”’उसका मन टूट गया । उसके मिट्टी खोदने पर कोयला या अबरख क्यों निकलता है और साथ ही साथ आ पहुंचते हैं अंग्रेज-बंगाली-बिहार लोग इसका कारण क्या है ? उसे कहीं शांति क्यों नहीं मिलती वह कैसी ही निर्जन जगह क्यों न जाए, वहां की मिट्टी के नीचे से कुछ-न-कुछ जरुर निकलता और वहां अच्छी-खासी बस्ती बन जाती है। उसकी मुंडा धरती और भी छोटी हो जाएगी उसे कुछ नहीं चाहिए बस एक छोटा सा गांव हो जहां सब बाशिन्दे आदिवासी हों – हरम देवता की पूजा करनेवाले । पहान के अनुगत” महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘चोट्टी मुंडा और उसके तीर’ के इस अंश का ज़िक्र इसलिए क्योंकि इस बार अभ्रक और कोयला नहीं ‘धर्म’ निकला है ।
जिस पारसनाथ की पहाड़ियों पर जैन धर्म के 23 तीर्थंकरों ने निर्वाण प्राप्त किया, जहां भगवान महावीर के पाँव पड़े उस धरती पर हज़ारों सालों से आदिवासी रहते आए । ना कभी संतों ने ऐतराज किया और ना ही ईश्वर ने , सच्चे श्रद्धालु भी आख़िरी इच्छा के तौर पर हज़ारों मुसीबतें झेलते सम्मेद शिखर पर पहुँचते रहे। बुजुर्ग, असहाय, कमजोर होते जैन यात्रियों को आदिवासियों का कंधा मिलता रहा। सैकड़ों सालों से ऐसा ही चलता रहा । जिसे इतिहास ने दामिन ए खोह कहा,जहां जंगलों को पार करना नामुमकिन था वहां एक सभ्यता पनपती रही । मगर अंग्रेजों के आने, दामिन ए खोह के भयानक जंगलों की भयंकर कटाई , ग्रैंड ट्रंक सड़क के निर्माण और रेलवे लाइन की शुरुआत ने ने देश भर के साहूकारों, सेठों, ज़मींदारों को जैसे जन्नत दे दिया । जंगल कटता गया, बंगले बनते गए, मधुबन, पारसनाथ में अजीब-अजीब पहनावे,बोली वाले लोग आने लगे । फिर शुरू हुआ ज़मीन का खेल, रेवन्यू का प्रपंच। जो कभी आदिवासियों के लिए ईश्वर थे वे कथित सभ्य समाज के लिए राजस्व का ज़रिया बन गए । जल-जंगल-ज़मीन सब की बोली लगा दी गई । पहाड़ के पहाड़ बिक गए । दिल्ली-मुंबई -कोलकाता के सेठों-साहूकारों ने पैसा फेंकना शुरू कर दिया। छोटे-छोटे राज अंग्रेजों की चमचागीरी में सब नीलाम करने लगे ।
ऐसी एक नीलामी हुई थी पारसनाथ पहाड़ की । पूरा का पूरा पहाड़ बेच दिया गया। क्योंकि दिल्ली वाली मीडिया की कहानी उतनी ही तह तक जाती है जहां तक कि उनका तहख़ाना बचा रहे इसलिए ये बहुत कम लोग जानते हैं कि जिस पारसनाथ को लेकर आज आदिवासी-सरकार और जैन धर्म आपने-सामने हैं उसके लिए जैन समाज के बड़े-बड़े पूँजीपतियों ने कभी शहशांह अकबर का फ़र्ज़ी फ़रमान तक कोर्ट में पेश कर दिया था। इस फ़रमान की कहानी बताने से पहले हम आपको लिए चलते हैं आज से क़रीब एक सौ दस साल पहले । ईस्वी 1907 के जून महीने में बंगाल की सरकार ने हज़ारीबाग़ के पारसनाथ को हेल्थ रिसॉर्ट्स के तौर पर विकसित करने का प्लान बनाया । योजना को अमली जामा नहीं पहनाया जा सका । अंग्रेजी सरकार ने पहाड़ को लीज़ पर देने का फ़ैसला किया । लीज़ की शर्तों पर जैन धर्म के श्वेतांबर समुदाय को ऐतराज था लेकिन दिगंबर समुदाय ने इसे मानते हुए पांच हजार रूपए जमा करा दिए । इधर श्वेतांबरों को ये अपमान की बात लगी तो उन्होंने अंग्रेज़ी ख़ज़ाने में दस हजार रूपए जमा कराने को तैयार हो गए । क्योंकि सरकार पहले दिंगंबरों से पांच हजार रूपए स्वीकार कर चुकी थी इसलिए श्वेतांबर की बात नहीं मानी गई । 30 नवंबर 1908 को उस वक्त की सबसे बड़ी लॉ फ़र्म मॉर्गन एंड कंपनी के वकीलों ने दिंगबरों के लिए समझौते का मसौदा तैयार करना शुरू कर दिया । इधर बंगाल की सरकार के वकील ने लीज़ के काग़ज़ात बीस जनवरी 1909 तक तैयार कर लिए । पहाड़ी की नपाई भी शुरु हो गई । इसी बीच पालगंज के जमींदार से श्वेताबंरों ने पारसनाथ पहाड़ी को लीज पर लेने की बात शुरु कर दी । राष्ट्रीय संग्रहालय में मौजूद ऐतिहासिक दस्तावेज बताते हैं जिस सत्य-न्याय और अहिंसा जैसे सिद्धांतों को लेकर जैन तीर्थंकरों ने इस पहाड़ी पर वर्षों बीताए, निर्वाण प्राप्त किया उन सिद्धांतों पर चलने की बजाए जैन धर्म के दोनों पंथों दिगंबर और श्वेतांबरों में ज़बरदस्त झगड़ा होता रहा । इस संबंध में मौजूद ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि 18वीं शताब्दी के आख़िर दशकों से लेकर 19वीं शताब्दी के शुरूआती दशकों में पारसनाथ पहाड़ी में पूजा के लिए आने वाले दिगम्बरों को श्वेतांबर समुदायों की उलाहना,प्रताड़ना झेलनी पड़ती थी। झगड़ा इस कदर बढ़ा चुका था कि बात अदालतों के दरवाज़े तक जा चुकी थी । इसी बीच हज़ारीबाग़ कोर्ट के एक फ़ैसले के बाद लीज़ का मामला अटक गया। नवागढ़ के राज और पालगंज के राजा के बीच पारसनाथ के मालिकाना हक़ को लेकर चल रहा मुक़दमा कई साल तक चलता रहा । मामला पटना हाईकोर्ट पहुँचा । इसी दौरान पालगंज के ज़मींदार ने श्वेतांबरों को पारसनाथ पहाड़ी 2 लाख 60 हजार रूपए में बेच दिया । इधर नवागढ़ के राजा ने एक लाख रूपए की रक़म में पारसनाथ पहाड़ी को परमानेन्ट लीज़ पर दे दिया ।
दरअसल हक़ीक़त ये है कि श्वेतांबर समुदाय दिगम्बरों को पहाड़ी पर स्थित धार्मिक स्थलों पर पूजा के लिए बाधित करना चाहता था । इसीलिए 1912 में श्वेतांबरों ने हज़ारीबाग़ की अदालत में एक मुक़दमा भी दायर कर यह मांग की कि दिगम्बरों को तब तक पारसनाथ में पूजा की इजाज़त नहीं दी जाए जब तक कि वे श्वेतांबरों की पूजा पद्धति को स्वीकार कर उसी ढँग से पूजा नहीं करते हैं । हज़ारीबाग़ कोर्ट अपील ख़ारिज करते हुए 21 मंदिरों में दिगंबरों को पूजा की इजाज़त दे दी हालाँकि 5 मंदिरों में पूजा की पद्धति श्वेतांबरों के मुताबिक़ ही रही ।
अब कहानी का दिलचस्प मोड़ ये है कि श्वेतांबरों का पारसनाथ पर इतना पुरज़ोर दावा इसलिए था कि उनके पास शहंशाह अकबर और अहमद शाह का एक फरमान था जिसमें श्वेतांबरों को पारसनाथ देने की बात कही गई थी । कलकत्ता हाईकोर्ट ने मशहूर पिगरी केस ऑफ फैब्रिकेटेड डॉक्यूमेंट्स में इस फ़रमान को फ़र्ज़ी करार दिया । 25 जून 1892 को सर कूमर पेथराम ने श्वेतांबरों के दावे को ख़ारिज करते हए अकबर के कथित फरमान को फ़र्ज़ी बता दिया ।
अब चलते हैं उन्नींसवी शताब्दी से 21 वीं शताब्दी की ओर । सौ साल पहले पारसनाथ में सिर्फ 26 मंदिर थे। सम्मेद शिखर पर पहुँचना नामुमकिन जैसा था फिर भी आस्था में कमी नहीं थी । आज इस पहाड़ी पर शिखरजीडॉटकॉम चलाने वाली वेबसाइट बताती है कि “पारसनाथ और मधुबन में 50 से ज्यादा जैन संस्थाएं हैं, 100 से ज्यादा मंदिर हैं और 1000 के आसपास मंदिरों में तीर्थंकरों की मूर्तियां हैं। उस दौर में उंगलियों में जैन संस्थाओं को गिना जा सकता था। जिनमें तेरहपंथी कोठी, बीसपंथी कोठी, जैन श्वेतांबर सोसाइटी थी इसके अलावा भोमिया जी भवन और कच्छी भवन निर्माणाधीन था । “ ज़ाहिर है पुरानी धर्मशालाएँ अब काम की नहीं रहीं । पैसे और रसूखदार लोगों के बोलबाले के बीच प्राकृतिक तौर से महत्वपूर्ण इस पहाड़ी पर धड़ल्ले से ज़मीन क़ब्ज़ाने का खेल चल रहा है । आलम तो ये है कि सरकार ने आदिवासियों को ज़मीन बंदोबस्ती के तौर पर रहने खाने के लिए दी थी उस पर क़ब्ज़ा होता जा रहा है । गरीब आदिवासी की सेठ साहूकारों के आगे एक नहीं चलती । ऐसा ही मामला है साल 2015 का जब आदिवासी समाज मौजी तूरी की ज़मीन धर्मशाला वालों ने कब्जे में कर ली । सात साल से सिर्फ नोटिस-नोटिस का खेल चल रहा है । अंग्रेज़ी राज में कम से कम फ़ैसला तो होता था मगर यहाँ अंचल कार्यालय से बात आगे बढ़ती ही नहीं । आदिवासियों की एकड़ के एकड़ ज़मीन धर्म की भेंट चढ़ती जा रही है मीडिया में धर्म का लबादा ओढ़े पत्रकार आलीशान संगमरमर के मंदिर,धर्मशालाएँ और मूर्तियों के आगे पत्रकारिता को झुका दिल्ली लौट जा रहे हैं ।