कुमारी (श्रीमती) मानदा
देवी
अनुवाद और सम्पादन: मुन्नी गुप्ता
1929 में मूल बांग्ला में प्रकाशित किताब “शिक्षिता पतितार आत्मचरित”, का हिन्दी अनुवाद एवं सम्पादन मुन्नी गुप्ता ने किया है, जिसका प्रकाशन श्रुति बुक्स, गाजियाबाद से हुआ है. यह एक ‘वेश्या’ की आत्मकथा है. इस किताब की लम्बी भूमिका का एक अंश एवं आत्मकथा का एक अंश स्त्रीकाल के पाठकों के लिए. दूसरी क़िस्त
जिसे अपनी ज़िन्दगी की हर सांस के साथ औरत होने के हश्र-आगाज़ से हश्र-अंजाम की तरफ कदम-दर-कदम यकसर जा रहीहै, वह केवल गर्म गोश्त तो नहीं हो सकती, केवल पेशे में बे-बाईस दुनियावी खयानत, छलावे की वजह से जलालत सहती –वेश्या नहीं हो सकती. उसमें एक इंसानी वुजूद हर लम्हा ‘परिपक्व होने को है. ज्यादातर तो यहाँ हर तबका अवसाद (anxiety) के बदगुमान हालात और मनोविकृत आघात (Psychotic trauma) से उभरी संवेदनाओं की कशाकशी है. हर ख्वाहिश – आरजूओं, तमन्नाओं, जज्बातों के हासिल खोजती है. चिंता, अंदरूनी अशांति, अनचाही स्थितियों में जाने को मुखातिब होने को है. उत्पात मचाने को है . खलबली पैदा करने को है. ज़िन्दगीऔर जिस्म यानी जिस्म-ओ-जाँ में इक जोर की तड़प उठती है, जिसे जिस्म के हिसार के बाहर ज़िन्दगीको लाना दुश्वार लगता है और जिस्म की सरहदों में गर्म हवाओं के बवंडर जो उठ रहे हैं उन्हें बुझाने की खातिर एक औरत का गर्म जिस्म चाहिए ये तमन्ना जाग जाग उठती है. अपने बदन की गर्मी को राहत देने के लिए वो किसी भी हद तक जाने को उतावला है. उत्तेजना, गर्माहट, एक अवसाद पैदा कर रहा है. यह अवसाद एक आक्रोश में बदल रहा है और रुखसार को बेचैनी से भर देता है. औरत ही है जो जिस्म की आग बुझा सकती है. दोशीजा हो तो फिर आग में और सरगर्मी बढ़ जाती है. यही मंशा आदमी के भीतर उसे आग के खिलाफ योजनाबद्ध होने पर मजबूर करता है. आग जो जिस्म की है, उसे बुझाने में आदमी किसी भी औरत की अंदरूनी झिल्ली को काटकर उसे पूरी तरह परास्त करके ही राहत पा सकता है.
ऐसे में वेश्या अगर ये कहे कि वह औरत है और वेश्या होकर अगर वह औरत होने की सज़ा से गुजर सकती है तो औरत होने पर बात क्यूँ नहीं कर सकती? इस समूची कवायद में यदि वह कोई तार्किक सवाल कर दे, मसलन मंटो ने जब खुद पर बोलते हुए यह कहा –“ऐसा होना मुमकिन है कि सआदत हसन मर जाए और मंटो ज़िंदा रहे.” तो फिर यह मुमकिन क्यूँ नहीं कि जिस्मफरोशी जो एक पेशा है और वेश्या होना पेशे के मुताबिक़ दिया गया पदनाम है. आखिर वेश्या है तो एक औरत ही जो इस पेशे में आई है या ज्यादातर जबरन घसीट लाई गई. तो वह एक औरत होकर क्यूँ नहीं जी सकती. या फिर औरत होकर क्यूँ न जिए. वेश्या (पहचान) एक औरत की वास्तविक, अस्मिता नहीं बन सकती, वो रोज़ी है. ज़िन्दगी जीने की खातिर बुनियादी ज़रूरतें पूरी करने का ज़रिया है. जबकि वेश्या का औरत होना उसका वाजिब अभिमान है. इस लिहाज़ से वेश्या एक औरत की अस्मिता में रह कर जीने की हक़दार है. इस दुनिया में मर्द भी तो दलाल हैं इसी पेशे में या अन्य पेशों में. फिर वे मर्द की हैसियत से कैसे रहते हैं- खालिस दलाल क्यूँ नहीं रहते?
मानदा बताती है –“मैंने जब राजबाला से उसकी सम्पन्नता का कारण पूछा तो उसने बताया– वेश्यालय में किस्म-किस्म के लोग आते हैं. रईस जमींदारों के बच्चे अपने दोस्त, मित्रों सहित खुलेआम वेश्याओं के पास जाते हैं. इन्हें लोक-लज्जा का भय नहीं सताता. ये गीत-संगीत, मदिरा पान आदि द्वारा मौज-मस्ती में लिप्त होते हैं. ये छोटी-मोटी खोला बाड़ियों में नहीं आते.
एक और दल लम्पटों का है जो सामाजिक निंदा से डरता है. समाज में ये ऊँचे पदों पर जो बैठे हैं और सम्मानित हैं- ये लुके-छिपे ढंग से वेश्यालयों में कदम रखते हैं, इनके आगमन का मूल कारण वासना पूर्ति मात्र है. गीत-संगीत अथवा अन्य किसी प्रकार के मनोरंजन से इन्हें कोई लेना-देना नहीं. ये रात के अँधेरे में आते हैं और अँधेरा रहते ही चले जाते हैं.
दूसरी ओर लोक-समाज में भी अपनी मान-मर्यादा और सुनाम को बचाए रखते हैं. कवि, साहित्यकार, समाज सुधारक, नामवर वकील, स्कूल शिक्षक, कॉलेज प्रोफ़ेसर, राजनैतिक नेता, उपनेता, सरकारी दफ्तर के बड़े कर्मचारी, ब्राह्मण, महामहोपाध्याय पंडित, विद्याभूषण, तक. . . आदि उपाधि प्राप्त अध्यापक, पुरोहित, महंत और छोटे-मोटे व्यवसायी ये सभी इसी श्रेणी के हैं.
मेरे पास हाईकोर्ट के एक विख्यात वकील का आना जाना है, वे ऊँचे कुल के ब्राहमण के बेटे हैं. उनका नाम है श्री. . . .उम्र कुछ अधिक होगी. वे मुझे भरपूर रुपये देते हैं. एक दिन मैंने मजाक में उनसे कहा था, “तुमहाई कोर्ट के ऊँचे स्थान पर प्रतिष्ठित होगे.”
यहाँ तक कि अब तो सरकारें भी कारोबारियों की दलाली में शामिल होती जा रही हैं. फिर कोठे और लोकतंत्र के मंदिर में कैसा फर्क? ईमान और रूह तो सरकारें भी गिरवी रख आई हैं – कारोबारियों के घरानों में. सांसद, मंत्री खुद मुनाफाखोर ठेकेदारों कारोबारियों की दलाली में मशगूल हैं, न्यायपालिकाएं हैसियतवाले और पूंजीपति कारोबारियों के दलालों की ही पैरवी में खड़े कानूनगो के हक़ में फैसले दे रही है. कभी मेहनतकशों का हक़ मारकर गलत तरीके से कमाई गई दौलत के खिलाफ कोई फैसला नहीं आया.इन कारोबारियों के दलाल बड़े बड़े नामीगिरामी वकील हैं और यहाँ तक कि खुद राज्य सरकारें हैं, ये कारोबारी आम आदमी के खून पसीने की गाढ़ी कमाई को कौड़ियों के मोल लूटकर गैर- मुलक़ में बसने जा रहे हैं. मुलक़ के हाकिम दवा कम्पनियों के कारोबारियों की मुनाफाखोरी में हिस्सेदार और दलाली में शामिल हैं, पेशा चिकित्सा है तो दवा कंपनियों को मुनाफा पहुंचाने की दलाली क्यूँ? ऐसे तमाम पेशे जो सम्मान और रुतबे से जुड़े रहे हैं, उन पर भी सवाल उठ रहे हैं. कानून किनके हक में है, यहीं से तमाम बातें साफ़ हो जाती हैं. आज़ादी के पहले पेशेवर मुलाजिमों के किस्से और आज़ादी के पचहत्तर सालों बाद भी दलाल स्ट्रीट बने हर हैसियत वाले पेशे के कायदों में भला क्या फर्क आया है?
मंटो ने इस मसले पर जिक्र किया है – “हम लिखने वाले पैग़ंबर नहीं. हम क़ानून साज़ नहीं.. क़ानून साज़ी दूसरों का काम है- हम हुक़ूमतों पर नुक़्ताचीनी करते हैं लेकिन ख़ुद हाकिम नहीं बनते. हम इमारतों केनक़्शे बनाते हैं लेकिन हम मै मारनहीं. हम मर्ज़ बताते हैं लेकिन दवाखानों के मोहतमिम (व्यवस्थापक) नहीं.”
मानदा ने लिखा इसलिए कि हमारी नजर साफ़ हो सके. इसलिए नहीं कि ये वेश्या कथा बनके रह जाय. इसकी कमाई यही है कि इन्साफ की लड़ाई में ताकत हासिल हो. ईमान से जीते हुए लड़ाई जारी रह सके.
वह कहती है- “अच्छे घरों के शरीफ बेटे के रूप में प्रसिद्द अपने इन दोनों पढ़े-लिखे उच्च शिक्षा प्राप्त दलालों को जब मैं देखती हूँ तब यह सोचने पर बाध्य हो जाती हूँ – इस संसार का कैसे भला हो! कभी-कभी यह सोचती हूँ कि वह ऐसी मानसिकता वाले क्यूँ हैं? उनके स्वभाव को देखते हुए मेरा मन वेदना से भर उठता और यह मैं बार-बार विचार करती कि जिस जाति के उच्चशिक्षित भद्र घरों के शरीफ मर्द वेश्याओं की दलाली करते हैं, दलाली ही नहीं करते वेश्याओं को वेश्यावृत्ति का पेशा छोड़ते देख वे बार-बार उन्हें इसी पेशे में लिप्त रहने का प्रलोभन देते हैं और समाज में भद्र और शिक्षित कहलाते हैं.”
मानदा भी हमारे समक्ष ईश्वर की ही तरह आत्मकथा में हाज़िर होकर भी अनाम होते हुए हाजिर नाज़िर बनी रहती है. अगर एक वेश्या को ईश्वर के बारे में बात करनी पड़े तब वह इस सूरत में खुद को समर्पित करने केबजाय ईश्वर के सामने किस तरह संदेश देगी यह बात ‘एक वेश्या का आखिरी ख़त’, जिसे मनास अग्रवाल हमारे सामने लेकर आये. वेश्या एक पत्रकार को लिखे खत में ईश्वर पर बात करते हुए कहती है – “आपने एक बार पूछा था कि हमारे कोठे में भगवान की मूर्तियों का मुँह छत की तरफ़ क्यूँ है? दरअस ल मेरे आने से पहले तक हमारे पलंग उनकी मूर्तियों के सामने ही हुआ करते थे। लेकिन एक रात जब एक मर्द स्खलित होने ही वाला था, ईश्वर की मूर्तियों को निहारती मेरी स्थिर और एक टक पुतिलयों ने देखा कि भगवान ने अपनी आँख झुका ली है। और तब से वो मूर्तियाँ छत को घूर रही हैं। मैं हर उस शख्स को ग्राहक समझती हूँ जो इन कोठों पर आता है। भले ही वो हमारा ईश्वर ही क्यूँ ना हो। बस ईश्वर के साथ ये सहूलियत जुड़ी रहती है बल्कि बाक़ी ग्राहकों की तरह उसे कोठों से निकलते वक्त गर्दन झुकानी नहीं पड़ती। क्योंकि ईश्वर कभी लौटकर नहीं आते। जहाँ तक मैं जानती हूँ किसी भी ईश्वर की कोई लड़की नहीं थी। शायद इसीलिए वह ईश्वर था क्यूंकि उसने अपनी विवशताओं को बात पहले ही पहचान लिया था।“
मानदा भी ईश्वर को याद करते हुए स्मृति पटल पर लाकर अपने तर्क भरे भरोसे से कहती है –“ईश्वर की इस पवित्र दुनिया में आदमी कितने बनावटी उपायों से स्त्री-पुरुषों को पाप के रास्ते पर आकर्षित करते हैं.” यह दो अलग तरह की वेश्याओं के विचार हैं. मगर ईश्वर से आदमी तक होकेगुजर जाना, एक निष्कर्ष को पाना और उसे जानने का उपक्रम बेहद रोचक और दिलचस्प वाकया है.
यहीं कहीं से मानदा यानी एक वेश्या के बतौर लिखने की जंग, एक जद्दोजहद शुरु होती है. इस बहाने मानदा ने जुबानी व कलमकार होके तमाम-तमाम जिरहें कीं. ये बातें खतरनाक साबित हों सकती हैं या जोखिम से भरी बहस से भरी हैं. मगर ये यात्रा जुल्म, ज्यादतियों के खिलाफ नाफरमानी की तरफ मुड़ चली हैं. ये सवाल और ख्याल मर्दवादी समाज संरचना पर चोट कर रहे हैं. इन्साफ की देवी भी एक औरत की ही सूरत में हर मुलक़ कीअदालत में आँखों पर पट्टी बांधे खड़ी है. एक वेश्या आँखों की पट्टी हटाकर देखने को बाध्य कर रही है. इंसानी अदालत में बार-बार कह रही है दुनिया की हर वेश्या एक औरत है. औरत जोकि दिलोदिमाग से दुरुश्त है, एक औरत होकर वेश्या के पेशे में रहते हुएइन्साफ की गुहार लगा रही है, मर्दवादी समाज की सोच और संस्कृति की फितरतों, कानूनी उसूलों, सलीकों और राजनीतिक कायदे-तहज़ीब के खिलाफ गवाही दे रही है, मुखालफत कर रही है. ऐसे में वेश्या की जिरह बहस के बरक्स मर्दवादी मूल्यों की घेराबंदी और प्रतिवाद के समक्ष क्या सरोकार हो सकते हैं? कहीं ये तो नहीं कि बदले में यही मर्दवादी कट्टरपंथी दस्तूर उसे क्या ऐसे में इज्जत बख्सेंगे? क्यायह सच नहीं कि इसके एवज में वे मिलकर एक वेश्या से उसके जीने की आज़ादी छीन नहीं लेंगे?
इन सवालों के सामने यह व्यवस्था वेश्या को कत्ल करने में जरा भी संकोच करेगी भला? क्यूँ ऐसा हुआ कि आज तक वेश्याओं के बचाव में कोई मजबूत, सख्त दलील नहीं हुई? कोई जन-आन्दोलन नहीं हुआ, न ही कभी इस तरह के मामले न्यायपीठ में जिरह का हिस्सा बने? सवाल तो ये भी कि भला कौन वकालत करे वेश्याओं के हक और पक्ष में? आखिर वह भी औरतें हैं और वेश्या होना उनका पेशा मात्र है. इन बातों से वह समाज मेंबेदखल होने की सजा, यातना, दंश, यन्त्रणा, क्यूँ सहे? औरत होने का सम्मान क्यूँ खोये? बुनियादी सहूलियतों से वंचित होने की तकलीफें क्यूँ झेलें?
वेश्याओं ने यूँ तो दुनिया भर में अपनी-अपनी जुबानों में अनगिनत दास्तानें लिखीं हैं. मैं भरोसे के साथ कह सकती हूँ कि दुनिया भर में लिखे वेश्याओं के लेखन पर एकदम नये तरीके से, निष्पक्ष, न्यायिक होकर तमाम जुबानों में मूल को इंटरेक्टिव जुबान में तर्जुमा करने की ज़रूरत है. इस कवायद से ही तमाम मुल्कों में मजहबी और कौमी वैश्विक मर्दवादी मानसिकता और फलसफे को तोड़ा जा सकता है. सख्त और बर्बर संरचना को ढहाया जा सकता है. वह वेश्या होने के साथ-साथ एक औरत है, ब-हैसियत एक औरत की अपनी आइडेंटिटी है, सेल्फ रिस्पेक्ट है और वह विदुषी भी यकीनन हो ही सकती है कम या ज्यादा, बेहतर या नाकाफी. इस पर तो बहस हो सकती है. मगर बने बनाये सड़ांध भरे मर्दवादी कायदों की जड़ में नमक घोला जा सकता है – रूढ़, रुग्ण, कुंठित ग्रन्थियों को आदमी के भीतर से खत्म करने का एक प्रयास तो किया ही जा सकता है. मैं भरोसे के साथ कह सकती हूँ कि यह एक गम्भीर चुनौती है. इसकाखामियाजा भी भुगतना पड़ सकता है, किसी एक के पक्ष में रहकर यह मुगालता होना भी ठीक न होगा कि इन्साफ के लिए यह लड़ाई लड़ने के खतरे कम नहीं हैं.
जब धर्म और सत्य की लड़ाई हो सकती है तो फिर एक कम्युनिटी जो दुनिया भर में फैली है उसके हक़ और इन्साफ के लिए एक नये धर्म और सत्य को स्थापित करने की लड़ाई भला क्यूँ लड़ी नहीं जानी चाहिए. मंटो ने एकबारगी कहा था “मैं सोसाइटी की चोली क्या उतारूंगा, जो है ही नंगी. मैं उसे कपड़े पहनाने की कोशिश नहीं करता, क्योंकि यह मेरा काम नहीं, दर्ज़ियों का काम है.”
लोकतंत्र में लोकरंजक भूमिकाएं अगर जरूरी हैं तवायफ जरुरी हैं, वेश्याएँज़रूरी हैं, तो इन औरतों की अस्मिताएं भी उतनी ही ज़रूरी है ये क्यूँ न हो. मानदा की डिमांड यही है. औरत की भूमिका हर रूप में ज़रूरी है तो उसकी अस्मिता, अभिमान, स्वाभिमान और अस्मिता भी उतनी ही ज़रूरी है.
इस काम के लिए दुनियाभर के हर वेश्यालयों की गहराई से पड़ताल करनी होगी. ज़रूरत है दुनिया भर में वेश्याओं की लिखी आत्मकथाओं को क्म्युनिकेटिव लैंग्वेज में लाने की. ज़रूरत है इन मसाइलों पर खुलकर फैसले करने की. ये ऐसे मसले हैं, जिन्हें जगजाहिर करते हुए उस पर हर तरीके से सोचने और काम करने की ख़ासा ज़रूरत महसूस की जा रही है. औरतों की अज्ञात, अपार संभावनाएं, सम्वेदनाएँ, जटिलताओं से होकर गुजरने का मतलब है एक बड़ी चुनौती से टकराना. ये दुनिया वेश्याओं से खाली नहीं हो सकती तो उनकी अस्स्मिताओं से कैसे बच निकले, इस फिराक में क्यूँ हैं सारी व्यवस्थाएं? जो अब तक नहीं हुई, इन मसलों पर बात करने की ज़रूरत अगर करनी पड़े तो ये भी होना ही चाहिए.
यह एक तरह से औरत के भीतरी इलाकों में चली आ रही सदियों की अनगिनत लड़ाइयों की इबारतें हैं, जिन्हें पढ़ने, समझने तक ही बंधकर सीमित नहीं रहना होगा. इसके हासिल को पाने के लिए नई-नई तकनीक और वैज्ञानिक सोच से गम्भीर प्रविधियों को लागू करने की ख़ासा ज़रूरत है. यह काम जिस दिन दुनिया के हिस्से में होना शुरू होगा- इकट्ठे युनाईट होकर, उसी लम्हे से हम एक मुकम्मल और तरक्कीपसंद इंसानी दुनिया को रच सकने की कूबत पैदा कर सकेंगे. वरना औरतों के जिस्म के बाज़ार की चकाचौंध में मॉडर्न सभ्यताएं औरतों के कत्ल से सने हाथ लिए इसी तरह हमारे बीच बनी रहेंगी. इंसानी ऊंचाइयों की जो असली दुनिया है वह जैविक, मानसिक, नस्लीय, गैरबराबरी से छुटकारा पाने के लिए सेन्स ऑफ ह्यूमर की डिमांड से भरी है, यह हो तो बेहतर है, हमारे दिलोदिमागमें जो सेंसर लगे हैं उन्हें खारिज कर नये तरीके से सोच की स्क्रीनिंग होनी चाहिए. औरतें जो वेश्याएँहैं मानो उनके पर काटकर उन्हें आज़ाद छोड़ा गया है, पर तो फिर भी निकल आयेंगे. हमें हीइन औरतों के भीतर अस्मिता की परवाज के परिंदों कीहिफाजत करनी होगी..
“तुम्हें मुझ से जो नफ़रत है वही तो मेरी राहत है
मेरी जो भी अज़िय्यत* है वही तो मेरी लज़्ज़त है
(*कष्ट, यातना, तकलीफ़)
सच कहूँ तो किताब का तर्जुमा करने की पेशकश दिसम्बर सन 2013 में हो गई थी लेकिन कुछ अड़चनें , नामालूम जाने कहाँ कहाँ से आईं और मुझे झकझोरती चली गईं. यही वजह है कि यह मजमून अब जाकर पूरा हो सका है. धीरे-धीरे यह रहस्य भी समझ सकी कि परफेक्शन हर दिन का अंत है और हर सुबह की शुरूआत. अब तक के मेरे अभ्यास का एक छोटा-सा प्रयास है यह तर्जुमा. उम्मीद है आपको यह किताब पसंद आयेगी. हाँ यह कहना जरूरी है किकिसी भाषा को जानने मात्र से कोई अनुवादक की यात्रा तय नहीं कर सकता और न ही अनुवादक मूल पथ का दावेदार हो सकता है बल्कि उस भाषा के मिजाज को पूरी तरह से आत्मसात करके ही रचना के साथ न्याय किया जा सकता है.
इन्हीं चंद ख्यालों के साथ – एक आशा, एक उम्मीद, गहरी आकांक्षाओं के बीच यह किताब अब आपके हाथ में है. आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार हमेशा रहेगा.ढेरों उम्मीदों, सपनों और चुनौतियों से भरी यह किताब एक नई दुनिया बनाने की तरफ बढ़ा कदम साबित हो इसी भरोसे के साथ …
क्रमशः
मुन्नी गुप्ता, असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय, कोलकाता-700073