भूमिका द्विवेदी अश्क
सन् 2010/11 में दिल्ली आकर भले ही मेरा दायरा बढ़ गया था। कई जगहों की आजीवन सदस्यता मुझे एक साथ मिल गई थी। कर्नाड साहब से इंडियन हैबिटैट सेंटर, लोधी रोड, में चल रहे दक्षिण भाषाई फेस्टिवल के दौरान किसी फिल्म स्क्रीनिंग के दौरान दूसरी बार सामना हुआ। ये सन् 2011/12 के आसपास की बात थी। अब तक मैंने जनेवि में (‘बहरूप’ और ‘सहर’ थियेटर से लगातार बतौर ग्रुप-सदस्या जुड़कर) गिरीश साहब को बाक़ायदा सेलेबस और थियेटर-जीवन में बारीक़ी से पढ़ भी लिया था। ‘ययाति’, ‘हयवदनम्’, ‘तुग़लक़’ ‘नागमंडल’ जैसे नाटकों को न सिर्फ़ पढ़ा, बल्कि कई बेहतरीन मंचन देखे भी, जनेवि प्रांगण में उनपर अभिनय भी किया। उनकी कई बेजोड़ फिल्में देखकर उनकी मुरीद बन चुकी थी।
हैबिटैट सेंटर पर भीषण भीड़ के बाद भी पाँच-सात मिनट हम लोगों की बंगलौर, मुम्बई और दिल्ली शहरों और वहाँ बनने वाली फिल्मों सहित उनकी कथानक और पटकथाओं पर बात हुई। मैं उनकी बेधड़क तारीफ़ करती रही, वो निर्भया-काण्ड पर अफ़सोस जताते रहे।
मुझे क़ाबिल और बहादुर बताते रहे। मैंने उनसे हर बार बात करके ये अच्छी तरह जान-समझ लिया कि गिरीश कर्नाड साहब के लिये सबसे सहज सम्प्रेषणीय भाषा अंग्रेजी थी, कोंकणी, कन्नड़ या हिंदी से कहीं ज़्यादा। जबकि उन्हें सन् 1998 का कन्नड़ भाषा के लिए सुप्रतिष्ठित भारतीय ज्ञानपीठ नवाज़ा जा चुका था।
लेकिन बात बहुत पुरानी नहीं, सन् 2014 की जुलाई माह में, जब नीलाभ इलाहाबाद के सिविल लाइन्ज़ में अपने भव्य बुक शोरूम, “नीलाभ प्रकाशन” में इत्मीनान से बैठे हुये थे। दिल्ली शिफ्ट होने के चलते उनका इलाहाबाद और उनके उसी दफ्तर जाना पहले से कम हो गया था। चूंकि हमारा विवाह हुये भी अभी ज़्यादा समय नहीं बीता था, इस लिए भी उनके आगमन की ख़बर सुनकर उनके मित्रगण हम दोनों से मिलने इसी ऐतिहासिक शोरूम में घेराबंदी कर लेते थे।
उस रोज़ इतिहास विषय के अध्येता और प्रोफेसर ललित जोशी नीलाभ जी के साथ बगल के कॉफी हाउज़ से मंगवाई हुई कॉफी की चुस्कियाँ ले रहे थे। मैं वहीं ऊपरी हिस्से में बनी छत पर बैठी दिल्ली से लाई कुछ किताबें सजा रही थी, कुछ अलट पलट रही थी।
ललित जी मेरे अंग्रेजी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.ए. जानकर खुश हो रहे थे। आगे की पढ़ाई-लिखाई के लिए मेरा दिल्ली, ज.ने.वि. में जाना भी उन्हें बहुत अच्छा लग रहा था। बातचीत के दौरान उन्होंने नीलाभ से मेरी पारिवारिक पृष्ठभूमि भी जाननी चाही। पिता और पितामह का नाम जानने पर उन्होंने पूरे परिवार के साथ भली वाक़िफ़ियत बताई। जोशी जी के रवाना होने के बाद नीलाभ ने मुझसे कहा, “…ललित तुम्हें लाख नेता जी की सुपुत्री और जज-वकील की सुपौत्री बताता रहे, लेकिन मुझे तो तुम गिरीश कर्नाड की बिटिया लगती हो.. माथे तक फैले तुम्हारे घुंघराले बाल इसी बात का सबूत है.. सच…”
मैंने हाथ में ली हुई डी.एच. लॉरेंस की मोटी किताब (उपन्यास ‘सन्स एण्ड लवर्स’) नीलाभ के ऊपर उछाल दी, और हंसते हुये कहा, “मियाँ ज़बान संभाल कर बात करो.. होगा इलाहाबाद बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों का शहर.. मत भूलना, आपको यहाँ की गुण्डई से भी इन्कार नहीं होगा…”
नीलाभ ने किताब कैच कर लिया, और ठहाकों मे खो गये।
फिर मैंने उन्हें आगे बताया, “आपका जुमला मैं पहले भी अपने लिए सुन चुकी हूँ.. इविवि, जनेवि और दिल्ली यूनिवर्सिटी में भी लोग मुझे शक्ल-सूरत से गिरीश कर्नाड सर जैसा कहते हैं। मैं उनका आत्मा से सम्मान करती हूँ… वो सुंदर भी लगते हैं.. संबंध तो बस इतना ही है उनसे..”
बात आई गई हो गई।
और पीछे का याद करती हूँ तो, सन् 2003 से 2006 के बीच मेरा बंगलौर आना जाना लगातार होता था। अशोक टाउन नाम के मोहल्ले में माया नाम के अपार्टमेंट में इलाहाबाद शहर में ‘देवप्रयाग शिक्षण संस्थान’ के अभूतपूर्व संस्थापक प्रोफेसर गिलबर्ट बोस, सेवाओं से निवृत्त होकर सपत्नी रहा करते थे।
जो यहीं प्रधानाध्यापक भी रहे।
इस संस्थान में मेरी माँ ने क़रीब पन्द्रह सालों तक संस्कृत पढ़ाया था। नया कटरा के राम अधार यादव वाले मकान से ठीक पहले मकान में जन्मे प्रोफेसर गिलबर्ट बोस मूलतः इलाहाबाद के ही थे, जिनकी माता जी ने आजीवन शहर के मेरी वानामेकर इण्टर कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाया था। मेरे अंग्रेजी विभाग के माननीय मानस मुकुल दास सरीखे विद्वान उनके तत्कालीन पड़ोसी भी रहे, जो आज भी स्नेह बरसाते हुए यदा कदा फोन पर बातें करते हैं। इलाहाबाद शहर का ये इलाका पहले बंगाली और अंग्रेजों का मोहल्ला जाना जाता था, बगल में लॉर्ड मम्फोर्ड का बसाया मम्फोर्डगंज का नाम भी इस बात की तस्दीक करता है, जहाँ मेरा बचपन बीता। प्रोफेसर गिलबर्ट का मकान कालान्तर में मुन्ना महाराज नाम के पुरोहित का हुआ, जो मृत्यु पूर्व निगम चौराहे में बस गये थे।
गिलबर्ट सर के दोनों बेटे, एक मालदीव में, दूसरा मुम्बई में बसा हुआ था। बहुत अकेला महसूस करते उन बोस-दंपति को बेटी का बड़ा चाव था, जिसकी कमी वो दोनों मेरी परवरिश और सानिध्य से पूरी कर रहे थे। ये दंपति मुझे इलाहाबाद से ज़्यादा बंगलौर में रखते थे।
यहीं बंगलौर के सुपरिचित मार्केट महात्मा गाँधी रोड पर सुप्रसिद्ध तीन मंजिला ‘गंगाराम एण्ड संस स्टेशनरीज़’ से बाहर निकलतेे हुये, मैंने पहली बार गिरीश कर्नाड नाम के उस बेहद मनमोहक, विनम्र और विनोदी व्यक्ति को देेखा था। मेरी उम्र बहुत कम थी, मैं बेसब्री से फौरन उनके पास पंहुची और पूछा, “आप वहींं इंटैलीजेंट आदमी हैं ना, जो टर्निंग-पॉइंट में आते हैं… और मालगुड़ी डेज़ में भी.. है ना..”
“इंटैलीजेंट का तो पता नहीं, हाँ आदमी, मैं वही हूँ.. ये शोज़ तुम जैसे अच्छे बच्चों के लिए ही बने हैंं..” वो मुस्कारते हुये मेरे सर पर हाथ में ली हुई एक कॉपी से तड़ी मारकर बोले।
मैंने चिड़ककर कहा, “…मैं कोई बच्ची नहीं हूँ.. मैं बहुत पढ़ती हूँ.. चाहे तो गिलबर्ट सर से पूछ लीजिये.. सीरियल तो मैं टाइमपास के लिए देख लेती हूँ…” मैंने दुकान से बाहर आते गिलबर्ट सर की ओर इशारा करके बताया।
बंगलौर में प्रोफेसर गिलबर्ट के पड़ोसी
गिरीश साहब उस दिन भी हाफ-स्लीव्स धवल शर्ट, सुनहरी किनारे वाली लुंगी बाँधे माथे पर हल्का सा सफेद चंदन लगाये अपनी कार के पास खड़े थे। ड्राइवर के दरवाज़ा खोलने के बावजूद वो गिलबर्ट सर से बड़े प्रेम से हाथ मिलाकर मिले। दोनों ने दो मिनट कन्नड़ भाषा में बातें कीं और वो मुझे एक नई (संभवतः “गंगा राम…” से ही खरीदी) कलम बतौर तोहफा देकर निकल गये। उनके जाने के बाद मैंने प्यार से पेन को चूमकर गिलबर्ट सर से पूछा, “आप लोग क्या बातें कर रहे थे..”
उन्होंने हल्का सा बताया, “तुम्हारा परिचय और कक्षा पूछ रहा था.. तुम्हारी बहादुरी की तारीफ भी कर रहा था.. और सरकार की बुराई भी..”
“सारे बड़े लोग सरकार की बुराई ज़रूर करते हैं ना.. सर आप सरकार से कभी मत मिलियेगा । बस इन्हीं से मिलियेगा, हर बार..” मैं बंगलौर की ट्रैफिक में कहीं विलुप्त हुई उनकी कार को चमकती आँखों के साथ खोजते हुये और पेन को अपने बस्ते में सहेजते हुये बोलती रही।
दिनांक 10 मई 2019 की संझा को उस ग़ज़ब मेधावी और बेहद ज़मीनी मानवीय शख़्सियत की रुख़्सती सुनकर असहनीय पीड़ा महसूस कर रही हूँ। और बहुत दुखी दिल से उनसे हुई मुलाक़ातें याद कर रहीं हूँ।
नीलाभ से विवाह के बाद भी मैं उनसे नीलाभ के साथ मिलकर “उनकी बिटिया जैसी दिखने” वाली बात बताना चाहती थी, जो कभी संभव ना हो सका।
न आगे कोई संभावना विधाता ने छोड़ा ही है। निस्संदेह सभी की तरह गिरीश सर से मुझे बहुत लगाव था। कुशल अभिनेता यशपाल शर्मा और प्रतिभाशाली निर्देशक भानु भारती जी के अनुरोध पर फिरोजशाह कोटला में मंचित ‘तुग़लक’ के साथ उनके लिखे सभी नाटकों पर कई और मंचन भी दिल्ली में बारम्बार देखे।
अनेक दुर्लभ उपलब्धियों को अपनी झोली में समेटे हुये दुनिया से चुपचाप विदा लेकर जाने वाले कर्नाड सर के पत्रकार बेटे रघु कर्नाड ने जब मीडिया को अगले दिन उनकी इच्छानुरूप शांति और भीड़भाड़ रहित अंतिम संस्कार करने की बात बताई, ये भी उस शख़्सियत की इंतहाई सादादिली और ग़ज़ब सादगी का सबूत देती है।
उनकी पत्नी श्रीमती सरस्वती कर्नाड, जिन्हें गिरीश सरस पुकारते थे, जो कि पारसी माँ की बेटी रहींं, उनसे विवाह भी कर्नाड साहब के व्यक्तिगत जीवन में कथनी और करनी के भेद को मिटाता दिखाई देता है।
गिरीश कर्नाड को 1978 में रिलीज हुई फिल्म ‘भूमिका’ के लिए नेशनल अवॉर्ड मिला था।
नीलाभ जी ताउम्र मेरे नाम पर भी, गिरीश के प्रभाव के लिए छेड़छाड़ करते रहे।
गिरीश कर्नाड को हालिया कुछ कर्मशियल सिनेमा (2012 एक था टाइगर, 2017 टाइगर ज़िंदा है) में भी काम करने के लिए भी जाना जाता है, जिस वक़्त वो गंभीर बीमारी में भी वास्तव में श्वास नली लगाकर अभिनय कर रहे थे, जो उनकी अदम्य जीजिविषा का परिचय देता है। गिरीश सर ने 1970 में कन्नड़ फिल्म ‘संस्कार’ से अपना एक्टिंग और स्क्रीन राइटिंग डेब्यू किया था। इस फिल्म ने कन्नड़ सिनेमा का पहला “प्रेजिडेंट गोल्डन लोटस अवार्ड” जीता था। बॉलीवुड में उनकी पहली फिल्म 1974 में आई ‘जादू का शंख’ थी। गिरीश ने बॉलीवुड फिल्म निशांत (1975), शिवाय और चॉक एन डस्टर में भी काम किया था। गिरीश का जन्म एक कोंकणी परिवार में हुआ था । कर्नाड ने 1958 में धारवाड़ स्थित कर्नाटक विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन किया। इसके बाद वे एक रोड्स स्कॉलर के रूप में इंग्लैंड चले गए । वे शिकागो विश्वविद्यालय के फुलब्राइट महाविद्यालय में विज़िटिंग प्रोफेसर भी रहे।
गिरीश सर का लेखन क्लैसिकल कुचीपुड़ी की लय पर चलता महसूस होता है। संस्कृत साहित्य सा शुद्ध दिखता है और कर्नाटक घराने के संगीत का वह विराट संगम दिखता है जिसे समझने के लिए उस दौर और उसकी विशिष्टताओं को करीने से समझना अनिवार्य है। गिरीश सर, किशोरावस्था में ऑक्सफोर्ड यूनियन के अध्यक्ष और रोड्स के गुणी अध्येता रहे। गिरीश कार्नाड सर ने साहित्य के उस सूत्र को अंत तक थामे रखा जिसे सत्ता के विरोध से संबल मिलता है।
पत्रकार गौरी लंकेश की बरसी पर चरम बीमार होने पर भी गले में ‘मैं भी अर्बन नक्सल’ की तख्ती लगाने पर आपराधिक कार्यवाही सहन करने वाले गिरीश कर्नाड सिनेमा के परदे पर भी यथार्थ जीते रहे।
एक विधवा और एक विधुर की मेधावी, प्रतिभाशाली और सजग संतान गिरीश कर्नाड साहब शानदार अभिनेता, साहित्यकार, चिंतक, सामाजिक विचारक इत्यादि इत्यादि के साथ बेहद सरल और मानवता प्रेमी सबसे पहले हैं। उनके माता-पिता, दोनों की अपने पूर्वविवाहों से संतानें थींं, इसलिए वो एक नये उत्तरदायित्व के लिए उनके जन्म के समय स्वयं को तैयार नहीं पा रहे थे। किन्तु कई सुखद संयोगों के फलस्वरूप गिरीश जैसा क़ाबिल बालक, कालान्तर में उनकी अमर कीर्ति का कारण बना।
गिरीश कर्नाड सर, 19 मई 1938 को जन्मे, तथा 10 मई 2019 को अंतिम सांस के साथ भले ही इस नश्वर जगत से दैहिक रूप से विदा ले चुके हों, किंतु उनकी सजगता, उनका सहयोगी और सकारात्मक दृष्टिकोण, उनकी शानदार रचनाशीलता, कला, संस्कृति, साहित्य, सामाजिक चेतना, सार्थक फिल्मों और श्रेष्ठ थियेटर की दुनिया में अजर अमर रहेगी।
इलाहाबाद की धरती पर सशरीर न आकर पर भी जिजीविषा, सादगी, मेधा, प्रतिभा, समृद्धि की चलती फिरती एक संयुक्त परिभाषा कर्नाड साहब, कला, सिनेमा, थियेटर, साहित्य, सामाजिक सरोकारों से जुड़े हर इलाहाबादी के मन में सदैव बसे रहेंगे।
दिंवगत गिरीश कर्नाड को मेरा सादर, ससम्मान, अश्रुपूरित प्रणाम।