यौन-उत्पीड़न की जांच आरोपी मुख्य न्यायाधीश ही कैसे कर सकते हैं!

जया निगम

जैसे प्रधानमंत्री देश नहीं हो सकता है वैसे मुख्य न्यायाधीश ही न्यापालिका नहीं हो सकता है. अपने ऊपर एक पूर्व कर्मचारी द्वारा लगाये गये यौन उत्पीड़न मामले में ‘न्यायपालिका खतरे में है’ के जुमले के साथ सामने आये मुख्य न्यायाधीश ने इस संवेदनशील मामले में क़ानून और न्याय की पारदर्शिता के सिद्धांत के विरूद्ध कई निर्णय लिये और न्यायपालिका का पूरा मर्दवादी तंत्र उनके साथ खडा है, बता रही हैं जया निगम:

दो अक्टूबर, 2018 को शिकायकर्ता और उसके पति के साथ सीजेआई

शनिवार, 20 अप्रैल की सुबह देश की सर्वोच्च लोकतांत्रिक संस्था सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पर यौन उत्पीड़न के मामले के खुलासे के साथ होती है. स्क्रॉल, द वायर, द कारवां और लीफलेट जैसी अंग्रेजी वेबसाइटों के जरिये इस मामले की अपडेट लगातार देश के आम नागरिक के पास पहुंचती है और हमें पता चलता है कि देश के मुख्य न्यायाधीश, रंजन गोगोई के खिलाफ 22 सिटिंग न्यायाधीश के पास कथित पीड़िता की चिट्ठी पहुंची है, जहां उसने अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न और इसके बाद सिलसिलेवार ढंग से कानूनी और पुलिसिया तंत्र के टॉर्चर का जिक्र किया है कि न केवल वह खुद बल्कि उसके परिवार के कई सदस्य भी लगातार मुख्य न्यायाधीश के गुस्से का शिकार बन रहे हैं और अब मामला उनकी जान पर बन आया है.

ये मामला इतना महत्वपूर्ण क्यों है, इसको समझने के लिये ये जरूरी है कि हम ये जानें कि सुप्रीम कोर्ट में जेंडर के मामलों को सुलझाने के लिये बनी समिति के अंदर भी मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ शिकायत की जांच किय़े जाने का कोई प्रावधान नहीं है, ऐसे में ये मामला थोड़ा और उलझ जाता है जब खुद मुख्य न्यायाधीश आनन-फानन छुट्टी वाले दिन एक स्पेशल सुनवाई रख कर, न्यायाधीश अरुण मिश्रा,संजीवखन्ना और खुद को अपने ही ऊपर लगी यौन उत्पीड़न के मामले की सुनवाई के लिये बेंच घोषित कर देते हैं.

उनका ये कदम न्याय की मोटी से मोटी समझ रखने वाले के लिए भी पचाना इसलिये मुश्किल है कि कोई आरोपी अपने ही खिलाफ दर्ज शिकायत की सुनवाई कैसे कर सकता है? यदि ये बेंच गठित की गयी तो इस बेंच में किसी महिला न्यायाधीश को क्यों नहीं रखा गया? विशाखा एक्ट के तहत ऐसे किसी भी मामले की सुनवाई के लिये बेंच में महिला न्यायाधीश का होना या मेजॉरिटी में महिलाओं का होना जरूरी है.मुख्य न्यायाधीश की ये हड़बड़ी क्या कहती है?

दूसरी ओर एटॉर्नी जनरल केके वेनुगोपाल लगातार इस ऐतिहासिक मामले के विवरणों के सार्वजनिक किये जाने पर खुले तौर पर उन वेबसाइटों की आलोचना कर रहे हैं. बार एसोसिएशन के अध्यक्ष तुषार मेहता ने आज सार्वजनिक बयान देते हुए इन आरोपों को खारिज किया है और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर अपना अखण्ड विश्वास जताया है. जबकि न्यायिक प्रक्रिया अभी शुरू भी नहीं हुई है और प्रथम दृष्टया सारे विवरण सीजेआई के खिलाफ एक मजबूत शिकायत का आधार बन रहे हैं.

इस पूरे मामले में जहां एक भी महिला न्यायाधीश से अब तक कोई राय नहीं ली गयी हैं वहीं दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट के आला पुरुष अधिकारियों ने अन्य मीटू मामलों की ही तरह इस शिकायत को निराधार बताकर खारिज करने की मुहिम शुरू कर दी है.

ऐसे में हमें ये देखना होगा कि क्या सीजेआई, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति जो लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्थाओं के महामहिम हैं उन पर यौन उत्पीड़न, बलात्कार के आरोप, क्या हमेशा उनकी पॉवर आधारित राजनीति से संचालित होगा? क्या लोकतंत्र में किसी भी संस्था का महामहिम न्याय की मूल अवधारणा से ऊपर है?

क्या लोकतांत्रिक संस्थाओं का मर्दवादी वर्चस्व औरतों को लगातार यौन उत्पीड़ित बनाये रखने के पक्ष में जाता नहीं दिख रहा?  सार्वजनिक मंचों पर हो रहे बहस-मुबाहिसे पहले ही मीडिया के एक बड़ें हिस्से के सरकारी प्रचार तंत्र में बदल जाने की वजह से तमाम जरूरी मसलों से आम नागरिकों को काटने या लगातार गलत जानकारियां देकर गुमराह किये जाते रहने का माध्यम बन चुके हैं. जिसका सीधा इस्तेमाल महिलाओं की आवाज़ दबाने और उनकी न्याय की मांग को खारिज किये जाने के हक़ में किया जा रहा है. मोदी सरकार के पिछले साल मीटू के मामलों पर अपनाये गये रवैये का विश्लेषण इस मामले के लिहाज़ से बेहद ज़रूरी हो जाता है. 

गौरतलब है कि शिकायतकर्ता महिला बतौर जूनियर कोर्ट असिस्टेंट मुख्य न्यायाधीश के संपर्क में अक्टूबर 2016 में आयी थी. इत्तफाक से यौन उत्पीड़न के आरोप की तारीखें 10 और 11 अक्तूबर 2018 हैं. ये वही समय है जब पूरे देश से एक के बाद एक यौन उत्पीड़न के मामले #मीटू के जरिये सार्वजनिक हो रहे थे. सोशल मीडिया पर लिखी गयी इन तमाम आपबीतियों का न तो अब तक भारत सरकार द्वारा कोई कानूनी संज्ञान लिया गया और न ही महिलाओं की इस ऐतिहासिक मुहिम को कानूनी और प्रशासनिक तरीके से संबोधित करने की कोई कोशिश सरकार के द्वारा की गयी.

सबसे अहम बात ये कि इस मामले की जानकारी इस साल की शुरुआत यानी जनवरी माह से ही भारत सरकार के पास मौजूद है बावजूद इसके अब तक इतने जरूरी मसले पर सरकार के कानूनी मंत्री रविशंकर प्रसाद समेत पीएमओ और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुप्पी साध रखी है. मामला सार्वजनिक होने के बाद भारत सरकार समेत देश के वरिष्ठतम कानूनी और संवैधानिक विशेषज्ञों के बीच संदिग्ध चुप्पी छाय़ी हुई है.

शिकायकर्ता द्वारा सुप्रीम कोर्ट के 22 जजों को लिखा गया पत्र

हमें सोचना होगा कि अगर मुख्य न्यायाधीश पर ये आरोप यौन उत्पीड़न का न होकर यदि दहेज या हत्या के किसी आरोप का होता तो ऐसे मामले में एक निश्चित संवैधानिक या कानूनी व्यवस्था इस देश के अंदर है या नहीं?

ठीक उसी तरह यौन उत्पीड़न या बलात्कार के आरोपों के मामलों की सुनवाई के लिये भी एक निश्चित कानूनी कार्यप्रणाली हमारे पास होनी चाहिये. देश की सर्वोच्च संस्था के आला पदाधिकारी भी न्याय के परे नहीं खड़े हो सकते वो अपने ऊपर दर्ज संगीन अपराधों की सुनवाई खुद अपने पसंदीदा लोगों के साथ करके उसे न्याय के रूप में आने वाली पीढियों के लिये एक नज़ीर बना दें.

जया निगम फ्रीलांस जर्नलिस्ट हैं.

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