“प्रगतिशील लेखक संघ,’ यह नाम ही मेरे विचार से ग़लत है। साहित्यकार या कलाकार स्वभावतः प्रगतिशील होता है। अगर यह उसका स्वभाव न होता, तो शायद वह साहित्यकार ही न होता।”उपरोक्त पंक्तियां प्रेमचंद ने 1936 में प्रलेस के लखनऊ अधिवेशन की सदारत करते हुए कही थी। विडंबना ये कि प्रलेस प्रेमचंद की इन पंक्तियों को न सिर्फ भूल चुका है बल्कि एक ऐसे व्यक्ति को अपना खेवनहार बनाए हुए है जो घोर स्त्री विरोधी और जातिवादी है।
नूर जहीर का लिखित बयान
कल से इस पाशोपेश मे हूँ कि इस सूत्र पर मुझे बोलना चाहिए या नहीं। मैं अपने विचार प्रलेस के पदाधिकारियों तक पहुंचा चुकी हूँ। अगर मुझे मालूम हो तो मैं किसी सेकसिस्ट पुरुष के साथ न मंच साझा करूंगी ना उसकी अध्यक्षता मे बोलूँगी । यह मेरी अपनी सोच है क्योंकि इंसान होने के बाद सबसे पहले मैं एक महिला हूँ। ये बात अलग है कि प्रलेस मे बीस साल से बढ़ते हुए पुरुषवाद को देख रही हूँ; यह भी जानती हूँ कि पुरुषवाद अकेले नहीं पनपता, जातिवाद और संप्रदायकता उसके हाथ मे हाथ डाले चलतीं हैं। ऐसे मे अगर कुछ लेखक या लेखिकाएँ बिगाड़ नहीं करना चाहती और चुप्पी बनाए रखतीं हैं तो यह उनका निजी मामला है। मैंने खुद कभी फायदा या नुकसान को देखकर ‘स्टैंड’ नहीं लिया है । एक सवाल और एक अपने तजुर्बे की बात कह रहीं हूँ:
1॰ ऐसा क्या मिल रहा है एक पैतृक्तावादी पुरुष को जोड़े रखने से ?नाम, पैसा, यश, सहूलतें?
2॰ पुरुषवाद एक बीमारी है जिसे यदि फैलने से नहीं रोका गया तो वह चुप्पीधारियों को भी नहीं छोड़ेगी ।
रही मेरी अपनी बात, मैंने हमेशा बिना नतीजे कि परवाह किए बिना अपना रास्ता तय किया है । शायद मैं अलग थलग पड़ जाऊँ, हो सकता है मेरे लेखन को नज़रअंदाज़ कर दिया जाये । लेकिन इतना तो अपने बुज़ुर्गों से सीखा ही है :
“बख्शी है हमे इश्क़ ने वो जुर्रतें मजाज़
डरते नहीं स्यासते एहले जहां से हम ।
प्रलेस पर नूर जहीर का आरोप
स्त्रीकाल से फोन पर बात करते हुए नूर जहीर बताती हैं –“प्रलेस में शुरुआत से ही ऐतराज रहा है कि महिलाओं को उतनी जगह उतनी तवज्जो नहीं दी जाती, जितनी की दी जानी चाहिए। न तो संगठन के मामलों में और न ही अलग अलग मंचों पर बैठने के लिए, कार्यक्रम प्रस्तुत करने के लिए। पिछले पच्चीस सालों में मेरी अपनी समझदारी ये बनी है कि प्रलेस में महिलाओं को वो जगह नहीं बनती। इसके चलते मैंने बार बार आवाज़ उठाई है। प्रलेस के उस सभी लोगों से जिन्हें मैं अलग अलग कारणों से जानती हूँ जैसे राजेंद्र राजन, अली जावेद जैसे वरिष्ठ लोंगो से निजी तौर पर भी ऐतराज जताया है कि ये सही नहीं है गलत है। आखिरकार हम रशीद जहां, और इस्मत चुगताई के विरासत लेकर चल रहे हैं
लेकिन न तो उस पर कोई चर्चा कभी रखी गई,कि चिंता ही होती कि महिलाएं इसमें क्यों नहीं शामिल हो रही हैं, तो वो भी नही हुआ, न खुलकर बात हुई। मैं संगठन में रहकर अपना काम करती आई हूं।
2005-06 में सज्जाद जहीर जन्मशताब्दी मनाई गई तब मैंने और पाकिस्तान से आए डेलीगेशन नाहिद किश्वर ने भी ये बात उठाई थी कि क्या सज्जाद जहीर एंटी फेमिनिस्ट थे जो आप लोग मंच पर सिर्फ मर्दों को बैठा रहे हो और औरतों को दूर रखते हो।फिर बी एन राय वाला मामला हुआ। लेखन के दम पर खुद को स्थापित करनेवाली मैत्रेयी पुष्पा को इतना कुछ कहा । कभी निजी राय बताया। आपकी सोच ऐसी ही है महिलाओं के बारे में।
फिर बीएन राय ने कुलपति रहते हुए वर्धा में साहित्यिक कार्यक्रम किए उसमें बहुत से लोग शामिल हुए थे। तो भी वीएन राय ने कहा था कि जो लोग मेरे ऊपर ऐतराज जताते थे वो लोग अब मेरे दरबार में आकर सलाम ठोकते हैं। इस तरह की भाषा बोलते हैं और ऐसी ही उनकी सोच है।
मैं प्रलेस में एक ऑर्डिनरी मेंबर हूँ। और मैंने इस संदर्भ में प्रलेस के कई लोगों से बातचीत की। तो कुछ लोगों ने कही कि पुलिस वालों की भाषा कैसे बदली जाए। पुलिस वालों की ट्रेनिंग ही ऐसी होती है कि उनकी इस तरह की भाषा आ जाती है। हमें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता की आप निजी तौर पर क्या करते हैं। आप पत्रकार होंगे, टीचर होंगे, क्लर्क होंगे, लेकिन जब आप महिलाओं के संबंध में बात कर रहे होंगे तो आपको एक शालीनता, एक सभ्यता बनाकर रखनी होगी। ये हम महिलाओं की बुनियादी मांग है।
अब रिटाररमेंट के बाद वो मुझे प्रलेस के हर कार्यक्रम में मौजूद मिलते हैं। कमला प्रसाद जी ने सबसे ज्यादा और सबसे पहले विरोध किया था उसके बावजूद उनको प्रलेस इस तरह से लेकर चलता है, अध्यक्षा करवाता है। उनको लेखन की कितनी समझ है उस पर तो मैं कुछ नहीं कहूंगी लेकिन भाषण वो देते हैं, और मौजूद लोगों को बताते हैं कि कैसा लिखा जाना चाहिए और आज की ज़रूरत क्या है वो अपने आप में मजाक का मुद्दा है।
कल मुझे वो कथा-कहानी के कार्यक्रम में भी दिखे। ज्यादातार लोग जलेस से जुड़े हैं। हरिहर जी ने कहा कि मुझे कार्यक्रम में बोलना है, लेकिन मैंने उनके साथ मंच साझा करने से मना कर दिया।
घाटशिला, झारखंड में सम्मलेन हुआ। मुझे बुलाया और मैंने बहुत खुशी से हां कहा था। दिल्ली में तो कार्यक्रम होते ही रहते हैं लेकिन ज़रूरी ये है कि दिल्ली के बाहर के राज्यों में जो काम हो रहा है उसमें हम लोग शामिल हों। और अगर हम लोगों के शामिल होने से कुछ भी वहां की यूनिट को फायदा होता है तो यह अच्छी बात है।
दरअसल एक संयुक्त सत्र मेरी अम्मी रजिया सज्जाद पर भी था और ये उनकी जन्मशताब्दी वर्ष है. मैंने उनकी कहानियों का अनुवाद किया है जो कई जगह छपी हैं और किताब की शक्ल में भी आई हैं तो उन्होंने कहा कि रजिया सज्जाद पर बोलने के लिए आपसे अच्छा और कौन हो सकता है। लेकिन फिर जब मुझे पता चला कि कार्यक्रम का उद्घाटन करने वी.एन राय आ रहे हैं और तो और मेरी अम्मी वाली सत्र की सदारत भी करेंगे तो मैंने प्रलेस से अपनी नाराजगी जताई कि मेरे बार-बार विरोध दर्ज कराने के बावजूद प्रलेस में अनसुना किया जा रहा है। आप ऐसे लोगों को प्रलेस में प्रमोट करेंगे तो महिलाओं का ऐसे कार्यक्रमों में आना मुश्किल है। तो क्या प्रलेस जानबूझकर ऐसे माहौल तैयार कर रहा है कि महिलाएं न आएं। कई कम उम्र लेखिकाएं अपनी बातों के जरिए बताती हैं कि कि ये कैसे-कैसे बातें और कमेंट करते हैं। राष्ट्रीय महासचिव राजेंद्र राजन ने कहा कि आप आइए हम बात करेंगे, मैंने कहा- नहीं, पानी नाक तक आ गया है।
प्रलेस के इस महिलाविरोधी रवैये से अब महिलाओं को कुछ करना चाहिए। चुप रहने और बर्दाश्त करने की भी एक सीमा होती है। अब कहना ज़रूरी हो गया है। जब सिर्फ ऐतराज और शिकायत दर्ज करने से कोई सुनवाई नहीं हो रही है तो शायद ज्यादा कड़ा कदम उठाना चाहिए। लगता है कि सभी महिला सदस्यों को प्रलेस से सामूहिक इस्तीफा देने जैसा कदम उठाना चाहिए।
जवाबदेही से भागे संतोष भदौरिया
प्रलेस इलाहाबाद अध्यक्ष संतोष भदौरिया ने स्त्रीकाल से फोन पर बात करते हुए सारे सवाल सुने और फिर जैसा कि उनका पेटेंट पैटर्न है वो बिजी होने और 2 घंटे बाद कॉल करने का बहाना बताकर फोन रख देते हैं। और फिर कल से आज तक में पचासों बार फोन करने पर वो फोन नहीं उठा रहे। जबकि प्रलेस के राष्ट्रीय सचिव संजय श्रीवास्तव से कोशिशों के बावजूद संपर्क नहीं हो सका।
पूरी कहानी
27-28 जुलाई 2019 को प्रलेस का ‘तीसरा झारखंड राज्य सम्मेलन’ संपन्न हुआ। कार्यक्रम का एक सत्र जोकि संयुक्त रूप से कैफी आजमी और रजिया सज्जाद जहीर पर केंद्रित था, केलिए प्रलेस ने रजिया सज्जाद जहीर की बेटी व साहित्यकार नूर जहीर से संपर्क किया। नूर जहीर ने प्रलेस के सामने शर्त रखी कि स्त्री विमर्श की लेखिकाओं को छिनाल कहने वाले विभूति नारायण अगर कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के तौर पर शामिल होंगे तो मैं कार्यक्रम में शामिल नहीं होऊंगी। इसके बाद प्रलेस ने नूर जहीर और उनकी आपत्तियों को दरकिनार कर विभूति नारायण राय को तरजीह दिया।
एक्टिविस्ट कवि सुशीलापुरी ने अपने फेसबुक टाइमलाइन पर सूचना देते हुए 29 जुलाई को लिखा –
“साथियों ! दो दिन बाद प्रेमचंद का जन्मदिन मनाया जाएगा । प्रेमचंद और सज्जाद ज़हीर जैसे महान पुरखों ने जिस प्रगतिशीलता की आधारशिला रखी, जिस समतावादी समाज की संकल्पना की, जिस आधुनिक, लोकतांत्रिक समाज का सपना देखा, वह सपना इतना महान था कि बराबरी के उस सपने की संकल्पना भी रोमांचित करती है आज भी । बराबरी के सवाल पर अपने इन पुरखों के उस सपने की डोर थामे हम स्त्रियां आज भी इंतजार में ही हैं, स्त्री अस्मिता के सवाल आज भी प्रतीक्षारत हैं । हमारी भाषा में एक सवर्ण पुरुष दंभ, एक मर्दवादी सत्ता आज भी कब्जा जमाए है। इसी भाषा में स्त्री को छिनाल कह देना, तमाम अन्य गालियां रच देना पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने ही संभव किया है । प्रगतिशील समाज से स्त्री, दलित या अन्य पिछड़े समुदायों, हाशिए पर गए लोगों को उम्मीद होती है कि वे उनकी बात सुनेंगे और ध्यान देंगे। सज्जाद ज़हीर की बेटी नूर ज़हीर यदि कोई सवाल उठाती हैं तो संगठन के लोगों को उस पर ध्यान देना चाहिए था, किन्तु बहुत अफ़सोस के साथ बता रही हूं कि नूर ज़हीर के ऐतराज़ को नजरंदाज किया गया, फिर नूर ज़हीर ने उस संगोष्ठी में जाना स्थगित किया जबकि पूरा एक सत्र रजिया सज्जाद ज़हीर पर केन्द्रित था । एक स्त्री का ऐतराज़ क्या इतना बेमानी था?”
जनवादी लेखक संघ की कार्यकारी अध्यक्ष डा संध्या सिंह कमेंट मेंलिखती हैं-“स्त्री की दशा अब समझ में आ रही है जब वो घर में पुरुष सत्ता से जूझ बाहर आती है तो वहाँ भी पुरुष वर्चस्व की नई जंग है…. सच कहूँ तो स्त्री को बराबर का दर्जा नही महसूस होता,….या तो दमन है या फिर खैरात में दी गयी सीमित आज़ादी, सीमित पहचान।”
कमेंट में ही नाइश हसन कहती हैं- “ ये बात क़ाबिले ग़ौर है, ये बड़ी बात है कि नूर जहीर जी ने वहाँ जाने से इनकार किया, उन्हें न मंच की लालसा थी न अपनी अम्मी पर चलाये जाने वाले सत्र को छोड़ देने की परवाह. उन्होंने बड़ा फैसला लिया है जिसे दूसरी महिलाएं, जो उसी संगठन की हैं, नहीं ले पाई, ये साहस अंदर से आता है जो सिर्फ सच के साथ खड़ा रहता है किसी खेमे में नही । पितृसत्ता के इज़्ज़तदार ये चेहरे अपनी खोल में छुपे रहे, और एक एब्यूज़र के साथ खड़े रहे / रही।”
सुशीला पुरी रिप्लाई में कहती हैं-प्रगतिशीलता प्रेमचंद की दृष्टि में बौद्धिक व्यायाम से जन्म नहीं लेती। मार्क्स के दार्शनिक सिद्धांतों की जानकारी यदि अंतस में प्रवेश न करे और आत्मा के साथ अंतरंग होकर संस्कारों में न घुल-मिल जाय, तो प्रगतिशीलता का बाह्य धरातल अर्थहीन होगा. यहाँ जानकारी से आगे बढ़कर उस समझ की आवश्यकता है जो प्रतिबद्धता को जन्म देती है। प्रगतिशीलता किसी पादरी का चोगा नहीं है जिसे पहनकर उपदेश दिये जाएँ। प्रगतिशीलता पूरी ट्रेनिंग है जो संस्कारों के भीतर से फूटती है।
कथाकार संजीव चंदन लिखते हैं –“मैं नूर जहीर को जानता हूँ वे बेबाकी से स्टैंड लेती हैं। उन्हें कतई मंजूर नहीं ही होना था कि रजिया सज्जाद ज़हीर के नाम का सत्र हो और उसकी अध्यक्षता विभूति नारायण राय जैसा आदमी करे। धिक्कार है इस संगठन के मर्दवादी लोगों का कि उन्होंने दुनिया भर में लेखिका के रूप में एक जगह रखने वाली अपनी स्त्री सदस्य की आपत्तियों पर तबज्जो न देकर ऐसे व्यक्ति को वरीयता दी। ऐसा तभी होता है जब संगठन पर ब्राह्मणवादी मर्दवाद हावी हो। उस कार्यक्रम का उद्घाटन सत्र ही देखिये कितना फेलससेंट्रिक है।”
डॉ अलका सिंह लिखती हैं –“इसीलिए मैं कहती हूँ, संगठनों का स्वरूप नूर जहीर जैसी महिलाएं ही बदलेंगी, और उन्हें बदलना भी होगा/चाहिए। अगर उन्होंने पहल की है एक छोर से तो दूसरे छोर से अन्य को उनके पक्ष में खड़ा भी होना होगा।स्त्रियों के सवाल हाशिये की चीज़ नहीं हैं और अगर सही और सटीक मौकों पर मुखर ऐतराज नहीं हुआ तो संगठन पितृसत्तात्मक बने रहेंगे इसलिए आगे आकर सवाल भी उठाना होगा और विरोध भी करना होगा”
सुशीला पुरी रिप्लाई में कहती हैं-“यह वृहद स्त्री अस्मिता से जुड़ा ऐतराज़ है जिसे इग्नोर करना साफ-साफ समूचे स्त्री समुदाय को इग्नोर करना है। कोई भी संगठन हो, यदि स्त्री की आवाज नहीं सुनी जा रही है, सुविधा जनक चुप्पियों की खोल में यदि इक्कीसवीं सदी का समाज दुबका है तो यह सोचनीय है। आत्मलोचना का विकल्प और आंतरिक बदलाव की गुंजाइश हमेशा खुली होनी चाहिए।”
जलेस के संदीप मील लिखते हैं- “नूर ज़हीर के प्रतिरोध को सलाम और जरूरी सवाल उठाने के लिए आपको भी।”
संजीव चंदन के “सबसे बड़ी बात है कि नूर ज़हीर की आपत्ति के बाद भी चिढ़ाने के लिए साहब से उसी सत्र की अध्यक्षता करवा दी गयी” पर रिप्लाई करते हुए अल्का सिंह लिखती हैं-“यह महज चिढाना नहीं है यह एक संगठन का इतिहास लिपिबद्ध हो रहा है जो आगे संगठन की प्रगतिशीलता और स्त्रीपक्षधरता पर सवाल खड़े करेगा। इसलिए इसे इत्ती-सी बात समझकर टेंट में नहीं बांध सकता कोई संगठन।”
संजीव चंदन कहते हैं – जी यही है इससे यह भी तय होता है कि लेखकों का एक बड़ा हिस्सा कैसे पुरस्कार और पद के लिए भ्रष्टतम समझौते करता है।
सुशीला पुरी कहती हैं- ऐसे स्त्री विरोधी चेहरों को संगठन में जगह और मंच मिलना दुखद है। ऐसी कौन-सी विवशता हो सकती है कि एक स्त्री के विरोध के बाद भी सब यथावत चलता रहा ।
ग़ज़लग़ो केशव तिवारी लिखते हैं – नूर ज़हीर ने ठीक किया। ये होना चाहिए था।
गाथांतर पत्रिका की संपादक और साहित्यकार सोनी पांडेय इसे ‘सही कदम’ कहती हैं।
सुशीला पुरी रिप्लाई करते हुए लिखती हैं-“प्रेमचंद को तत्कालीन हिंदी साहित्य की दुनिया का ब्राह्मणवाद पचा नहीं पा रहा था। शीन-काफ़ दुरुस्त होने की वज़ह से वैसे भी कायस्थों को ब्राह्मणवाद विधर्मी मानता रहा है। इससे त्रस्त होकर 8 जनवरी 1934 के ‘जागरण’ में प्रेमचंद लिखते हैं- ‘……शिकायत है कि हमने अपनी तीन-चौथाई कहानियों में ब्राह्मणों को काले रंगों में चित्रित करके अपनी संकीर्णता का परिचय दिया है, जो हमारी रचनाओं पर अमिट कलंक है। हम कहते हैं कि अगर हममें इतनी शक्ति होती, तो हम अपना सारा जीवन हिन्दू-जाति को पुरोहितों, पुजारियों, पंडों और धर्मोपजीवी कीटाणुओं से मुक्त कराने में अर्पण कर देते। हिन्दू-जाति का सबसे घृणित कोढ़, सबसे लज्जाजनक कलंक यही टकेपंथी दल है, जो एक विशाल जोंक की भाँति उसका ख़ून चूस रहा है, और हमारी राष्ट्रीयता के मार्ग में यही सबसे बड़ी बाधा है।”
युवा पत्रकार जया निगम लिखती हैं- “साहित्यिक संगठनों पर मेरी जानकारी सीमित है। इसके बावजूद प्रगतिशील लेखक संघ का स्त्री मसलों पर ज्यादातार दोहरा स्टैंड ही रहता है, मेरी यही जानकारी है। नूर जहीर का विभूति नारायण की वजह से खुद को अलग करना सराहनीय कदम है। मुझे समांतर साहित्य उत्सव भी याद आ रहा है जिसके आयोजन की शुरुआत प्रलेस ने ही की थी। जो लगातार ऐसे लोगों को बुलाने और एक मंच पर इकट्ठा करने के लिए ही जाना गया जो स्त्री मुद्दों पर परस्पर विरोधी विचार रखते हैं। मतलब प्रलेस की बुनियाद ही इसी तरह से विकसित लगती है।”
विरोध के वक्त भी वीएन राय का समर्थन करने वाली उषा किरण खान लिखती हैं- “मानसिकता पर ग़ौर करें— हम आम्रपाली को वैशाली की राजनर्तकी, नगरवधू के रूप में पहचानते हैं जबकि उस जीवन में वह मात्र तीस वर्ष की आयु तक ही थी। शेष ५० वर्ष थेरी रही, विपुल साहित रचा। उसी प्रकार कोशा को पाटलिपुत्र की राजनर्तकी नगरवधु जानते हैं परंच उसने २५ वर्ष की आयु में जैन श्रमणी का बाना धर लिया । अपने रूप को नष्ट कर लिया।
हम स्त्री को छोटा करने के आदी थे, कब तक रहेंगे?”
अलका सिंह “पुरुषवाद एक बीमारी है यदि इसे फैलने से नहीं रोका गया तो यह चुप्पीधारियों को भी निगल जाएगी।” यह वास्तव में इस वक्तव्य की सबसे मीनिगफुल लाइन है जो अपने आप में एक बड़ा वक्तव्य।
मदन कश्यप लिखते हैं.
जसम के सदस्य और कवि मदन कश्यप कहते हैं- “मैं नूर जी के साथ हूँ और उनका समर्थन करता हूँ। हालांकि, पूरा संदर्भ मुझे पता नहीं है। मैं प्रलेस में नहीं हूँ और जिस आयोजन की चर्चा है, उसमें किसकी निर्णायक भूमिका थी,यह भी मैं नहीं जानता। वहाँ बहुत कुछ हो रहा है जिससे मैं सहमत नहीं हूँ लेकिन, उस पर विचार तो संगठन के लोगों को करना चाहिए। आपने मेरे मुँह में क्यों उँगली डाल दी?”
जसम के आशुतोष कुमार लिखते हैं- “कॉमरेड नूर जहीर, आपने सही समय पर एक जरूरी सवाल उठाया है। अगर अब भी प्रगतिवादी लेखक संगठनों को पितृसत्ताक जातिवादी तत्वों से मुक्त न किया गया तो वे फासीवादी अभियान के हिस्से बनने से बच नहीं पाएंगे।”