जे. शर्मिला जैसी महिलाओं के संघर्ष का परिणाम, आने वाली पीढियां महसूस करेंगी। बिना संघर्ष के ‘आधी दुनिया’ के विरुद्ध बुने-बनाये गए भेदभाव पूर्ण वैधानिक जाल-जंजाल को तोड़ना असंभव लगता है। स्त्रियाँ संगठित होकर वैधानिक भेदभाव की तमाम बेड़ियाँ आसानी से तोड़ सकती हैं। इस संघर्ष यात्रा में शर्मिला पहली या अंतिम स्त्री नहीं है। सुश्री जे. शर्मिला अध्यापक है। विवाह के बाद पहली बार जुड़वाँ (दो) बच्चे हो गए थे। दूसरी बार माँ बनी तो सरकार (शिक्षा विभाग आदेश दिनांक 27.10.2009) ने कहा कि दूसरी बार मातृत्व अवकाश (16.10.2006 से 11.01.2007) नहीं मिलेगा। मद्रास राज्य के शिक्षा विभाग का नियम है कि दो से अधिक बच्चे होने पर, किसी को मातृत्व अवकाश नहीं मिलेगा। मतलब वेतन नहीं मिलेगा। वेतन नहीं मिलेगा तो महिला क्या करेगी! उसे गिड़गिड़ाने या अपवाद स्वरूप छुट्टियाँ मंज़ूर करवाने का रास्ता भी बताया गया मगर महिला ने अदालत का दरवाज़ा खटखटाना बेहतर समझा। सोचा छुट्टियाँ मिले ना मिले, कानून बदलवाना ज्यादा जरूरी है। देखते हैं अदालत क्या फैसला सुनाती है! इस ऐतिहासिक और पेचीदा कानूनी मामले (जे.शर्मिला बनाम शिक्षा विभाग, मद्रास, 2010) की सुनवाई के दौरान वरिष्ठ वकीलों की कानूनी बहस (तर्क-वितर्क-कुतर्क) के बीच, उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति ने सरकारी वकील से पूछा कि अगर पहली बार एक बच्चा हुआ होता और दूसरी बार दो या तीन हो जाते, तो क्या छुट्टी नहीं मिलेगी? यहाँ से कानून की नहीं, न्याय की पगडण्डी बनना शुरू हुई। इंसाफ की आशा-उम्मीद दिखने लगी।
आश्चर्यजनक है कि भारतीय संविधान बनने-बनाने (1950) के ग्यारह साल बाद, केंद्र सरकार ने सरकारी संस्थानों में कार्यरत महिलाओं के लिए मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 (12 दिसंबर,1961) पारित किया। इससे पहले इस संदर्भ में कुछ राज्यों/क्षेत्रों में कानून था, अधिकांश में कोई कानून ही नहीं था। संविधान बनने के तीन दशक बाद तक भारतीय विदेश सेवा, एयर इंडिया और अन्य संस्थाओं में महिलाओं को विवाह करने या/और गृभवती होने (माँ बनने) पर नौकरी से इस्तीफा देना पड़ता था। सी.बी.मुथम्मा (एआइआर 1979 एससी 1868) और नार्गेश मिर्ज़ा (1981) 4 एससीसी 335) केस में सुप्रीमकोर्ट ने ऐसे नियमों को असंवैधानिक करार दिया था। मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 में एक अप्रैल, 2017 से कुछ महत्वपूर्ण संशोधन किये गए हैं। अब अवकाश की अवधि (दो बार) 12 सप्ताह से बढ़ा कर 26 हफ्ते कर दी गई है। हालांकि आर्थिक जगत में आशंका है कि इन संशोधनों से बचने के लिए लाखों महिलाओं को नई नौकरी नहीं मिल पाएगी और कार्यरत महिलाओं को प्रसवावकाश के बाद ‘त्यागपत्र’ देने के लिए विवश किया जा सकता है।
इस कानून की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि उल्लेखनीय है। भारत में सबसे पहले मातृत्व लाभ अधिनियम,1929 बॉम्बे में बनाया गया था। ‘रॉयल कमीशन’ की सिफारिश के बाद मातृत्व लाभ अधिनियम मद्रास, उत्तर प्रदेश, बंगाल, पंजाब और आसाम में भी लागू किये गए। केंद्र द्वारा दिसम्बर,1942 में खदान मातृत्व लाभ अधिनियम,1942 सिर्फ देशभर की खानों में महिला मजदूरों के लिए ही पारित किया गया था। कुछ संशोधन के साथ बॉम्बे मातृत्व लाभ अधिनियम को अजमेर-मेवाड़ राज्य ने 1933, दिल्ली ने 1937 और सिंध ने 1939 में अपनाया। बंगाल मातृत्व लाभ अधिनियम (चाय बागान) 1941 में बना था। श्रम जाँच समिति के साथ सरकारी समझौते (1943) और इसकी रिपोर्ट (1946) के बावजूद इस सन्दर्भ में 1961 तक कोई केद्रीय कानून नहीं बना-बनाया गया। स्पष्ट है कि महिला श्रमिकों के असंगठित होने और श्रमिक संघों से लेकर संसद तक में पुरुष वर्चस्व के कारण, उन्हें बुनयादी सुविधाएँ तक नहीं मिल (पाई) पाती।
बी. शाह बनाम लेबर कोर्ट (1977 (4) एससीसी 384) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने नये कानून के उदेश्य पर रौशनी डालते हुए कहा कि यह कानून महिला श्रमिकों के साथ सामाजिक न्याय के लिए बनाया गया है, ताकि स्त्रियाँ नौकरी के साथ-साथ परिवार की देखभाल भी कर सके और सम्मानपूर्वक जीवन यापन कर सकें। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संघठन के साथ हुए समझौते (7.9.1955) और संविधान के अनुच्छेद 42 के अनुसार इस अधिनियम के लिए स्त्री की परिभाषा में बिना किसी भेदभाव (धर्म, जाति और नस्ल) के विवाहित और अविवाहित स्त्री शामिल है। अविवाहित स्त्रियों को वैवाहिक स्थिति के आधार पर, इस लाभ से वंचित नहीं किया जा सकता। महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवार नियोजन और सशक्तिकरण के लिए राष्ट्रीय योजनायें (1976, 1988-2000) बनती रहीं हैं, मगर गैर-सरकारी संस्थानों में आज भी मातृत्व लाभ अधिनियम सुचारू रूप से लागू नहीं हो पाया है।
विद्वान् न्यायमूर्ति ने अपने निर्णय में कविता राजगोपाल बनाम रजिस्ट्रार डॉक्टर आंबेडकर विधि विश्वविद्यालय, चेन्नई (2008 (4) एलएलएन 299) का उल्लेख किया है कि गर्भवती छात्रा की अगर नियमित रूप से वांछित उपस्थिति नहीं है, तो अपवाद स्वरूप उसे इतनी छूट दी जानी जरूरी है कि वो परीक्षा में बैठ सके। ऐसा फैसला नित्या बनाम मद्रास विश्वविद्यालय केस में भी दिया गया था। लेकिन ए. अरुलिन बनाम प्रिंसिपल, फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टीट्यूट तमिल नाडू में इसी उच्चन्यायालय की खंडपीठ ने कहा कि शिक्षा संस्थानों के लिए ऐसा कोई नियम/कानून नहीं है और बिना वैधानिक प्रावधान के छूट नहीं दी जा सकती। (2008 (4) एलएलएन 308) जहाँ कोई कानून नहीं बने-बनाए गए हैं, वहाँ कोई प्रतिबंध भी तो नहीं है ना! न्यायिक विवेक और मानवीय निर्णय किस दिन के लिए ‘सुरक्षित’ रख लिया जाये!
जे. के. कॉटन मिल्स मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि “वास्तव में, सामाजिक न्याय की अवधारणा अब औद्योगिक कानून का ऐसा अभिन्न अंग बन गई है कि किसी भी पक्ष के लिए यह कहना व्यर्थ सुझाव देना है कि औद्योगिक अधिनिर्णय सामाजिक न्याय के दावों की अनदेखी कर सकता है या औद्योगिक विवादों से निपटने में करना चाहिए। सामाजिक न्याय की अवधारणा संकीर्ण या एकतरफा नहीं है, और केवल औद्योगिक विशेषण तक सीमित नहीं है। इसका कार्यक्षेत्र व्यापक है। यह सामाजिक-आर्थिक समानता के मूल आदर्श पर स्थापित है और इसका उद्देश्य सामाजिक-आर्थिक विषमताओं और असमानताओं को दूर करने में सहायता करना है; फिर भी, औद्योगिक मामलों से निपटने में, यह एक सिद्धांतवादी दृष्टिकोण को नहीं अपनाता है और अमूर्त धारणाओं पर आंख मूंदकर समाधान करने से इनकार करता है, लेकिन यथार्थवादी और व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाता है।”
माननीय न्यायमूर्ति ने अपने निर्णय में लिखा है कि एक उचित सामाजिक व्यवस्था तभी प्राप्त की जा सकती है, जब असमानताओं को तिरस्कृत किया जाए और सभी को कानूनी रूप से देय प्रदान किया जाए। हमारे समाज के लगभग आधे हिस्से का गठन करने वाली महिलाओं के साथ सम्मान और गरिमापूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिए, जहां वे अपनी आजीविका कमाने के लिए काम करती हैं। जो कुछ भी उनके कर्तव्यों की प्रकृति है, और जिस स्थान पर वे काम करती हैं, उन्हें वे सभी सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए, जिनकी वे हकदार हैं। माँ बनना एक महिला के जीवन की सबसे प्राकृतिक घटना है। एक ऐसी महिला जो बच्चे का जन्म देने वाली है को आवश्यक सुविधायें मिलनी ही चाहिए। नियोक्ताओं को उसके प्रति विचारशील होकर सहानुभूति रखनी होगी और उन शारीरिक कठिनाइयों का एहसास भी जो एक कामकाजी महिला को गर्भ में बच्चे को ले जाते समय या जन्म के बाद बच्चे को पालते समय कार्यस्थल पर अपने कर्तव्यों को पूरा करने में सामना करनी पड़ती है। मातृत्व लाभ अधिनियम,1961 का उद्देश्य इन सभी सुविधाओं को एक कामकाजी महिला को गरिमापूर्ण तरीके से प्रदान करना है, ताकि वह मातृत्व की स्थिति का सम्मानजनक रूप से निर्वाह कर सके- पूर्व या प्रसवोत्तर अवधि के दौरान बिना किसी तरह पीड़ित होने के डर से रह सके।
कभी-कभी अति उत्साह में सरकार ऐसे कानून बनाती है, जो कालांतर में बेहद विसंगतिपूर्ण (!) सिद्ध होते हैं। उदाहरण के लिए हरियाणा सरकार ने एक कानून (पंचायती राज अधिनियम,1994) में संशोधन कर नियम बनाया कि जिनके दो से अधिक बच्चे हैं, वो पंचायत का चुनाव लड़ने के लिए ‘अयोग्य’ समझे जाएंगे। सुप्रीमकोर्ट तक ने इसे जनहित/राष्ट्रहित में संवैधानिक माना था। सवाल है कि अगर किसी महिला के पहले ही प्रसव में तीन बच्चे हो जाएं तो? अपवाद के बारे में तो कानून का मसौदा तैयार करने वाले सरकार के प्रतिभाशाली अफसरों (आईएएस) और राजनेताओं ने सोचा ही नहीं! कहीं यह नियम/कानून मूलतः दो से अधिक बच्चों वाली स्त्रियों कों राजनीति से बाहर करने-रखने का वैधानिक षड्यंत्र तो नहीं! अब तो सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि सर्वोच्च अदालत के न्यायमूर्ति आर. सी. लाहोटी, अशोक भान और अरुण कुमार ने बहुत से मानवीय सवालों (स्त्री हित में) पर रहस्यमय चुप्पी साध ली थी। (जावेद बनाम हरियाणा राज्य (एआइआर 2003 एससी 3057)