
नाइश हसन
सोशल एक्टविस्ट
संपर्क :naish_hasan@yahoo.com
अपने चारो तरफ बंदिशों के पहाड़ से टकराती औरत ने जब भी सवाल उठाया तो पितृसत्ता के पहरेदारों ने घर से लेकर बाहर तक उसे लांछित करने, निष्कासित करने, उसे विद्रोही ठहराकर उसके मनोबल को लगातार तोड़ने की कोशिश की है। इस सब के बावजूद भी औरत ने सोचने विचारने और संघर्ष करने का काम लगातार जारी रखा। सुप्रीम कोर्ट ने तलाक-ए-बिद्दत को असंवैधानिक करार दिया तो संघर्ष में शामिल औरतों की ऑंखों से खुशी के आंसू छलक पड़े। मिठाई की दुकान पर बुर्कापोश खरीदारों की भीड उमड़ पड़ी। परन्तु बिल के आने के बाद औरतें निराश हैं।
कई अहम बातें है जिसे समझना जरूरी है। इस बिल पर दो बार सरकार खूब हंगामें के बीच अध्यादेश ला चुकी है। काबिले गौर बात है कि गोया इतनी जल्दबाज़ी की क्या जरूरत ? बेहतर कानून बनाने के लिए बेहतर राय मश्वरा जरूरी होता है। इसका पूरा मौका दिया जाना चाहिए। पहली बार सदन में जब बिल पेश हुआ था जब भी इसमें सुधार की मॉंग उठ रही थी और आज भी इसमें सुधार की जरूरत महसूस की जा रही है। ऐसा इस लिए हो रहा है कि इसके केन्द्र से औरत गायब कर दी गई। सियासी और मज़हबी जमातों ने औरत को दरकिनार कर दिया। औरत का सवाल किसी बीजेपी या कॉंग्रेस पार्टी की सोच-समझ से बहुत ऊपर है। वह पीडित समुदाय से आती है, तीन तलाक की पीडा उसी ने झेली है, लेकिन ऐसा महसूस हो रहा है कि इसकी सबसे ज्यादा पीडा बीजेपी, फिर उलेमा और उसके बाद कॉंग्रस पार्टी ने झेली है इसी लिए इन सब ने मिल कर औरत की इस लडाई से औरत को गायब कर दिया है। कॉंग्रेस सरकार में भी इस पर चुप्पी बनी रही, नजरअन्दाज किया जाता रहा, और बीजेपी इसी बात का फायदा उठाते हुए इसे एक राष्ट्रीय पीड़ा घोषित करने पर आमादा है।

एक नजर उस ओर ड़ालना जरूरी है तीसरी बार पेश हुआ ये बिल जिसका नाम मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक 2019 है। इस बिल में महिला का संरक्षण कहॉं है ? सात बिन्दुओं पर आधारित यह बिल अभी भी तीन तलाक बोलने वाले पति को तीन साल की सजा़ देने पर कायम है। अभी भी यह अपराध संज्ञेय और गैर जमानती होगा। इसका अर्थ है कि तीन तलाक़ बोलने वाले शौहर को पत्नी या उसके खून के रिश्तेदारों की शिकायत पर फ़ौरन पुलिस जेल ले कर चली जाएगी और उसे तीन साल तक की सजा दी जाएगी। बिल में खून के रिश्तेदारों की परिभाषा भी स्पष्ट नही है। खानदान के तमाम लोग ऐसे हो सकते है जो इस बात का फायदा उठाकर परिवार को परेशानी में डाल दें। इस सम्भावना से इनकार नही किया जा सकता। बिल ये कहता है कि औरत को पति से अपने व बच्चे के लिए खर्च लेने का अधिकार होगा। बात यहाँ ये समझने की है कि जब पति जेल चला गया तो औरत व बच्चे का खर्च कौन देगा, किस तरह दिया जाएगा। यह भी साफ नही है कि औरत वह खर्च कैसे लेगी? उसका क्या तरीका होगा? क्या सरकार देगी खर्च? अगर सरकार उस दौरान परिवार को संरक्षण नही दे रही तो इस बिल का नाम संरक्षण क्यों? किससे औरत को कहॉं संरक्षण मिल रहा है ? स्पष्ट नही है। बिल में सुलह समझौता व मध्यस्थता की गुंजाइश कोर्ट के स्तर पर है, थाने के स्तर पर नहीं। इसका अंजाम ये होने वाला है कि पति जमानत के लिए चक्कर लगाएगा और पत्नी वकील के। यह व्यवस्था थाने स्तर पर होनी चाहिए, थाना औरत की पहुँच में होता है परन्तु कचहरी, वकील और फिर वकील की फीस उसकी सामर्थ से बाहर की बात है। बिल के मुताबिक तलाक को साबित करने की जिम्मेदारी अभी भी औरत के ऊपर ही है। पति पर तीन तलाक बोलना आपराधिक आरोप (Criminal Offence) माना गया है। जबकि विवाह एक सिविल मामला है आपराधिक नहीं। हिन्दू पुरूष भी एक से एक वाहियात कारणों से पत्नी को तलाक दे देते है पर उन्हें जेल तो नही भेजा जाता। बहुत से हिन्दू पुरूष जो हिन्दू निजी कानून के विरुद्ध भी एक से ज्यादा शादियॉं किए हुए है, या अपनी पत्नियों को छोड कर जिम्मेदारियों से आजाद है उन्हें इस तरह जेल तो नही डाला जा रहा। वह अपराध अभी भी असंज्ञेय व जमानती है। जब तीन बार पेश होने पर भी बिल में कोई खास सुधार नही हो रहा तो ये सोचना लाजमी है कि सरकार की मंशा क्या है। जिस तरह झटपट तीन तलाक है उसी तरह सरकार झटपट कानून बनाने पर अडी हुई है। क्या ये बेहतर नही है कि पूरा समय देकर बिना किसी सियासी दांव पेंच के औरत की पीडा को केन्द्र में रखते हुए एक कानून बने। एक नजर देखने में ही लगता है बिल बहुत ही जल्दबाजी में बनाया गया है। जो व्याख्या हर बिन्दु पर बिल में लिखी होनी चाहिए वह नही है।

हमारा मक्सद क्या है ? देश से तलाक-ए-बिद्दत को समाप्त करना। इस लिए हमें और भी तरीकों पर विचार जरूर करना है:
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को ध्यान में रखते हुए सभी राज्यों में विवाह पंजीकरण को अनिवार्य बनाया जाए और औरत की सुरक्षा के लिए तलाक के पंजीकरण को भी अनिवार्य कर दिया जाए। 30 दिन के अन्दर पंजीकरण अनिवार्य हो। इससे तीन तलाक व बाल विवाह दोनो पर रोक लगेगी। तलाक देने वाले के पास या तो कोर्ट की डिक्री होगी या 90 दिन के सुलह व मध्यस्थता का लिखित प्रमाण। जन्म मृत्यु पंजीकरण की तरह इसका प्रचार-प्रसार हो और आम जन तक सुलभ बनाने की योजना बने।
उक्त पंजीकरण को सभी सरकारी योजनाओं से जोड़ा जाए, ऐसा न करने वाले को किसी भी प्रकार की योजना का लाभ न मिले। विदेश जाने की आज्ञा भी न दी जाए।
निकाहनामा में तलाक-ए-बिद्दत से तलाक नही हो सकता इसका अनिवार्य प्रावधान किया जाए।
तलाक-ए-बिद्दत को घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 में शामिल करके मजिस्ट्रेट को पावर दी जाए। यदि मैजिस्ट्रेट के आदेश का पालन पति नही करता तो उसके खिलाफ कार्यवाही का प्रावधान हो।
1939 मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम में तलाक-ए-बिद्दत को जोड़ दिया जाए। भारतीय दंड संहिता की धारा 498। में तीन तलाक जैसी कूरता पर एक बिन्दु विशेष रूप से शामिल किया जाए।
तलाक-ए-बिद्दत देने वाले पति को मीडिएशन में लाया जाना अनिवार्य हो। मीडिएशन सेन्टर की संख्या सरकार बढाए हर थाने में मीडिएशन के लिए प्रशिक्षित काउन्सलर मौजूद हों , ग्रामीण स्तर पर भी इसकी सुविधा पहुंचाई जाए।
इन पर भी विचार हो, औरत की बात सुनी जाए। यदि ऐसा नही होता और इसी रूप में बिल पास होता है तो औरत को इसका लाभ किसी भी प्रकार नही मिलने वाला। परिवार टूट बिखर जाएगे, बरबाद हो जाऐंगे, आगे आने वाली नस्लें भी बरबाद ही होंगी। ये कानून जिसकी पीडा को दूर करने के लिए बनाया जा रहा है उसके चेहरे पर खुशी आ सके इतनी सूझबूझ की अपेक्षा तो हम कर ही सकते है इस मौके पर परवीन शाकिर का ये शेर जुबान पर आता है :
खुशबू को तर्क करके न लाए चमन में रंग इतनी तो सूझबूझ मेरे बागबां में हो