शफक महजबीन
किताब – चिरकुट दास चिन्गारी (उपन्यास)
लेखक – वसीम अकरम
प्रकाशक – हिंद युग्म प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य – 125 रुपये (पेपरबैक)
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हम जितनी तेज़ी से आधुनिक होते जा रहे हैं, उतनी ही तेज़ी से गांव हमारे भीतर से ख़त्म होता जा रहा है. परिस्थितिजन्य, समय और समाज के बदलावों के बाद भी हमारे भीतर हमारी जड़ें जस की तस बनी रहें, यह साहित्य रचना के मूल कर्तव्यों में एक है कि ज़िम्मेदारी के साथ यथार्थ का चित्रण करे. आधुनिक होते दौर में ग्राम्य जीवन की कहानियों का अभाव स्वाभाविक है, लेकिन हमारे भीतर संवेदनाएं गहरी दबी पड़ी हैं, तो रचना फूटेगी ही. पेशे से पत्रकार और मिज़ाज से लेखक वसीम अकरम का पहला उपन्यास ‘चिरकुट दास चिन्गारी’ इन्हीं संवेदनाओं से निकली ग्राम्य जीवन के हास-परिहास की एक बेहतरीन रचना है. इस उपन्यास को पढ़ते हुए वसीम अकरम इसके पन्नों पर साफ नजर आते हैं, मानो वे दिल्ली में नहीं, मारकपुर गांव की गलियों में घूम रहे हों और इसके किरदारों से बात कर रहे हों. एक उपन्यासकार की यही सफलता है.
हिंदी साहित्य के शलाका पुरुष राजेंद्र यादव ने एक दफा कहा था, ‘घर में जो स्थान नाली का है, साहित्य में वही स्थान गाली का है.’ इस बयान का यह अर्थ नहीं कि राजेंद्र जी गाली का समर्थन करते थे, बल्कि यह कि अगर कहानी के पात्र गाली दे रहे हैं, तो लेखक की यह ज़िम्मेदारी है कि वह अपने पात्रों की ज़बान न काटे. उपन्यास ‘चिरकुट दास चिन्गारी’ के किरदार भी कहीं-कहीं गालियां देते हैं, लेकिन वे ऐसा सायास बिल्कुल नहीं करते और हास-परिहास के बीच उनकी गालियां गैर-ज़रूरी भी नहीं लगतीं. अपने किरदारों की ज़ुबान काटे बगैर ही वसीम अमरम ने उत्तर भारत के ग्राम्य जीवन का रेखाचित्र खींचा है, जो कि बेहद सराहनीय है. हमारे समाज में गालियां हमेशा ही महिलाओं को केंद्र में रची गई हैं, जो न सिर्फ सामाजिक विडंबना है, बल्कि मानसिक विडंबना भी है. इस आलोक में देखा जाए तो किसी भी उपन्यास में किसी के भी द्वारा किसी को दी गई गाली का समर्थन नहीं किया जा सकता. लेकिन, इसी समाज में हास-परिहास की एक समृद्ध परंपरा भी है, जिसमें कहीं-कहीं हल्की-फुल्की गालियों का इस्तेमाल भी होता रहा है और किसी को असहज भी नहीं करता. वसीम इस कोशिश में कामयाब रहे हैं.
उपन्यास ‘चिरकुट दास चिन्गारी’ की भाषा बहुत ही सरल-सहज और गंवई शब्दावलियों से भरी हुई है. यही नहीं, वसीम अकरम ने कुछ ऐसे नये शब्द-शब्दावलियों के साथ कई मुहावरों की रचना भी की है, जो अन्यत्र पढ़ने को नहीं मिलते. साहित्य सृजन में बिल्कुल ही नया शब्द गढ़ना उत्कृष्ट रचनकर्म माना जाता है, और इस पर वसीम अकरम एकदम खरे उतरते हैं. ‘सालियाना मुस्कान’, ‘यदि मान ल कि जदि’, ‘नवलंठ’, ‘पहेंटा-चहेटी’, ‘चिरिक दें कि पलपल दें’, ‘चुतरचहेंट’, ‘रामरस’, ‘परदाफसाद’, ‘बलिस्टर’, ‘लतुम्मा एक्सप्रेस’, ‘फिगरायमान’, ‘इक्स’, ‘लौंडियास्टिक’, ‘गलती पर सिंघिया मांगुर हो जाना’, ‘कान्फीओवरडेंस’, इन शब्दावलियों को पढ़कर मन गांव की उस ठेठ भरी ठांव पर ठहर जाता है.
पिछले कुछ सालों से यह शिकायत भी आ ही रही है कि साहित्यिक हलकों में अब गांव की गलियां बची नहीं रह गयी हैं. यह शिकायत सही भी है, क्योंकि शहरीकरण की प्रक्रिया में गांव महज नॉस्टेल्जिया का विषय बनकर रह गया है. और इस संदर्भ में ले-देकर प्रेमचंद ज्यादा याद आते रहे हैं. इसलिए साहित्य की नयी पीढ़ी पर यह ज़िम्मेदारी बढ़ती जा रही है कि वे गांवों के देश भारत की ग्रामीण विभीषिका, उसकी संवेदनाएं, उसकी जीवंतता और उसके हास-परिहास को अपनी रचनाओं में लेकर आएं. शायद इसीलिए वसीम अकरम ने इस शिकायत को दूर करने की कोशिश की और ‘चिरकुट दास चिन्गारी’ के रूप में ग्राम्य जीवन का एक शानदार वितान रच डाला. इस वितान में अब भी पूरा गांव नहीं समा पाया है, लेकिन जितना कुछ है, वह एक गंवई सौंदर्य को समझने के लिए काफी है.
ग्रामीण परिवेश के एक जीवंत दस्तावेज़ को पाठकों के हाथों में सौंपने में हिंद युग्म प्रकाशन की भी एक बड़ी भूमिका है, जो न सिर्फ ऐसी रचनाओं को छाप रहा है, बल्कि बरास्ते अपनी टैगलाइन ‘नई वाली हिंदी’ के साथ वह पठनीयता को एक नया आयाम भी रच रहा है. यही वजह है कि बेस्ट सेलर की सूची में हिंद युग्म प्रकाशन की ज्यादातर किताबें अपना स्थान बना रही हैं. ग्राम्य जीवन की शानदार जीवंतता को समझने के लिए पाठकों को यह उपन्यास ज़रूर पढ़ना चाहिए.
समीक्षक पेशे से शिक्षिका हैं: संपर्क:mahjabeenshafaq@gmail.com