
आम्रपाली – 1
नहीं चुनतीं अपनी
जिन्दगी की डोर
बना दी जाती हैं पतंग
जिन्हें उड़ाया जाता है
अलग-अलग छतों पर
आँधियों में झंझोड़कर
तीलियों में फंसा कर
चीर दी जाती हैं
बिहरा दी जाती हैं
करके तार तार
और खींच लीं जाती हैं
झटके से
गोल रोल बनाकर
रख दिया जाता उन्हें
अंधेरे घुप्प कमरें में
बार बार उधेड़ने के लिए
आम्रपाली – 2
मस्तक गिरवी पैर पंगू
छटपटाता धड़ हवा में
त्रिशंकू भी क्या
लटके होंगें इसी तरह शून्य में ?
रक्तीले बेबस आँखों से
क्या देखते होंगे इसी तरह
दो कदम रखने खातिर
जमीन को ?
और जमीन मिलते मिलते
फिसल जाती होगी तलवों से
हो जाती होगी उतनी ही दूर
जितनी करीब होगी कभी
ख्वाबों में तमाम कोशिश के बाद भी

उसे तो रोने की आदत है
रोना क्या इतना बुरा है अम्मा !
जो रोज खड़ी कर दी जाऊँ चौराहे पर ?
राधा और सीता के रोने
पर लिखे गए कितने ग्रंथ
अहल्या, सबरी, यशोधरा
शकुन्तला को क्यों किया
जाता है याद
द्रौपदी भी तो रोयी थी
भरी सभा में अम्मा
कुन्ती रोती रही आजीवन
इतना ही बुरा था उनका रोना
फिर वे ही आदर्श क्यों हैं अम्मा !
नानी को देखा रोते हुए
तुम कभी हँसी नहीं
क्या जिन्दगी का जंग लड़ने से
पहले रोना जरूरी होता है अम्मा !
मैं भी रो रही हूँ
झाडियों में चीखती आवाजों से
तेजाब से झुलस रहा है बदन
अपनों से खार खायी
अधूरे प्रेम की दास्तान से
और सबसे अधिक
नानी और तुम्हें रोता देखकर !
फिर मेरा मजाक क्यों उड़ाया
जाता है अम्मा !
कोई सामने से
कोई खींसे निपोरकर
कोई मुँह छुपाकर
कोई तमाचा मारकर
सब कहते हैं इनसे उनसे
“उसे तो रोने की आदत है” !