प्रो. हरी नरके/अनुवाद-संदीप मधुकर सपकाले
महात्मा जोतीराव फुले किसान, व्यापारी, प्रकाशक, पुस्तक विक्रेता, आयुक्त और एक बड़ी कंपनी के प्रबंध संचालक थे | दिन-रात मेहनत करते हुए उन्होंने इस संपत्ति का निर्माण किया था | अपनी इस समग्र जमापूंजी को उन्होंने वंचित, दलित, बहुजन और स्त्रियों के उद्धार में खर्च किया था | पैरेलिसिस के अटैक के बाद उनके पास अपनी दवा के लिए भी पैसे नहीं बचे थे | डॉ. विश्राम रामजी घोले और भवालकर जैसे उनके कुछ मित्रों ने थोड़ी बहुत सहायता की | उस समय मामा परमानन्द ने महाराजा सयाजीराव गायकवाड से वैद्यकीय सहायता के लिए गुहार लगाई थी किन्तु उस समय महाराजा गायकवाड विदेश यात्रा पर गए हुए थे | अपनी विदेश यात्रा से जब तक वे लौटते तबतक बिना दवा और इलाज के २८ नवम्बर १८९० को जोतीराव की प्राणजोत बुझ गयी |उन्होंने ब्राह्मण विधवा से दत्तक लिए बच्चे को पढ़ा लिखाकर डॉक्टर बनाया था | इसी दत्तक पुत्र ने आगे चलकर सेना की नौकरी में देश-विदेश में नौकरी की थी | १८९७ में प्लेग के रोगियों की सेवा करते हुए सावित्रीबाई फुले का देहांत १० मार्च १८९७ में हुआ |

डॉ. यशवंत की मृत्यु भी १९०५ के प्लेग की रोकथाम के लिए काम करते हुए हुई | उनके उपरांत उनकी बेटी और पत्नी के उदर निर्वाह के लिए कुछ भी नहीं बचा था | इस तरह की विकट परिस्थिति में उन्होंने जोतीराव-सावित्री की किताबों को रद्दी में बेच डाला | घर में बचे थोड़े-बहुत गहने और बर्तनों को भी बेचना पड़ा | आखिर में उन्होंने जोतीराव-सावित्री का घर सौ रूपए में बेच डाला | इसके बाद ये दोनों खड़कमाल आली के फुटपाथ पर रहने लगे | आगे चलकर बेटी का विवाह एक विधुर के साथ हुआ लेकिन बहु को मात्र भीख मांगकर अपना गुजर बसर करना पड़ा | १९३३ में जब उसकी मृत्यु फुटपाथ पर हुई तब एक लावारिस के रूप में पुणे नगरपालिका ने उनका अंतिम संस्कार किया | जिस काल में यह ह्रदयविदारक घटनाएँ फुले परिवार के साथ घटित हो रही थी उस समय में सत्यशोधक आन्दोलन जेधे और जवलकर के कब्ज़े में था | बहुजन नेता केशवराव जेधे करोड़पति थे उनके जेधे मैन्शन जैसे भव्य बंगले से कुछ फर्लांग की दूरी पर जोतीराव-सावित्रीबाई की बहू भीख मांगकर जीवन जी रही थी और लावारिस मर जाने के बाद भी उनकी मदत के लिए कोई भी सामने नहीं आया | उस समय में बहुत से ऐसे बहुजन थे जो अमीर थे किन्तु उनके भीतर अपने बहुजनों की सहायता की कोई वृत्ति नहीं थी | आज भी कमोबेश बहुजनों की स्थिति यही है | चुनावों में और धार्मिक कार्यक्रमों पर करोड़ों रूपए बहा देनेवाले ये बहुजन लोग सामाजिक कार्यों के लिए दमड़ी भर भी खर्च करने के लिए आगे नहीं आते | जोतीराव फुले ‘पूना कमर्शियल एंड कांट्रेक्टिंग कंपनी’ के प्रबंध निदेशक यानी मैनेजिंग डायरेक्टर थे | इस कंपनी की ओर से उन्होंने टनल, पुल, इमारतें, राजभवन, बाँध, कैनल और रास्ते भी बनाये और इन निर्माण कार्यों के लिए उन्होंने उत्कृष्ट दर्जे की रेत, गिट्टी और चुने की आपूर्ति भी की | किताबों का प्रकाशन और उनकी सुलभ बिक्री भी की | हरी सब्जियों की बिक्री पुणे से मुंबई भेजकर की | सोने के गहने बनाने के लिए उपयोग की जानेवाली मोल्ड्स की बिक्री का व्यवसाय भी किया | इन अनंत व्यवसायों को उन्होंने यशस्वी तरीके से किया और जीवन निर्वाह के लिए आवश्यक संपत्ति की खरी कमाई की लेकिन यह सारी संपत्ति उन्होंने लड़कियों की पाठशाला, महिला छात्रावास, विधवाओं के लिए बालहत्या प्रतिबंधक गृह, किसान, दलित-वंचित-बहुजनों पर खर्च की | खुद के लिए उन्होंने इस संपत्ति से एक पैसा भी अपने पास नहीं रखा | जिस बहुजन समाज के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन त्याग दिया उस बहुजन समाज ने जोतीराव की औषधी और उपचार के लिए मदत की जानी चाहिए ऐसा एक क्षण भर विचार भी भला उनके मन में क्यों नहीं आया? उनकी बहू को मदत करने की सामान्य वृत्ति भी जेधे-जवलकर में क्यों नहीं थी ? क्या बहुजन समाज को कृतघ्नता का कोई शाप लगा हुआ है ? क्या वाकई में वंचित बहुजन समाज के पास कृतज्ञ बुद्धि की कोई परख है?
प्रोफेसर हरि नरके पुणे विश्वविद्यालय में महात्मा फुले चेयर के अध्यक्ष हैं. संदीप सपकाले हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा में प्राध्यापक हैं.