शोभा नहीं देगी ना ही २००-२०० रुपये में ट्यूशन पढ़ाते। हिंदी पढ़ कर आप में मेक इन इण्डिया के लायक़ कोई स्किल भी नहीं आई। लुक ईस्ट, ऐक्ट ईस्ट में भी आपकी क्या ही भूमिका हो सकती है भला और स्किल इण्डिया वाले भी मज़बूत पीठ वालों को ही तरजीह देंगे किसी रोगही-बतही को नहीं।

अब क्या बचा आपके पास करने को? बस ये कि; उठिए, ज़रा लोगों से मिलिए जूलिए, ख़ुशामद करिए। ख़ुशामद  पीएचडी से अधिक महत्वपूर्ण एवं स्वीकार्य  योग्यता है। हिंदी साहित्य का कोई ठरकी बूढ़ा साहित्यकार हो, कोई अधेड़ कुंठित कवि हो या पुरस्कार प्राप्त कोई युवा साहित्यकार, उनके प्रणय निवेदन को आप स्वीकार भले मत करिए लेकिन स्निग्ध मुस्कान के साथ उसका स्वागत ज़रूर करिए। और एक काम की बात कि उनका प्रणय निवेदन भले आपको नागवार गुज़रे मगर ज़बानदराजी साहित्यिक संस्थानो और सहित्यिकों के बीच बर्दाश्त नहीं की जाती इसलिए मुँह बंद रखिए वरना ऐड-हॉक या गेस्ट की भी रही सही गुंजाईश ख़त्म हो जाएगी और अभी जो कुछ लिखा पढ़ा छप-छपा जाता है वो भी ना हो सकेगा।

सो मुस्कुराइए, ख़ुश रहिए, अपनी सोच को सकारात्मक रखिए। घर-परिवार, समाज-सरकार सबके विषय में अच्छा कहिए। अच्छा सोचिए और महिला करियर के सबसे अहं विकल्प ‘विवाह’ का चयन कीजिए इससे पहले कि आप उसके लिए भी ओवर एज हो जाएँ। बस ध्यान रखें कि ब्याह किसी रसूखदार सजातीय  ख़ानदान में करें। यथा बाप-दादे प्रशासनिक अधिकारी, जज प्रोफ़ेसर आदि हों या रहे हों। दूल्हा भले नकारा हो, चलेगा। दूल्हे के नकारा होने का फ़ायदा यह मिलेगा कि दहेज आपके बजट में आ जाएगा। शायद है कि ढंग के घर की लक्ष्मी बन कर आपकी गिनती भी ढंग के लोगों में होने लेग और आपको किसी विश्वविद्यालय में पढ़ाने का अवसर प्राप्त हो सके जिससे आपकी पीएचडी और जीवन दोनो धन्य हो जाएँ।

लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय में शोधरत हैं.

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