‘तिवाड़ी परिवार’ में जातिभेद और छुआछूत बचपन से देखा

इस सीरीज में सवर्ण स्त्रियाँ लिखें, जिसमें जाति आधारित अपने अथवा अपने आस-पास के व्यवहारों की स्वीकारोक्ति हो और यह भी कि यह कब से और कितना असंगत प्रतीत होने लगा. आज आप क्या सोचती और व्यवहार करती हैं . राजस्थान के ब्राह्मण परिवार की अनुपमा तिवाड़ी बता रही हैं कि उनके ब्राह्मण परिवेश में जातिवाद और छुआछूत किस कदर हावी था, और इसमें महिलायें आगे थीं:

अनुपमा तिवाड़ी
कवयित्री, कहानीकार व सामाजिक कार्यकर्ता जयपुर राज. सम्पर्क:
anupamatiwari91@gmail.com

मेरा जन्म राजस्थानी ब्राह्मण परिवार में हुआ. जिसमें भी मेरा परिवार अन्य ब्राह्मणों में भी अपने को सबसे ऊँ चे बताने वाले गौड़ ब्राह्मण और उसमें भी आदि गौड़ यानी वे ब्राह्मण जो कि शुरू से ब्राह्मण रहे हैं का वंशज मानता रहा है. मेरे परिवार ( माँ के परिवार) में अंतरजातीय विवाह को कोई जगह नहीं थी और न है क्योंकि परिवार में रक्त की शुद्धता को बचाए रखना है. खासतौर से मेरी माँ सबसे ज्यादा जाति-गुरुर से भरी रहती हैं. परिवार में पिछली चार पीढ़ियों में भी सब काफी पढ़े लिखे थे. किसी – किसी गाँव में तो हमारे रिश्तेदार गाँव के गुरु या सबसे ज्यादा पढ़े – लिखे लोगों में गिने जाते थे. पीढ़ियों से सबके नाम भी ऐसे थे जो परिवार को गौरान्वित करते थे. मेरे घर में आने वाले धोबी, माली, गुर्जर आदि जाति के लोग नीचे बैठते थे और हम बच्चे भी उनका नाम ही लेते थे चाहे वे उम्र में हमसे बड़े थे. ट्रेन, बस में या आसपास कहीं जब मेरी माँ के पास कोई दलित समाज की महिला आ कर खड़ी हो जाती या बैठ जाती तो मेरी माँ या तो वहाँ से दूर सरक जातीं या उसे घृणा भरी निगाहों से देखतीं. मैं उस समय कुछ समझ नहीं पाती थी कि जाति व्यवस्था को ले कर ये भेदभाव क्यों है ? पर मुझे मेरी माँ का उन्हें यूँ देखना अच्छा नहीं लगता था. मेरे घर में मेरी माँ कुछ इस प्रकार की कई सारी कहावतें भी बोलती थीं जैसे कि –
“चिमारी को काकी खई, तो चौका में आ बैठी”
मतलब कथित नीची जाति वाली औरत को चाची कह दिया तो रसोई में आ कर बैठ जाएगी. रसोई ब्राह्मण परिवारों में घर का सबसे पवित्र स्थान माना जाता है. जातसूचक ‘चमार, चूड़ा’ जैसे विशेषण भी घर में बहुत प्रचलित थे.

पढ़ें: उस संस्थान में ब्राह्मणों की अहमियत थी

1989 में मैं,जयपुर की कच्ची बस्तियों में वैकल्पिक शिक्षा के लिए कार्यरत एक संस्था से जुड़ी.वहाँ शिक्षा का काम हमें वंचित समुदाय के बच्चों के साथ करना था. उस दौरान हमारे शिक्षक प्रशिक्षण में शिक्षा को शैक्षिक दृष्टि से समझने के लिए उसके सामाजिक घटकों पर भी काफी चर्चाएँ, प्रशिक्षण का हिस्सा थीं.तीन महीने के शिक्षक प्रशिक्षण के दूसरे महीने हम आधे दिन बस्तियों में जाते और फिर ऑफिस में तय समय पर आ कर अपने अनुभवों को साझा करते.

एक दिन मैं वाल्मीकि समुदाय की बस्ती से जा कर आई. इस समुदाय की बस्तियाँ अमूमन शहर से दूर प्राय: गंदे नाले या कचरे के पास होती हैं. जयपुर शहर अब काफी फ़ैल गया है ऐसे में यह बस्ती बीच में आ गई है इसलिए इस जगह की स्थान के हिसाब से अब काफी कीमत है लेकिन इस विशेष जाति समुदाय की वजह से तथाकथित कोई भी सवर्ण जाति का व्यक्ति वहाँ अपना घर बनाने के बारे में सोच भी नहीं सकता. खैर… मैं वापस मुद्दे पर आती हूँ. तो मैंने अपने अनुभव में बताया कि “आज तो मैंने एक राजपूत घर में पानी पीया” इस बात पर हमारे समन्वयक बोले आपको क्या पता कि वो राजपूत हैं ? मैंने कहा“उनके घर के बाहर उनके नाम के आगे राजपूत लिखा था”. उन्होंने कहा आपकी क्या जाति है? मैंने बड़े ही ठसके से कहा – हम तो ब्राह्मण हैं. उन्होंने कहा “ब्राह्मण तो नीचे होते हैं”. मैंने कहा“नहीं ब्राह्मण सबसे ऊँचे होते हैं”. इस पर हमारे और साथी मित्र भी कुछ – कुछ बोले. यह चर्चा किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँची लेकिन इसने जैसे दिमाग पर एक हथौड़ा– सा मारा कि कौन ऊँचा है और कौन नीचा ? और क्यों ? और कैसे ?

( आज सोचती हूँ कि उस समय मैं कितनी मासूम थी कि यह भी नहीं समझ पाई थी कि कोई वाल्मीकि समाज का व्यक्ति नाम के आगे राजपूत लिख कर अपनी जाति छुपाने की कोशिश नहीं कर सकता क्या? बादमें समझ आया कि दलित समाज के कई लोग अपनी जाति इसलिए छुपाते हैं   क्योंकि उन्हें आम समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है). ऐसे अनेक सामाजिक मुद्दों पर जब चर्चाएँ होतीं तो मैं सोचती कि इतनी अच्छी बात तो मैंने कभी नहीं सुनी. कभी मेरी मम्मी को ट्रेनिंग में लाऊँगी. वो चर्चाएँ, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से शिक्षा को समझने, बराबरी के मूल्य से दुनिया को देखने, प्रथाओं, परम्पराओं और संस्कृतियों पर सवाल उठाने वाली होतीथीं. कभी – कभी मुझे लगता कि अरे ! मैंने तो सोलह साल यूँ ही पढ़ाई की. मेरी असली पढ़ाई तो अब शुरू हो रही है. मेरी मम्मी को जब कभी मैं घर जा कर बताती कि आज मैंने बस्ती में हरिजनों (हालांकि यह शब्द कानूनी रूप से अवैध है, लेकिन हमारी जाति-चेतना के कारण आम प्रचलन में है.’  के घर पानी पीया तो वे तंज कसते हुए कहतीं “तुम्हारा क्या, तुम तो महान हो”.जबकि मैं तो कभी – कभी बच्चों के आग्रह पर उनके घर खाना भी खा लेती थी लेकिन घर पर सिर्फ पानी पीने तक  ही बताती थी.

चार वर्ष के बाद मेरे अपने घर में इस समुदाय के बच्चे भी आने लगे. वे गद्दे पर बैठते तो कहते दीदी, आपके गद्दे कितने मोटे–मोटे हैं. इन्हीं बच्चों में से एक बच्ची दौलत ने मेरी पाँच माह की बेटी के मुँह में अंगुली डालकर बताया था कि दीदी, इसके चावल जैसा दांत उग रहा है. उस समय हम कितना खुश हुए थे.बच्चे खुश होते थे हमारे घर आ कर. मैं जब बच्चों के साथ काम करती थी तो स्कूल के सामने ही इसी समुदाय की एक महिला अपने घर में मेरी छोटी सी बच्ची को रखती थीं.

इसके दस साल बाद मुझे एक्शन एडजयपुर में काम करने का मौका मिला तो वहाँ मैं विभिन्न प्रकार से वंचित समुदाय के बच्चों के साथ काम करती थी. हमारी स्टेटहेड के. अनुराधा का अपने काम और वंचितों के साथ रिश्ता मुझे बहुत ही प्रेरित करने वाला था. जब मैं राजस्थान के सीकर जिले के शहर में जाती तो कालूराम हठवाल के घर पर रुकती. शुरुआत में वो मेरे लिए बाहर से कोल्ड ड्रिंक लाते फिर मैं मना करते हुए कहती कि नहीं, मैं चाय पी लूंगी.कभी – कभी कालूराम जी के यहाँ खाना भी खाती. उनका परिवार कोशिश करता कि वेमेरे लिए अच्छा खाना बनाएँ. मैं धन्यवाद् देती और जितने पैसे का खाना मैं बाजार में खाती उतना पैसादेने लगती तो वे बिलकुल मना कर देते और कहते दीदी, हम भी तो खाते हैं क्या फर्क पड़ता है, जबकि उनकी आर्थिक स्थिति बहुत ठीक भी नहीं थी.

पढ़ें: हां उनकी नजर में जाति-घृणा थी, वे मेरे दोस्त थे, सहेलियां थीं

एक बार इसी बस्ती में मैंने देखा कि एक व्यक्ति जहाज पर शौचालय की सफाई का काम करते थे और रिटायर होने के बाद जब वे अपने घर आए तो उन्होंने अपने घर के बाहर एक सुन्दर सा मंदिर बनवाया. एक दिन एक पड़ौसी से उनकी लड़ाई हो गई तो उस नेपता है क्या बोला ? “अरे ! बड़ा बनता है, जहाज पर काम कर के आया है, वहाँ भी तो टट्टी ही साफ़ करता था”. एक ही समाज में यदि कोई बेहतर काम करके, कुछ अच्छा बनने की कोशिश करे तो भी उस समाज के लोग उसे उसकी औकात बताते रहते हैं कि तू हमसे ज्यादा मत बन.

हमारी संस्था ने इसी समाज की बालिकाओं के छह – छह महीने के दो आवासीय शिविर किए. शिविर के समापन समारोह में प्रोफेसर श्यामलाल जैदिया को भी आमंत्रित किया. उन्होंने अपने उद्बोधन में बताया कि मैं भी आपके ही समाज से हूँ लेकिन मेहनत करके आज जोधपुर यूनिवर्सिटी में वाइस चांसलर पद से रिटायर हुआ हूँ. बचपन में मैं इसी यूनिवर्सिटी में मेरी माँ के साथ मैला ढोने (शौचालय साफ़ करने) जाता था. श्यामलाल जी की खूबसूरती, संयमित आवाज़ बहुत आकर्षक लग रही थी. मैंने ‘जूठन’ कहानी के लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि को सुना. सुशीला टांकभौरे का स्त्री, विकलांगता और जाति का तिहरा दंश पढ़ा. जब ‘सत्यमेव जयते’ का अस्पृश्यता  वाला एपिसोड देखा तो उसेदे खते – सुनते हुए मेरे आँसूं जार – जारबहने लगे. मैंने एक छोटा सा निर्णय लेने का सोचा कि मैं अपने नाम के आगे ये ‘तिवाड़ी’उपनाम हठा देती हूँ. बहुत सारी घटनाओं को देखते – सुनते मुझे जातिवाद से नफरत हो गई थी. लेकिन फिर बहुत सारे विचार मन में आए कि अब काफी साराइसी नाम से लिख छप चुका है, नौकरी और अन्य सभी दस्तावेज इसी उपनाम से हैं, अब नौकरी भी कुछ ही साल की बची है और जीवन भी. तो अब उपनाम चाहे यही रहे लेकिन छोटी–छोटी कोशिशें करती रहूँ.

मैं कभी–कभी अपने घर के बाहर सफाई करने वाली महिला को चाय पर घर में बुला लेती, नौकरी के चलते किराये के घर में सड़क पर सफाई करनेवाली महिला को घर में बुलाकर चाय- शरबत पिलाती. मेरी मकान मालकिन उसकी मुझे जाति के बारे में समझाती तो मैं उन्हें चुपके से घर बुलाने लगी.मुझे लगता कि एसा करने से उनमें तो अपनी जाति को नीचे देखने का भाव कुछ कम होगा. बातचीत में वे कहतीं सब आदमी एक जैसे ही होते हैं लेकिन समझ – समझ की बात है. मैं डरती भी कि मेरी मकान मालकिन मुझसे घर खाली न करवा ले क्योंकि घ रकिरायेपर देते समय उन्होंने मुझसे मेरी भी जाति पूछी थी और फिर बहुत खुश हो कर घर दे दिया था.

मैं नौकरी के चलते कई बार जब सरकारी स्कूलों में जाती और जब बच्चे मुझसे घुल मिल जाते और जब मैं काफी सारी बात करने के बाद कहती कि किसी को कुछ पूछना है, इस विषय के बारे या मेरे बारे में या किसी भी बात के बारे में तो पूछ सकते हैं. तो कई मर्तबा बच्चे सकुचाते हुए मुझसे पूछते, दीदी आप कौन के हो ? मैं समझ तो जाती फिर भी,नासमझ बनते हुए उनसेपूछती कौन के मतलब ? तो बच्चे कहते दीदी, मतलब आपकी जात / जाति क्या है ? तो मैं कहती कि इससे क्या फर्क पड़ता है कि मैं बैरवा हूँ या कोली हूँ या जैन हूँ या शर्मा हूँ. मेरी बात पर इसका फर्क पड़ेगा क्या ? इतनाबहुत है न कि मैं औरत हूँ, मेरी औरत जात है जो तुमको दिख रही है अब बैरवा, जैन जात तो तुमको कैसे दिखेगी बताओ ? जब दिखे नहीं तो काय की जात ? बच्चे चुप हो जाते. हो सकता एक – दोबच्चोंको ये बात समझ भी आती हो.

जब मैं स्कूटर से अलग–अलग स्कूलों में जाती तो किसी बूढ़े आदमी से रास्ता पूछती तो पहले तो वो रास्ता बताते फिर उनका अगला शाश्वत सवाल होता “बाई कुण केछे” ? एक बार मैंने एक बुजुर्ग व्यक्ति को कहा कि “मेरी कोई जात नहीं है” तो वो नाराज़ हो गए और बोले“ या तो होवे ही कोण कि जात कोण, जात तो होए सबकी”. सच में कई बार मुझे इस जात का ठप्पा धर्म से भी गहरा लगता है और है भी. आप जाति जैसी अमूर्त चीज से कभी मुक्त नहीं हो सकते, कैसी चीज है न ये!

विवाह से पहले मैं भी धार्मिक कर्मकांडी थी. उसके कुछ वर्ष बाद तक मेरे जीवन में ये कर्मकांड भी चलते रहे और अंगारे से जलते सवाल भी धधकते रहे. एक समय आया जिसमें मेरे जीवन में इन कर्मकांडों की रोशनी मंद पड़ती गई और धधकते अंगारे ज्वाला बन, मेरे जीवन को रौशन करने लगे. मेरे जीवन में इन सवालों और इन पर लिए निर्णयों ने मुझे मजबूत शख्सियत बनाया, मुझमें साहस भरा, मुझे बेबाक और बिंदास बनाया.मंदिर, मस्जिदों कर्मकांडों, जाति – धर्म की व्यवस्थाओं और महिलाओं के लिए बनेवैवाहिक चिह्नों, व्रत उपवासों पर आधारित बनी कुरीतियों पर मैं प्रहार करने लगी, इन ढकोसलों की धज्जियाँ उड़ाने लगी. ये सवाल मेरी कहानियों और कविताओं की विषयवस्तु बने. जब मैं चेतना गीत गाती तो समानता का एक – एक शब्द मेरे अन्दर उतरता जाता. मुझे कबीर भाने लगे.मैं गाँधी, नेल्सन मंडेला, सावित्रीबाई फुले, शीतल साठे, हिमांशु कुमार, मेधा पाटेकर, सरीखे अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओंकी मुरीद होती गई. आज मैं सोचती हूँ कि मेरे बच्चे किसी भी जाति धर्मके व्यक्ति से दोस्ती कर सकते हैं, शादी कर सकते हैं.अब तीस साल पीछे मुड़कर देखती हूँ तो अपने को आज एक नई अनुपमा पाती हूँ.

मुम्बई की डॉक्टर पायल तडावी की आत्महत्या के संदर्भ में हम एक सीरीज के तहत यह तथ्य स्त्रीकाल में सामने ला रहे हैं कि खुद जाति का बर्डन ढोती, अपने लिए ब्राह्मणवादी पितृसत्ता की व्यवस्था में उपेक्षित ऊंची जाति की महिलाएं अन्य जाति और धार्मिक पहचान वालों के साथ क्रूर और अमानवीय व्यवहार करती हैं. हम इस सीरीज में ऐसे अनुभवों को प्रकाशित कर रहे हैं. नाइश हसन और नीतिशा खलखो का अनुभव हम प्रकाशित कर चुके हैं. ये अनुभव सामने आकर एक खुले सत्य ‘ओपन ट्रुथ’ को एक आधार दे रहे हैं-दलित, ओबीसी, आदिवासी, पसमांदा स्त्री के रूप में ऐसे अनुभव के सीरीज जारी रहेंगे.

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