पिछ्ले दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय के बौद्ध अध्ययन विभाग के सहयोग से ‘स्त्रीकाल’ तथा मेरा रंग के संयुक्त तत्वावधान में ‘समकालीन महिला महिला लेखन का स्वर’ विषय पर कार्यक्रम का आयोजन किया गया। महिला दिवस के उपलक्ष्य में हाल में दिवंगत रचनाकारों, कृष्णा सोबती, अर्चना वर्मा और नामवर सिंह को याद करते हुए यह कार्यक्रम दो सत्रों में सम्पन्न हुआ.

पहले सत्र में मुंबई के कलाकारों की एक टीम ‘जश्न- ए- कलम’ की शश्विता शर्मा ने इस्मत चुग़ताई की प्रसिद्ध कहानी ‘छुईमुई’ तथा राजेश कुमार ने राजेंद्र यादव की कहानी ‘किनारे से किनारे तक’ की एकल प्रस्तुति की। दोनों कहानियों का मंचन सजीव और प्रभावशाली रहा। एक ही कलाकार के माध्यम से जैसे अनेक चरित्र रूप और भाषा पा गए। भाव तथा स्थितियां एकदम मूर्त हो गए। कहानियां पूरी संवेदना के साथ दर्शकों के भीतर उतर गईं।
अगले सत्र में हाल में दिवंगत साहित्यकारों को श्रद्धांजलि दी गई। डॉ मंजू मुकुल कांबले ने वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह पर लेख पढ़ा। उन्होंने बताया कि नामवर सिंह ने विपरीत परिस्थितियों में हिंदी भाषा, साहित्य और आलोचना को समृद्ध किया। डॉ स्नेह लता नेगी ने लेखिका कृष्णा सोबती पर स्मृति लेख पढ़ा। उन्होंने कहा कि कृष्णा सोबती ने स्त्री लेखन की कायदे से शुरुआत की तथा स्त्री-विषयक सामाजिक मानदंडों को बदल कर रख दिया। उनका जीवन उनके लेखन से अलग नहीं किया जा सकता। डॉ रजनी दिसोदिया ने लेखिका अर्चना वर्मा पर स्मृति लेख प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि अर्चना वर्मा जिस निस्पृह भाव से साहित्य साधना करती रहीं। व्यक्ति और संपादक दोनों का संतुलन उनमें था।

इस सत्र में लेखिकाओं के प्रथम कहानी-संग्रह, क्रमशः रजनी दिसोदिया (चारपाई), सपना सिंह( उम्र जितना लंबा प्यार), अंजू शर्मा (एक नींद हजार सपने), विजयश्री तनवीर (अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार) पर परिचर्चा हुई। विषय प्रवर्तन करते हुए डॉक्टर सुधा सिंह ने स्त्री-भाषा के अलग स्वरुप को चिह्नित करते हुए अपनी बात कही। उन्होंने कहा कि पुरुष आलोचकों को अपने पूर्वग्रहों से बाहर आना होगा। स्त्री भाषा को स्वीकारने में पुरुष लेखकों को खासी दिक्कत हुई। उन्होंने कहा कि दृष्टिकोण का बड़ा फर्क पड़ता है। प्रेमचंद पर तीन अलग-अलग लेखकों यथा शिवरानी देवी, अमृत राय और मदन गोपाल के दृष्टिकोण अलग-अलग हैं। प्रेमचंद एक ही हैं परंतु लेखक की अस्मिता बदलते ही प्रेमचंद अलग हो जाते हैं। इसी बिंदु से स्त्री लेखन और उसकी भाषा को समझा जा सकता है। उन्होंने कुछ बड़ी लेखिकाओं द्वारा खुद को स्त्रीवादी कहे जाने से परहेज किये जाने को चिह्नित करते हुए कहा कि फिर भी स्त्रीवादी आलोचना खुद को उनसे जोडती है. लेखिका रजनी दिसोदिया के संग्रह ‘चारपाई’ पर डॉ मंजू मुकुल ने विचार रखे। उन्होंने ब्रतोल्त ब्रेख्त के ‘प्ले ट्रुथ’ तथा अमेरिकी भाषा परिवारों के हवाले से चारपाई पर विचार-विमर्श को विस्तार दिया। जैसे अमेरिकन समाज में अश्वेत स्त्री के श्रम को पहचान मिली, उसे दलित स्त्री के लिए ‘चारपाई’ कहानी में देखा जा सकता है। इस संग्रह की कहानियां दलित स्त्री के अलग-अलग पक्षों को उभारती हैं। यह चरित्र महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने कहा कि समकालीन महिला लेखन में सशक्त स्त्री चरित्रों को गढ़ना चाहिये जैसे कथाकार टेकचंद के ‘दाई’ उपन्यास का चरित्र है। रचनाकार अपनी लैंगिक और जातिगत चेतना को रचना में आने से नहीं रोक सकता।
कथाकार विवेक मिश्र ने महिला लेखन को मुख्यधारा में रखने की बात कही। उन्होंने कहा कि दलित और स्त्री विशेषांक को अलग से निकालने की बजाए मुख्यधारा के साथ होना चाहिये, ताकि उनका एक अलग कम्पार्टमेंट न बन जाये. उन्होंने कहा कि वर्तमान में सूचनाओं का इतना संजाल है कि रचनायें कठिन हो रही हैं, अलग से मेटाफर रचना असंभव सा हो रहा है लेकिन महिलाओं के अपने अनुभव व्यापक हैं और उनका लिखना मायने रखता है. इस विवेक मिश्र ने कहा कि सपना सिंह की कहानियाँ जानी-पहचानी स्त्रियों की कहानियाँ लेकिन उनके जीवन के अनबूझे पहलुओं को सामने लेकर आती है। विजयश्री तनवीर की भाषा एक परिवेश की रचना कर देती है। उनकी कहानियां भीतर से बाहर की कहानियां है, पुरुष व स्त्री के पारस्परिकता की कहानियां हैं। अंजू शर्मा की कहानियां स्त्री मन के संघर्षों को भी पकड़ती हैं। रजनी दिसोदिया की कहानियों में जाति व लैंगिकता के संघर्ष हैं।

अपने वक्तव्य में मेधा ने स्त्री लेखन को अकादमिक दायरों से निकालने की बात रखी। उन्होंने कहा कि लोहिया के स्त्री विषयक लेखन को पढ़ना बेहद जरूरी है। मेधा ने कहा कि रजनी दिसोदिया की ‘चारपाई’ कहानी को पढ़कर भीष्म साहनी की ‘चीफ की दावत’ याद आ जाती है। ये कहानियां नई बनती स्त्री की हैं।
कार्यक्रम की अध्यक्षता सुप्रसिद्ध लेखिका ममता कालिया ने की। उन्होंने कहा कि रजनी दिसोदिया की इन कहानियों में स्मृति विहीन नई पीढ़ी तथा स्मृतियों पर निर्भर पुरानी पीढ़ी का भी द्वंद है। अंजू शर्मा की कहानी ‘रात का हमसफर’ कहानी रोमान के मिथ को तोड़ती हैं। इनकी कहानी बहुत आगे की कहानी है। विजयश्री तनवीर की कहानियां प्रेम और स्त्री-पुरुष संबंधों की नई परिभाषा गढ़ती हैं। ‘महिला लेखन’ कहना सुविधा के लिए तो ठीक है परंतु वह समस्त साहित्य का पूरा हिस्सा है। समकालीन महिला लेखन ने भाषा को साधा है। कृष्णा सोबती की भाषा कितने वृहद् रूप में जीवन अनुभूतियों को अभिव्यक्त करती है।
कार्यक्रम में दिल्ली विश्वविद्यालय जेएनयू के शिक्षकों, शोधार्थियों ने भाग लिया। कार्यक्रम का संचालन कथाकार टेकचंद और मेरा रंग की सम्पादक शालिनी श्रीनेत ने किया।
प्रस्तुति रानी कुमारी